
प्रेमियों की जमात माशूकाओं के लिए गीत-गजलों में चांद-तारे तोड़ लाती है. लोग सूर्य जैसी यश-कीर्ति की कामना करते हैं. पर चीन के जुनूनी वैज्ञानिक धरती पर ही सूरज-चांद को बनाने की जी-तोड़ कोशिश में जुटे हुए हैं. इस महाप्रयोग की मंजिल तक पहुंचने में उन्हें कुछ कामयाबी भी हासिल हुई हैं.
आज हम बात धरती से लाखों किलोमीटर दूर दहकते सूर्य की बात करेंगे. जिसकी नकल चीन अपने लैब में बना रहा है. इस कोशिश में हाल ही में चीन को बड़ी कामयाबी मिली है. जब लगभग 17 मिनटों तक चीन का कृत्रिम सूर्य दहकता रहा.
मानव की विज्ञान यात्रा में ये एक ऐसा पड़ाव है जहां से हम क्लीन एनर्जी का सपना साकार होते हुए देखते हैं.क्लीन एनर्जी यानी कि बिना प्रदूषण की ऊर्जा. जहां न तो कार्बन पैदा होगा और न ही पृथ्वी के वातावरण को नष्ट करने वाले ग्रीन हाउस गैस बनेंगे.
कृत्रिम सूरज होता क्या है?
चीन के "कृत्रिम सूरज" (Artificial Sun) को वहां के वैज्ञानिकों ने EAST (Experimental Advanced Superconducting Tokamak) नाम दिया है.
कृत्रिम सूरज दरअसल एक परमाणु रिएक्टर (Nuclear Fusion) है. जिस रसायनिक प्रतिक्रिया की वजह से सूर्य में ऊर्जा बनती है. वैज्ञानिक चाहते हैं कि उसी प्रक्रिया को धरती पर दोहराएं, जिससे असीमित स्वच्छ ऊर्जा पृथ्वी पर ही पैदा की जा सके.
असली सूरज में क्या होता है?
अब समझिए कि सूरज में होता क्या है जिससे इतनी भारी ऊर्जा पैदा होती है. सूर्य में ऊर्जा न्यूक्लियर फ्यूजन (Nuclear Fusion) की प्रक्रिया से पैदा होती है. यह प्रक्रिया सूर्य के केंद्र (कोर) में होती है, जहां अत्यधिक तापमान और दबाव के कारण हाइड्रोजन के प्रोटॉन आपस में जुड़कर हीलियम नाभिक बनाते हैं. प्रोटॉनों के इस जुड़ने की प्रक्रिया को ही न्यूक्लियर फ्यूजन कहते हैं. इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में ऊर्जा निकलती है, जो सूर्य से प्रकाश और गर्मी के रूप में बाहर निकलती है और धरती तक आती है.
कृत्रिम सूरज में चीन के वैज्ञानिक करना क्या चाह रहे हैं?
चीन के वैज्ञानिक EAST (Experimental Advanced Superconducting Tokamak) में मौजूद न्यूक्लियर फ्यूजन रिएक्टर में ऐसी प्रतिक्रिया कराना चाहते हैं जिससे कि हाइड्रोजन के आइसोटोप (ड्यूटीरियम और ट्रिटियम) उच्च तापमान और दबाव पर जुड़े और हीलियम गैस बनाएं. इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में ऊर्जा निकलती है, और यही प्रक्रिया सूर्य में भी होती है.
EAST में हाइड्रोजन आइसोटोप्स यानी कि हाइड्रोजन के रूपों जैसे कि ड्यूटेरियम और ट्रिटियम, को प्लाज्मा रूप में बदला जाता है. प्लाज्मा मामूली गैस की तुलना में बहुत अधिक तापमान (लाखों डिग्री सेल्सियस) और घनत्व पर होता है.
फ्यूजन के लिए आवश्यक है कि प्लाज्मा का तापमान लगभग 100 मिलियन डिग्री सेल्सियस यानी कि 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस तक पहुंचे, जो सूर्य की सतह के तापमान से कई गुना अधिक है. इस उच्च तापमान और दबाव पर हाइड्रोजन आइसोटोप्स के नाभिक मिलकर हीलियम बनाते हैं. इस प्रक्रिया में विशाल मात्रा में ऊर्जा निकलती है.
चीनी वैज्ञानिक इसी करिश्मे को हासिल करना चाह रहे हैं. जनवरी 2025 में उन्होंने 1000 सेकेंड यानी 17 मिनटों तक इस प्रक्रिया को हासिल कर लिया. अब अगली चुनौती इस ऊर्जा को रिएक्टर से निकालकर इसके व्यावसायिक प्रयोग की है. जो कि काफी चुनौतीपूर्ण है. चीन इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए अगले 10 से 15 साल का टारगेट रख रहा है. यानी कि चीन 2035-40 तक इस सिस्टम का व्यावसायिक करने की उम्मीद है.
ईंधन की कोई कमी नहीं है, कोई इंपोर्ट की जरूरत नहीं
कृत्रिम सूरज के सपने को साकार करने लिए सबसे अच्छी बात यह है कि इसके लिए हाइड्रोजन की जरूरत पड़ेगी. जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. इसके लिए किसी देश को आयात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
EAST की प्रगति ने दिखाया है कि लंबे समय तक (1000 सेकंड से अधिक) प्लाज्मा को स्थिर रखना संभव है, जो फ्यूजन ऊर्जा की ओर अहम कदम है. इस तकनीक की कामयाबी ऊर्जा संकट से जूझ रहे मानव जाति के लिए वरदान साबित होगी.
कंट्रोल है तो ऊर्जा, आउट ऑफ कंट्रोल हुआ तो एटम बम
गौरतलब है कि इतने अत्यधिक तापमान पर रिएक्टर को कंट्रोल में रखना अत्यधिक जोखिम वाला काम है. ताकि न्यूक्लियर फ्यूजन नियंत्रित अवस्था में हो. हम आपको बता दें कि नियंत्रित न्यूक्लियर फ्यूजन से ऊर्जा का अथाह स्रोत निकलता है, लेकिन अगर ये रिएक्शन अनियंत्रित हुआ तो यही एटम बम विस्फोट के ब्लास्ट में बदल जाता है.
भारत क्या कर रहा है?
ऊर्जा के इतने अहम प्रोजेक्ट से भारत दूर नहीं रह सकता है. दुनिया में कृत्रिम सूर्य जैसी तकनीक से ऊर्जा निकालने की प्रक्रिया पर सालों से काम चल रहा है. दुनिया में इसका सबसे बड़ा संगठन आईटीईआर (ITER) प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट का नाम (International Thermonuclear Experimental Reactor) है. यह प्रोजेक्ट फ्रांस में कैडराशे में स्थित है और इसका उद्देश्य धरती पर न्यूक्लियर फ्यूजन को संभव बनाकर व्यावसायिक संलयन ऊर्जा को संभव बनाना है. यह फ्रांस में बनाया जा रहा है और इसमें 35 देश सहयोग कर रहे हैं. ये 45 बिलियन डॉलर का प्रोजेक्ट है.
इसके अलावा भारत कृत्रिम सूरज बनाने के लिए स्वयं की कोशिशें भी कर रहा है. इस दिशा में भारत की शुरुआत 1980 के दशक से ही हुई. जब भारत ने SINP टोकामक बनाया बनाया. बता दें कि टोकामक एक तरह के महाविशाल बर्तन है जहां फ्यूजन एक्सपेरिमेंट को अंजाम दिया जाता है.
भारत का मुख्य फोकस टोकामक (Tokamak) और स्टेलरेटर (Stellarator) जैसे फ्यूजन रिएक्टर बनाने पर है, जो उच्च तापमान और दबाव पर प्लाज्मा को नियंत्रित करके संलयन प्रक्रिया को संभव बनाते हैं.
भारत के पास आदित्य और स्टेलरेटर
आदित्य भारत का पहला टोकामक है. इसे 1989 में कमीशन किया गया था.इसे हाल ही में आदित्य यू में अपग्रेड किया गया है. इसका उद्देश्य प्लाज्मा को अधिक समय तक और अधिक स्थिरता के साथ नियंत्रित करना है, ताकि फ्यूजन एनर्जी का व्यावहारिक प्रयोग आसान हो सके.
कृत्रिम सूरज की दिशा में भारत की महत्वपूर्ण उपलब्धि स्टेडी स्टेट सुपरकंडक्टिंग टोकामाक-1 (Steady State Superconducting Tokamak-1, SST-1) है. यह भारत में विकसित एक अत्याधुनिक न्यूक्लियर फ्यूजन प्रयोगशाला उपकरण यानी कि एक रिएक्टर है. ये रिएक्टर 2013 से काम कर रहा है. SST-1 का निर्माण 1994 में शुरू हुआ और इसकी कमीशनिंग 2013 में हुई. यह इंस्टीट्यूट फॉर प्लाज्मा रिसर्च (IPR), गांधीनगर, गुजरात में स्थित है.
कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि एसएसटी-1 ने लगभग 200 मिलियन डिग्री सेल्सियस तापमान का प्लाज्मा सफलतापूर्वक पैदा किया है, जो सूर्य के कोर से लगभग 20 गुना अधिक गर्म है.
VIP क्लब में भारत
इसके साथ ही भारत दुनिया के उन 6 देशों में शामिल हो गया है, जिसके पास ये तकनीक है.
बता दें कि SST-1 भारत की रणनीतिक और सामरिक संपत्ति है इसलिए पब्लिक प्लेटफॉर्म पर इसकी कम जानकारी उपलब्ध है. SST-1 को ऐसे डिजाइन किया गया है ताकि यह स्थिर-स्थिति (steady-state) में काम कर सके, जिसका अर्थ है कि यह लंबे समय तक प्लाज्मा को नियंत्रित कर सके.ऐसा करना व्यावसायिक फ्यूजन प्लांट्स के लिए आवश्यक है. चीन की तरह भारत के वैज्ञानिकों ने भी 1000 सेकंड तक प्लाज्मा को स्थिर रखने का लक्ष्य रखा है.
अब भारत SST-2 बनाने की ओर प्रयासरत है. इसमें एडवांस प्लाजमा सिस्टम होगा. इसके 2027 तक बनने की संभावना है.
भारत में फ्यूजन रिएक्टर बनाने की दिशा में इंस्टीट्यूट फॉर प्लाज्मा रिसर्च (IPR) और भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC), IIT जैसे संस्थान अनुसंधान कर रहे हैं.भारत का लक्ष्य भविष्य में अपना स्वदेशी संलयन रिएक्टर विकसित करना है.