
छावा फिल्म को रिलीज हुए डेढ़ महीने बीत चुके हैं, लेकिन उसे लेकर चर्चाओं का बाजार में ऐसी आग लगी है कि अब आदमी इसके धुएं पर बैठकर उसी जमाने में पहुंच जाना चाहता है. जितनी बात मराठा छत्रपति संभाजी महाराज की हो रही है तो चर्चाओं में मुगल बादशाह रहा औरंगजेब भी कम नहीं याद किया जा रहा है, बल्कि आलम तो ये है कि जो सवाल पहले उसकी शख्सियत पर था, वह सवाल अब कुछ यूं बदल गया है कि उस जैसी सख्शियत वाले शख्स की कब्र क्यों होनी चाहिए?
लिहाजा, कोई कब्र हटाने की मांग कर रहा है तो कोई कब्र वाली जगह ही खत्म कर देने की मांग पर अड़ा है. कुल मिलाकर 350 साल पहले के इस मुगलिया बादशाह के खिलाफ गुस्सा उबाल पर है और इसी गुस्से में दोनों तरफ से बयानबाजी जारी है. कब्र को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो इसी बहाने ये जानते हैं कि मुगलिया सल्तनत के शहंशाह रहे औरंगजेब की कब्र कहां है, कैसी है और इसके साथ ही इस्लाम में कब्र कैसी होनी चाहिए, इसको लेकर क्या कहा गया है.
सबसे पहले जानते हैं कि कहां है औरंगजेब की कब्र
औरंगजेब की कब्र अभी के संभाजी नगर (पहले औरंगाबाद) के ही खुल्दाबाद में मौजूद है. औरंगजेब की कब्र वाली जगह यानी दो गज जमीन कच्ची है और कब्र के बीचों-बीच एक सब्जे का पौधा लगा हुआ है. मुगल शासक औरंगजेब ने अपनी वसीयत में अपने बेटे आजम शाह से कहा था कि जब उसकी मौत हो तो खुल्दाबाद में उसकी मिट्टी की कच्ची कब्र बनाई जाए और कब्र पर सिर्फ सफेद चादर चढ़ाई जाए. इस बारे में इतिहासकार खालिद अहमद का कहना है कि पहले मिट्टी की कच्ची कब्रें होती थीं, जिन पर हरे रंग के छोटे-छोटे पौधे लगाए जाते थे और कब्र या मजार पर फूल चढ़ाए जाते थे.
तब से लेकर अब तक मिट्टी की कई सारी कब्रों पर पौधे लगाए जाते हैं. कई मजारें ऐसी भी होती हैं जिनके आसपास झाड़ लगाए जाते हैं. औरंगजेब की कब्र पर भी एक छोटा पौधा लगा हुआ है जो हर कुछ महीनों के बाद बदल दिया जाता है. छह पीढ़ियों से औरंगजेब की कब्र की देखभाल करने वाले अफरोज अहमद का कहना है कि औरंगजेब ने अपने बेटे आजम शाह को वसीयत की थी कि उसकी कब्र उसके उस्ताद सूफी संत हजरत जैनुद्दीन शिराज़ी की दरगाह परिसर, खुल्दाबाद में कच्ची मिट्टी की बनाई जाए.
बारिश में भीग जाती है औरंगजेब की कब्र
उन्होंने बताया कि औरंगजेब का कहना था कि उसकी कब्र पर किसी भी किस्म का गुम्मद या कोई इमारत न बनाई जाए. जैसी गरीबों की कब्र होती है, वैसी ही बनाई जाए... खुले आसमान के नीचे और कच्ची. आज भी उसकी कच्ची कब्र खुले आसमान के नीचे मौजूद है. यही वजह है कि बरसात के महीने में औरंगजेब की कब्र भीग जाती है.
लार्ड कर्जन के कहने पर निजाम ने करवाया सुंदरीकरण
जिस वक्त हिंदुस्तान में अंग्रेज राज कर रहे थे, उस समय लार्ड कर्जन ने निजाम से कहा था कि 'औरंगजेब इतने बड़े बादशाह थे और उनकी कब्र मिट्टी की बनी हुई है'. इसके बाद निजाम ने औरंगजेब की कब्र पर सफेद मार्बल लगवाया और फर्श बनवाई. इतिहासकारों के मुताबिक, औरंगजेब ने कहा था कि उसकी कब्र पर किसी भी तरह का आलीशान या रेशम या मखमल का कपड़ा नहीं होना चाहिए. सिर्फ सफेद कपड़ा ढका होना चाहिए. आज भी औरंगजेब की कब्र सफेद कपड़े से ढकी हुई है.
कब्र पर सब्जे का पौधा क्यों?
औरंगजेब की कब्र के ठीक बीच में एक छोटा सा सब्जे का पौधा लगा हुआ है, जिसकी ऊंचाई एक से डेढ़ फीट है. औरंगजेब की कब्र पर देखभाल करने वाले अफरोज अहमद का कहना है कि वह हर 2 से 3 महीने में कब्र पर सब्जे के पौधे को बदलते रहते हैं, क्योंकि अगर पौधा बढ़ जाएगा तो कब्र को नुकसान पहुंच सकता है.
कैसी होनी चाहिए कब्र?
अब आते हैं इस सवाल पर कि कब्र कैसी होनी चाहिए? कब्र इंसान के जीवन का अंतिम पड़ाव है. इस्लाम में कब्र और दफन की प्रक्रिया को लेकर स्पष्ट दिशानिर्देश दिए गए हैं, जिन्हें शरीयत में बताया गया है. 'औरंगजेब' और 'ताज महल या ममी महल' जैसी किताब के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार रहे अफसर अहमद इस बारे में बहुत ही विस्तार से बताते हैं.
वह कहते हैं कि इस्लाम में कब्र को लेकर सबसे जरूरी बात कही गई है, वह है कब्र का खुला या कच्चा होना. इस्लाम में खुली हुई कब्र ही सही बताई गई है. ऐसी कब्र जिसमें बारिश की नमी और गीलापन हो. ऐसी कब्र विनम्रता और सादगी की मिसाल मानी जाती हैं. खुली कब्र का मतलब है कि वह मिट्टी से ढकी होती है, लेकिन उस पर कोई पक्का ढांचा या छत नहीं होती. इससे प्राकृतिक तत्व जैसे सूरज की रोशनी और बारिश का पानी सीधे कब्र तक पहुंचता है.
वह कहते हैं कि मुगल बादशाह औरंगजेब और बाबर की कब्रें खुली हुई हैं. बाबर की कब्र, जो अब अफगानिस्तान में मौजूद है, ऐसी ही है, जहां सीधी रोशनी आती है. सादगी और विनम्रता वह मूल भाव हैं, जो इस्लाम की शिक्षा से आते हैं.
फिर क्यों बहुत सी कब्रें आलीशान इमारतों वाली हैं?
अफसर अहमद एक और बात कहते हैं कि खुली कब्र को बेहतर माना जाता है, लेकिन ढकी हुई कब्रों को पूरी तरह गैर-इस्लामिक नहीं कहा जा सकता. यह बेहतर और कम बेहतर की बात है. इतिहास में कई सूफी संतों और चिश्ती परंपरा के लोगों की कब्रें ढकी हुई ही बनाई गई थीं. इन पर मकबरे भी बनाए गए. बाद में यही प्रथा बादशाहों के दफन के लिए भी शुमार होने लगी. दिल्ली में हुमायूं का मकबरा और आगरा में ताजमहल जैसी खूबसूरत इमारतें इसकी मिसाल हैं. हालांकि, यह प्रथा इस्लाम की मूल सादगी वाली शिक्षा से अलग है.
इसी तरह एक सवाल उठता है कि, क्या किसी दफन की गई कब्र को दूसरी जगह ले जाया जा सकता है? अफसर अहमद इस पर बताते हैं कि ऐसा किया जा सकता है. इसे इस्लाम में "अमानती दफन" कहा जाता है. अमानती दफन का मतलब है कि मृतक को अस्थायी तौर पर एक जगह दफन किया जाए और बाद में उसे स्थायी स्थान पर ट्रांसफर कर दिया जाए. मुगल काल में यह प्रथा आम थी.
इस मामले में एक बार फिर मुगलिया सल्तनत के फाउंडर बाबर का ही नाम आता है. असल में बाबर को पहले आगरा के राम बाग (जिसे आराम बाग या बाग-ए-गुल अफशां भी कहते हैं) में कई महीनों तक अमानती तौर पर दफन किया गया था, बाद में उनकी कब्र को अफगानिस्तान के काबुल ले जाया गया.
सादगी भरी होनी चाहिए आखिरी रस्म
इसी तरह ताजमहल का जिक्र भी इसी सिलसिले में आता है. मुमताज महल को पहले बुरहानपुर में 6 महीने तक दफन रखा गया. इसके बाद उनकी कब्र को ताजमहल में ट्रांसफर किया गया. तो यह कह सकते हैं कि इस्लाम में दफन की जो प्रोसेस है, वब आसान है और बेहद सादगी से भरी हुई है. कम से कम इस्लाम तो यही सिखाता है.
डॉ. रज़ीउल इस्लाम नदवी, (सचिव, शरिया काउंसिल, जमात-ए-इस्लामी हिंद) भी इस बात से इत्तफाक रखते हैं कि, इस्लाम में कच्ची कब्र होने की ही बात कही गई है. वह बताते हैं कि, 'इस्लाम में यह हुक्म है कि शव को मिट्टी में दफन किया जाए. शरीयत में दर्ज है कि कब्र को कच्चा रखना चाहिए, यानी इसे पक्का नहीं करना चाहिए. इसका एक खास मकसद यह है कि कुछ समय बाद कब्र के निशान मिट जाए और वह जमीन दोबारा इस्तेमाल की जा सके.
इस्लाम में यह विचार है कि कब्र का निशान लंबे समय तक बना नहीं रहना चाहिए. इसके लिए कब्र को मिट्टी से ही ढक दिया जाता है. इसे ईंटों, पत्थरों या मार्बल से नहीं ढका जाता है. इससे यह संदेश भी जाता है कि मृत्यु के बाद इंसान की पहचान धीरे-धीरे मिट्टी में मिल जानी चाहिए.
वह यह भी बताते हैं कि इस्लाम में कच्ची कब्र की बात इसलिए कही गई है, क्योंकि इस्लाम सादगी की बात करता है और कब्र में यह बात झलकनी चाहिए. इस तरह डॉ. रज़ीउल मजारों को लेकर भी बात करते हैं. वह कहते हैं कि कई जगहों पर मजारें बनाई जाती हैं, खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें बहुत बड़ा बुजुर्ग या संत माना जाता है.
मजार को लेकर क्या है मान्यताएं?
लोगों का मानना होता है कि ये बुजुर्ग अल्लाह के करीब हैं और उनकी मजारों पर जाकर दुआ मांगने से उनकी बात अल्लाह तक पहुंच सकती है, लेकिन इस्लाम की मूल शिक्षा, जो तौहीद (एकेश्वरवाद) पर आधारित है, इस विचार के खिलाफ है. इस्लाम में यह स्पष्ट है कि अल्लाह के सिवा किसी से दुआ नहीं मांगी जानी चाहिए. कब्र में दफन लोग खुद दुआ के मोहताज हैं, उनके पास ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वे दूसरों की मदद कर सकें या अल्लाह से सिफारिश कर सकें. इसलिए मजारों पर जाकर दुआ मांगना इस्लाम के खिलाफ माना जाता है.