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आरक्षण से लेकर दिल्ली के 'बॉस' तक... जब सरकार ने पलटे सुप्रीम कोर्ट के फैसले

दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार मिलने के बाद केंद्र सरकार अब एक नया अध्यादेश लेकर आ गई है. ये अध्यादेश फिर से उपराज्यपाल को अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग से जुड़े फैसले लेने का अधिकार देता है. इससे पहले भी अध्यादेश या संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पलटने की कोशिश हो चुकी है.

कई बार सरकार संसद के जरिए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलट चुकी है. (फाइल फोटो-Vani Gupta/aajtak.in) कई बार सरकार संसद के जरिए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलट चुकी है. (फाइल फोटो-Vani Gupta/aajtak.in)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 22 मई 2023,
  • अपडेटेड 10:12 PM IST

केंद्र सरकार 19 मई को एक अध्यादेश लेकर आई. इस अध्यादेश ने दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार फिर से उपराज्यपाल को दे दिया. 

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा, 'केंद्र का ये अध्यादेश असंवैधानिक और लोकतंत्र के खिलाफ है. हम इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगे. जैसे ही सुप्रीम कोर्ट बंद हुआ, उसके कुछ घंटे बाद ही फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार ये अध्यादेश लेकर आ गई.'

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सीएम केजरीवाल ने इस अध्यादेश को सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना बताया. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार उनके कामकाज में बाधा डालना चाहती है. 

दरअसल, 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं के नियंत्रण और अधिकार से जुड़े मामले पर फैसला दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि दिल्ली की नौकरशाही पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण है और अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग पर भी उसी का अधिकार है.

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ कर दिया है कि पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर बाकी सभी दूसरे मसलों पर उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार की सलाह माननी होगी. 

हालांकि, इस फैसले के हफ्तेभर बाद ही केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए फिर से उपराज्यपाल को ही 'बॉस' बना दिया. 

लेकिन, ये पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को पलटने या रद्द करने की कोशिश की गई है. इससे पहले भी अध्यादेश या फिर संसद के जरिए कानून बनाकर ऐसा किया जा चुका है.

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कब-कब हुआ है ऐसा?

1. आरक्षण का मामला

- फैसलाः सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटने का सबसे पहला मामला 1961 में मिलता है. 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि उम्मीदवार की धर्म या जाति के आधार पर सरकार एडमिशन में सीटें आरक्षित नहीं रख सकती. 

- सरकार ने क्या कियाः 1961 में संविधान में पहला संशोधन किया गया. इसके तहत, अनुच्छेद 15 में क्लॉज (4) जोड़ा गया. अनुच्छेद 15(4) ने सरकार को सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने का अधिकार दिया.

2. इंदिरा गांधी का मामला

- फैसलाः 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीतीं. इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को रायबरेली चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया. 

- सरकार ने क्या कियाः सरकार ने संविधान में 39वां संशोधन किया और अनुच्छेद 392A जोड़ा. अनुच्छेद 392A कहता था कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा स्पीकर के चुनाव को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 39वें संशोधन को अवैध करार देते हुए रद्द कर दिया.

3. शाह बानो का मामला

- फैसलाः इंदौर की रहने वाली शाह बानो को उनके पति मुहम्मद अली खान ने तलाक दे दिया था. शाह बानो ने गुजारा भत्ता की मांग को लेकर केस दायर किया. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक में फैसला दिया. कोर्ट ने साफ किया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता मांग सकती हैं.

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- सरकार ने क्या कियाः 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986  पेश किया. नए कानून के तहत मुस्लिम महिलाएं धारा 125 के तहत गुजारे भत्ते का हक नहीं मांग सकती थीं. कानून में प्रावधान किया गया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं इद्दत की तीन महीने की अवधि पूरी होने तक ही गुजारा भत्ते की हकदार हैं.

जब मोदी सरकार में पलटे फैसले

- ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट

फरवरी 2021 में लोकसभा में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स बिल पेश किया, लेकिन ये अटक गया. बाद में अप्रैल 2021 में सरकार अध्यादेश लेकर आई. 

अध्यादेश के तहत, कुछ अपीलेट बॉडीज को भंग करने और उनके कामकाज को मौजूदा ज्यूडिशियल बॉडीज को ट्रांसफर करना था. इसके अलावा, इसमें ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल भी 4 साल फिक्स करने का प्रावधान था. साथ ही, चेयरपर्सन के लिए अधिकतम आयु सीमा 70 साल और सदस्यों के लिए 67 साल थी.

2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को रद्द कर दिया. लेकिन अगले ही महीने संसद में ये कानून बन गया. बाद में इसे फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. फिलहाल, ये मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

- एससी-एसटी एक्ट

मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि एससी-एसटी एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के तहत सरकारी अफसरों को गिरफ्तार करने से पहले अनुमति लेनी होगी, साथ ही ऐसे मामलों में जांच किए बगैर एफआईआर भी दर्ज नहीं होगी.

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इसके बाद एससी-एसटी एक्ट में संशोधन कर धारा 18A जोड़ी गई. इसमें प्रावधान था कि एससी-एसटी एक्ट के तहत बगैर एफआईआर और बगैर किसी के अनुमति के भी गिरफ्तारी हो सकती है. इस संशोधन के जरिए ये भी प्रावधान किया गया कि ऐसे मामले में गिरफ्तार होने वाले को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती.

2018 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ कई याचिकाएं दायर हुईं. 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया और एससी-एसटी एक्ट में संशोधन की वैधता को बरकरार रखा. 

दिल्ली के मामले में क्या है अध्यादेश?

- अध्यादेश के तहत, अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग से जुड़ा आखिरी फैसला लेने का हक फिर से उपराज्यपाल को दे दिया गया है.

- इसके तहत, दिल्ली में सेवा दे रहे 'दानिक्स' कैडर के ग्रुप-A अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए एक अथॉरिटी का गठन किया जाएगा. दानिक्स यानी दिल्ली, अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप, दमन एंड दीव, दादरा एंड नागर हवेली सिविल सर्विसेस.

- इस अथॉरिटी में तीन सदस्य- दिल्ली के मुख्यमंत्री, दिल्ली के मुख्य सचिव और दिल्ली के गृह प्रधान सचिव होंगे. इस अथॉरिटी के अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे. 

- अथॉरिटी को सभी ग्रुप-A और दानिक्स के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और नियुक्ति से जुड़े फैसले लेने का अधिकार होगा, लेकिन इस पर आखिरी मुहर उपराज्यपाल की होगी.

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- अगर उपराज्यपाल अथॉरिटी के फैसले से सहमत नहीं होते हैं तो वो इसे बदलाव के लिए लौटा भी सकते हैं. फिर भी मतभेद रहता है तो आखिरी फैसला उपराज्यपाल का ही होगा.

 

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