
नौकरियों में आरक्षण पर शुरू हुआ बांग्लादेशी आंदोलन तख्तापलट पर जाकर रुका. प्रदर्शनकारियों का हुजूम ढाका में पीएम हाउस तक पहुंचकर लूटपाट करने लगा. इसकी तुलना दो साल पहले श्रीलंका के कोलंबो में आए राजनैतिक भूचाल से हो रही है. लेकिन सिर्फ यही बात समान नहीं. बीते तीन से चार सालों भारत के कई पड़ोसी देश कट्टर इस्लामिक देशों में बदलते दिखे. एक तरह से भारत की स्थिति इजरायल जैसी हो सकती है. इससे दक्षिण एशियाई देशों के गठबंधन पर भी असर पड़ेगा.
फिलहाल बांग्लादेश के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव में जिस तरह से सत्ता बदली, उससे ये डर बढ़ा है कि भारत के अधिकतर पड़ोसी या तो कट्टरपंथी हो जाएंगे, या भारत-विरोधी सेंटिमेंट वाले.
कैसी है हमारी भौगोलिक स्थिति
भारत सात देशों से अपनी जमीनी सीमाएं साझा करता है- बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, चीन, नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान. मालदीव और श्रीलंका जल सीमा वाले मुल्क हैं. अब भूटान के अलावा बाकी सारे ही देश कट्टरपंथ की तरफ हैं, जो हिंदू बहुल भारत से कश्मीर या किसी और मसले पर नाराज दिख रहे हैं. चीन में धर्म को लेकर आग्रह नहीं, लेकिन उसके साथ भारत का सीमा विवाद है.
ढाका में अस्थिरता का सीधा असर
श्रीलंका की बात करें तो वहां शेख हसीना सरकार गिरने के बाद भारत-विरोधी माहौल है. ये माहौल पहले भी था, जब भारत के उत्पादों का बहिष्कार करने की बात की जा रही थी. दरअसल हसीना सरकार के भारत से अच्छे रिश्ते रहे. विरोधी दावा करते थे कि हसीना सरकार को दोबारा सत्ता में लाने के लिए भारत ने चुनाव पर असर डाला था. बांग्लादेश में एंटी-हिंदू माहौल भी रहा, जो अब खुलकर दिख रहा है.
इसमें चीन का भी एंगल आता है. हाल में भारत बांग्लादेश के बीच तीस्ता समझौते की बात हो रही थी. चीन की भी इसमें दिलचस्पी रही. हसीना ने महीनाभर पहले ही एक के बाद एक दोनों देशों को विजिट कर इस मामले पर बात की थी. अब हसीना का जाना चीन के लिए फायदेमंद हो सकता है, वहीं भारत के लिए मुश्किल ला सकता है.
मालदीव का रुख भी भारत विरोधी दिख रहा
मोहम्मद मुइज्जू जब से मालदीव के राष्ट्रपति चुने गए, रिश्तों में तनाव बढ़ता गया. आते ही उन्होंने इंडिया आउट कैंपेन शुरू कर दिया था, जिसके तहत भारतीय सैनिकों को देश से हटाया गया. मुइज्जू प्रो-चाइना रहे. चूंकि भारत औऱ चीन के रिश्ते उतने अच्छे नहीं इसलिए भारत से उसके उखड़ने की वजह समझ आती है.
अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट के मुताबिक, मालदीव का अड्डू शहर इस्लामिक चरमपंथियों का गढ़ बना हुआ है. ये ISIS-K (अफगानिस्तान में) को सपोर्ट करता है. हाल में भारतीय सीमाओं पर बढ़ रही आतंकी गतिविधियों में भी कहीं न कहीं इस्लामिक स्टेट का हाथ माना जा रहा है. ये सारी कड़ियां एक तस्वीर बनाती हैं.
कोलंबो पर चीन के कर्ज का असर
श्रीलंका में भी लगभग दो साल पहले राजनैतिक अस्थिरता आई, जिससे राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा. बदहाली में जीता ये देश ऊपर तक चीन के कर्ज में डूबा हुआ है. बदले में चीन उन बंदरगाहों पर कब्जा कर रहा है, जो भारत के करीब हैं, या जहां से भारत पर नजर रखना आसान है. ये भी अपने-आप में खतरे की स्थिति है.
नेपाल ने भगवान राम तक पर किया दावा
नेपाल के हाल और बेहाल हैं. साल 2008 में राजशाही जाने के बाद से ही यहां राजनैतिक अस्थिरता रही. 16 सालों में यहां कई बार पीएम बदल चुके. पिछले महीने ही केपी शर्मा ओली ने सत्ता संभाली. ओली के पिछले कार्यकाल के दौरान दोनों देशों के संबंध बिगड़ने लगे थे. नेपाल ने ऐसे नक्शे जारी किए, जिसमें भारत के कई हिस्से थे.
2020 में ओली ने यह भी क्लेम कर दिया भारत ने भगवान राम को छीन लिया है, जबकि असल अयोध्या तो नेपाल में है. बाद में हालांकि वहां की फॉरेन मिनिस्ट्री ने इसपर स्पष्टीकरण भी दिया था. चीन से लगातार कर्ज ले रहे इस देश में भारत के लिए तल्खी भी दिखने लगी. ये सारी बातें चुनौती साबित हो सकती हैं.
अफगानिस्तान में चरमपंथी शासन
अफगानिस्तान में ठीक तीन साल पहले तालिबान सत्ता में आ गया. ये इस्लामी कट्टरपंथी संगठन है, जिसकी मौजूदगी का असर केवल उस देश तक सीमित नहीं रहा, बल्कि भारत पर भी पड़ा. उनके आने से पहले अशरफ गनी की सरकार के समय भारत और अफगान के अच्छे रिश्ते थे. अब दोनों देशों के रिश्ते लगभग खत्म हो चुके हैं. ज्यादातर देशों ने तालिबान को मान्यता भी नहीं दी, जिसमें भारत भी एक है.
पाकिस्तान से बढ़ रहा आतंकवाद
आर्थिक तंगी झेल रहे पाकिस्तान में लगातार भारत विरोधी माहौल बढ़ता जा रहा है. इमरान खान के दौर में दोनों देशों के बीच संबंध कुछ ठीक होते दिखे थे लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के बाद खान के सत्ता से बेदखल होते ही शहबाज शरीफ पीएम बने, इसके बाद से हालात वहीं के वहीं हैं. इसी सोमवार को वहां पर यौम-ए-इस्तेहसाल (उत्पीड़न) दिवस मनाया गया. बता दें कि चार साल पहले 5 अगस्त को कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा हटा दिया गया था. पाकिस्तान इसके विरोध में उत्पीड़न दिवस मनाता है. इन बातों से पाकिस्तान की कट्टरता और भारत विरोधी रवैए की झलक मिल जाती है.
म्यांमार में भी अच्छी स्थिति नहीं
वहां रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा तो साल 2017 से चला आ रहा है, लेकिन अब वहां सिविल वॉर की स्थिति बनती दिख रही है. विद्रोही सेनाओं ने म्यांमार के उत्तरी क्षेत्र के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया है. दरअसल तीन साल पहले म्यांमार आर्मी ने चुनी हुई सरकार को गिरा सत्ता पर कब्जा कर लिया था. इसके बाद कई विद्रोही गुट बन गए जो सेना के खिलाफ हैं, लेकिन वे भी लोकतंत्र नहीं, बल्कि सत्ता हड़पना चाहते हैं.
इस आपसी खींचतान से विस्थापन चल रहा है. बड़ी संख्या में लोग सीमा पार करके भारत भी आ रहे हैं. यहां तक कि भारत को म्यांमार से सटी अपनी सीमाओं पर चौकसी बढ़ानी पड़ी. माना तो ये तक जा रहा है कि मणिपुर में कुकी और मैतेई संघर्ष म्यांमार से आए घुसपैठियों की देन है.
तुलना करें तो ये स्थिति इजरायल जैसी है. ये यहूदी देश 13 मुस्लिम देशों से घिरा हुआ है, जिनमें से ज्यादातर उसके कट्टर विरोधी रहे. इनमें मिस्र, इराक, अल्जीरिया, कुवैत, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान, सूडान और लीबिया मुख्य हैं. वे कई बार इजरायल पर सीधा हमला बोल चुके. फिलहाल हमास और इजरायल युद्ध में भी ये देश हमास को सपोर्ट कर रहे हैं.
सार्क पर क्या होगा असर
भारत के आसपास इस अस्थिरता का असर सार्क पर होगा. सार्क दक्षिण एशियाई देशों का गुट है जिसमें 8 देश हैं- बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और श्रीलंका. साउथ एशिया में मजबूती के मकसद से बने गुट में फिलहाल भारत ही आर्थिक और राजनैतिक तौर पर स्थिर है. भूटान स्थिर लेकिन छोटा देश है. ऐसे में सार्क एक रस्मी तौर पर बना संगठन ही दिख रहा है, खासकर मौजूदा हालातों में.
लगातार टलती आ रही बैठक
ठीक 10 साल पहले काठमांडू में सार्क की आखिरी बैठक हुई थी, जबकि ये समिट हर दो साल पर होने की बात थी. साल 2022 में इस्लामाबाद में समिट होने की बात थी लेकिन उरी टैरर अटैक के खिलाफ गुस्सा दिखाते हुए पीएम नरेंद्र मोदी के सम्मेलन के बहिष्कार के बाद बाकी सारे देशों ने भी अपना नाम वापस ले लिया था.
हाल में बांग्लादेश के अंतरिम पीएम मोहम्मद यूनुस ने सार्क को दोबारा जिंदा करने की बात की लेकिन पड़ोसी देशों में लगातार अस्थिरता को देखते हुए लगता है कि आने वाले दिनों में भी सार्क किसी बड़े गुट की तरह नहीं उभर सकेगा. जबकि पहले इसके हिस्से कई बड़े फैसले रह चुके हैं.