
राजनैतिक उठापटक के बीच अगस्त में शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ गया. इस बीच खूब तामझाम के साथ मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया. उम्मीद थी कि इसके बाद देश की राजनैतिक-आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पटरी पर आ जाएगी, हालांकि ऐसा हुआ नहीं. इसके उलट देश कुछ और अशांत लग रहा है. आर्थिक से लेकर फॉरेन पॉलिसी के मामले में क्या हसीना का दौर ज्यादा बेहतर था? जानें, क्या कहते हैं की-इंडिकेटर्स.
क्यों हुआ सत्ता में बदलाव
बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में आरक्षण में सुधार को लेकर जून से लगातार प्रोटेस्ट हो रहे थे. लोगों की मांग थी कि योग्यता के आधार पर नौकरी मिले, न कि कोटा पर. दरअसल, यहां सरकारी जॉब में एक तिहाई पद उन लोगों के लिए था, जिनके पुरखों ने साल 1971 में हुए आजादी के आंदोलन में भाग लिया था. इससे मेरिट वालों के लिए बहुत कम गुंजाइश रह जाती थी. हसीना इसे लेकर घिर गईं. वे बांग्लादेश के संस्थापक नेता शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी हैं. उनके बारे में कहा जाने लगा कि वे जानबूझकर आजादी में हिस्सा ले चुके परिवारों के बच्चों के लिए 30 प्रतिशत सीटें रखे हुए हैं. सड़कों पर आया सैलाब इतना आक्रामक हुआ कि 5 अगस्त को तख्तापलट ही हो गया.
इसके बाद मोहम्मद यूनुस को अंतरिम मुख्य सलाहकार के तौर पर चुना गया. नोबेल पुरस्कार विजेता यूनुस के साथ ही उम्मीद थी कि बांग्लादेश की इमेज बेहतर ही होगी, लेकिन की इंडिकेटर्स कुछ और ही बताते हैं. देश में लॉ एंड ऑर्डर के हाल खराब हैं. बांग्लादेशी अखबार प्रोथोम अलो के साथ एक इंटरव्यू में खुद यूनुस को मानना पड़ा कि बांग्लादेश अल्पसंख्यकों के लिए कभी भी सेफ नहीं था, लेकिन हसीना सरकार का गिरना उन्हें और कमजोर बना गया.
अल्पसंख्यकों को लेकर घिर रहा देश
माइनोरिटी पर हिंसा की लगातार खबरें आ रही हैं. इसके पीछे एक वजह ये भी है कि वे हसीना की पार्टी अवामी लीग के सपोर्टर की तरह देखे जाते हैं. उन्हें स्ट्रीट वायलेंस से लेकर हर मोर्चे पर हिंसा झेलनी पड़ रही है. इस्कॉन मंदिर के चिन्मय दास समेत कई नेताओं की धरपकड़ ने ताबूत पर कील की तरह काम किया. अब ये तक खबरें आ रही हैं कि दास के अलावा इस्कॉन से जुड़े लगभग 17 अधिकारियों के खाते फ्रीज कर दिए गए हैं. दुनियाभर में फैले इस मंदिर को लपेटे में लेना बांग्लादेश की छवि को इंटरनेशनल स्तर पर कमजोर कर रहा है.
क्या है अर्थव्यवस्था का हाल
मोहम्मद यूनुस को इकनॉमी में ही शानदार प्रयासों के लिए नोबेल मिला था. जब उन्हें अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया तो लोगों को इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा उम्मीद थी. दरअसल, कोविड 19 के बाद से देश की आर्थिक स्थिति खराब चल रही थी. यूनुस से उम्मीद थी कि उनके आने के बाद कुछ तो सुधार होगा लेकिन पॉलिसी के स्तर पर ऐसा कोई बड़ा कदम नहीं लिया गया. इंडियन एक्सप्रेस ने बांग्लादेशी मीडिया के हवाले से लिखा है कि देश में मंदी लगातार बढ़ रही है.
चुनाव कब होगा
ये एक बड़ा सवाल है. यूनुस जब आए थे तो तय था कि अगले तीन महीनों के भीतर देश में आम चुनाव होंगे. वे केवल अंतरिम सरकार की तरह उतने ही वक्त के लिए देश संभालेंगे लेकिन चार महीने बीतने के बाद भी इसकी तारीख की कोई आहट नहीं. यहां तक कि हसीना की पार्टी अवामी लीग को बैन करने की बात भी चल रही है. अगर ऐसा होता है तो वहां की अवाम के पास बांग्लादेश नेशनल पार्टी के अलावा कोई बड़ा विकल्प नहीं होगा. किसी भी डेमोक्रेटिक देश के लिए ये आदर्श स्थिति नहीं.
पड़ोसियों के साथ कैसे रिश्ते
फॉरेन पॉलिसी के मोर्चे पर भी देश में कुछ नया और बेहतर नहीं दिख रहा. हसीना सरकार पर आरोप था कि वे भारत के लिए जरूरत से ज्यादा सॉफ्ट कॉर्नर रखती हैं. यहां तक कि उनकी जीत पर भी विपक्षी पार्टियों ने इलेक्शन में भारतीय दखलंदाजी का आरोप लगा दिया था. सितंबर में यूनुस ने पड़ोसियों से अच्छे संबंधों की बात तो की लेकिन एक्शन इससे उलट दिख रहा है.
भारत के अलावा बाकी पड़ोसियों से भी बांग्लादेश के अच्छे टर्म्स नहीं. जैसे पाकिस्तान से उसके संबंध कभी खास अच्छे नहीं रहे. दोनों देशों में बंटवारा ही इसी वजह से हुआ था. वहीं म्यांमार से खुद बांग्लादेश त्रस्त रहा. वहां दो धार्मिक समुदायों के बीच चल रहे संघर्ष के बीच रोहिंग्या मुसलमानों की बड़ी आबादी भागकर बांग्लादेश में शरण लेती रही. शुरुआत में यूएन के कहने पर देश ने उनकी मदद भी की लेकिन धीरे-धीरे मामला बिगड़ने लगा.
बांग्लादेशी जनता में नाराजगी है कि बाहरियों की वजह से उनके यहां शांति-व्यवस्था कमजोर हो रही है, वहीं रोहिंग्या शरणार्थी आरोप लगा रहे हैं कि देश ने उन्हें पनाह तो दी लेकिन कोई इंतजाम नहीं किया. फिलहाल कॉक्स बाजार को दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी कैंप कहा जाता है लेकिन वहां की स्थिति डराने वाली है. बीते कुछ सालों से अपने लोगों के दबाव की वजह से बांग्लादेश सरकार रोहिंग्याज को वापस भेजने की कोशिश भी कर रही है लेकिन अब तक इसमें सफलता नहीं मिल सकी.