
चीन इस समय बौखलाया हुआ है. वजह है- ताइवान. अमेरिका और ताइवान की नजदीकियां उसे परेशान कर रहीं हैं. ताइवान खुद को आजाद मुल्क बताता है तो चीन का कहना है कि वो उसका हिस्सा है. चीन, ताइवान के अस्तित्व को नकारता आया है. वो हर हाल में उसके एकीकरण का सपना देखता है.
वैसे तो दोनों देशों के बीच दशकों से विवाद है, लेकिन ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन के हालिया अमेरिकी दौरे से चीन तिलमिलाया हुआ है. इसी तिलमिलाहट में उसने ताइवान के पास सैन्याभ्यास भी शुरू कर दिया है, जिसे वह युद्ध की तैयारी बता रहा है. सबसे पहले समझ लेते हैं कि ताइवान और चीन के बीच आखिर विवाद क्या है? ताइवान कैसे बना? और उसका इतिहास क्या है?
इल्हा फरमोसा...
साल 1542. पुर्तगाली यात्रियों से भरा जहाज जापान जा रहा था. ये जहाज एक छोटे से द्वीप पर आया. ये द्वीप बहुत खूबसूरत था. इन पुर्तगालियों ने इसे 'इल्हा फरमोसा' नाम दिया, जिसका मतलब होता है 'खूबसूरत द्वीप'. पश्चिमी दुनिया में दूसरे विश्व युद्ध तक ताइवान को फरमोसा के नाम से ही जाना जाता था.
1622 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने ताइवान के दक्षिण पश्चिम तट पर स्थित पेंघू द्वीप पर एक बेस बनाया. लेकिन चीन के मिंग वंश की सेना ने उसे तुरंत खदेड़ दिया. इसके बाद 1624 में डचों ने ताइवान के ताइनान शहर में अपना बेस बनाया. डचों के बेस ने ताइवान को समुद्री व्यापार का बड़ा केंद्र बना दिया. यहां से चीन, भारत, जापान, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया और यूरोप तक व्यापार होने लगा.
ताइवान में डचों की मौजूदगी ने मिंग राजवंश के खिलाफ विद्रोह भड़का दिया. इसका नेतृत्व झेंग चेंग गोंग ने किया. 1662 में एक समझौता हुआ. इसके तहत डचों ने ताइवान छोड़ दिया. चीन से मिंग राजवंश खत्म हो गया और झेंग परिवार का शासन शुरू हुआ. हालांकि, झेंग परिवार 22 साल ही राज कर पाया और 1683 में क्विंग राजवंश का शासन आ गया.
क्विंग राजवंश ने चीन और ताइवान पर 1895 तक शासन किया. 1894 में क्विंग राजवंश और जापानी साम्राज्य के बीच युद्ध हुआ. इसे पहला सीनो-जापानी युद्ध भी कहा जाता है. 1895 में एक समझौता हुआ, जिसके तहत ताइवान पर जापान का राज हो गया. जापान ने ताइवान पर 1945 तक करीब 50 साल तक राज किया.
राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की लड़ाई ने बनाया ताइवान!
1895 में जब क्विंग राजवंश की जापान से हार हुई, तो उसके खिलाफ भी विद्रोह भड़क गया. ये विद्रोह 1911 में एक क्रांति में बदल गया. इसे 'शिन्हाई रिवॉल्यूशन' कहा जाता है. इस क्रांति ने क्विंग राजवंश को सत्ता से उखाड़ फेंका. इसके बाद 1 जनवरी 1912 को चीन का नाम 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' रखा गया. सुन यात-सेन इसके राष्ट्रपति बने. सुन यात-सेन राष्ट्रवादी नेता थे.
1919 में सुन यात-सेन ने 'कुओमिंतांग पार्टी' का गठन किया. इनका मकसद था चीन को फिर से जोड़ना. जापान से हार के बाद ताइवान अलग हो गया था. इसी बीच 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) का गठन भी हो गया. 1923 में सुन यात-सेन की सरकार और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच समझौता हुआ.
1923 में ही सुन यात-सेन ने अपने लेफ्टिनेंट चिआंग काई-शेक को सैन्य और राजनीतिक पढ़ाई के लिए मॉस्को भेजा. समझौते के तहत चिआंग को मॉस्को में खास ट्रेनिंग दी गई. मॉस्को से लौटकर उन्होंने कुओमिंतांग पार्टी के बाकी सदस्यों को भी ट्रेनिंग दी और पार्टी की ही 'आर्मी' बना दी. ये वो समय था जब राष्ट्रवादी और वामपंथी साथ मिलकर काम करते थे. इनका मकसद था चीन को एक करना.
1925 में सुन यात-सेन की मौत हो गई और कुओमिंतांग पार्टी में फूट पड़ गई. कुओमिंतांग जो राष्ट्रवादी पार्टी थी, वो लेफ्ट और राइट विंग में बंट गई. 1927 आते-आते कुओमिंतांग पूरी तरह से दो धड़ों में बंट गई. अब तक कुओमिंतांग की सरकार गुआंगझोऊ प्रांत से चल रही थी, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि ये सरकार वुहान से चले, क्योंकि वहां वो ज्यादा मजबूत थी. लेकिन चिआंग काई-शेक ने मना कर दिया.
अप्रैल 1927 में कुओमिंतांग ने एक प्रस्ताव पास किया. इसमें कहा गया कि कम्युनिस्ट पार्टी सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधा है और इस कारण राष्ट्रवादी क्रांति आगे नहीं बढ़ रही है. कुछ दिन बाद शंघाई में कुओमिंतांग पार्टी के सैकड़ों वामपंथियों को गिरफ्तार कर लिया गया या फांसी दे दी गई. कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे 'शंघाई नरसंहार' का नाम दिया.
इस बीच, अगस्त 1927 में कम्युनिस्ट पार्टी ने भी राष्ट्रवादी सरकार के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया. इसी कारण 'रेड आर्मी' का गठन हुआ. वामपंथियों और राष्ट्रवादियों के बीच ये लड़ाई 10 साल तक चली. इस दौरान चीन में तीन राजधानियां बन चुकी थीं. एक थी- बीजिंग, जिसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली थी. दूसरी थी- वुहान, जहां कम्युनिस्टों का शासन था और तीसरी थी- नानजिंग, जहां कुओमिंतांग की सरकार थी.
एक ओर राष्ट्रवादियों और वामपंथियों के बीच गृह युद्ध चल रहा था तो दूसरी ओर जापान की सेना ने मंचूरिया पर कब्जा कर लिया. लेकिन चिआंग काई-शेक का ध्यान कम्युनिस्टों को तोड़ने पर था. 12 दिसंबर 1936 को चिआंग का अपहरण किया गया और उनसे जबरन कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौता कराया गया. इसे 'शिआन घटना' के रूप में जाना जाता है. उस समय तक माओ त्से तुंग कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता बन चुके थे.
ऐसे बना ताइवान
1945 में दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार हो गई. लेकिन चीन में कुओमिंतांग और कम्युनिस्ट पार्टी में गृहयुद्ध चलता रहा. अब लड़ाई चीन की मेनलैंड यानी मुख्य भूमि पर कब्जे को लेकर थी. चिआंग काई-शेक की सरकार ने उत्तरी चीन में कम्युनिस्टों के गढ़ पर चढ़ाई शुरू कर दी. लेकिन कम्युनिस्टों की रणनीति के आगे उनकी सेना कमजोर पड़ती गई.
कम्युनिस्टों की सेना ने कुओमिंतांग के सैनिकों को या तो मार लिया और या भगा दिया. 1 अक्टूबर 1949 को माओ त्से तुंग ने बीजिंग में 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' की स्थापना की घोषणा की. तब तक चिआंग काई-शेक और कुओमिंतांग के करीब 20 लाख लोग भागकर ताइवान आ गए. दिसंबर 1949 में चिआंग ने ताइपे को अपनी राजधानी घोषित किया और इसका नाम 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' रखा.
करीब 20 सालों तक दोनों देशों के बीच कोई संपर्क, कारोबार या डिप्लोमैटिक रिलेशन नहीं थे. अमेरिका ने भी ताइवान को ही चीन की असली सरकार के तौर पर मान्यता दे रखी थी. संयुक्त राष्ट्र में भी ताइवान की सरकार को ही जगह दी गई. लेकिन 1970 के दशक में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को असली चीनी सरकार माना गया.
चीन और ताइवान में अनबन क्यों?
चीन और ताइवान का रिश्ता अलग है. ताइवान चीन के दक्षिण पूर्वी तट से 100 मील यानी लगभग 160 किलोमीटर दूर स्थित छोटा सा द्वीप है. ताइवान 1949 से खुद को आजाद मुल्क मान रहा है. लेकिन अभी तक दुनिया के 14 देशों ने ही उसे आजाद देश के तौर पर मान्यता दी है और उसके साथ डिप्लोमैटिक रिलेशन बनाए हैं.
चीन ताइवान को अपना प्रांत मानता है और उसका मानना है कि एक दिन ताइवान उसका हिस्सा बन जाएगा. वहीं, ताइवान खुद को आजाद देश बताता है. उसका अपना संविधान है और वहां चुनी हुई सरकार है.
तो क्या चीन और ताइवान में जंग छिड़ेगी?
चीन कई बार कह चुका है कि वो ताइवान को मेनलैंड का हिस्सा बनाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकेगा. इसी साल फरवरी में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख विलियम बर्न्स ने एक इंटरव्यू में बताया था कि चीन के राष्ट्रपित शी जिनपिंग ने अपनी सेना को 2027 तक जंग के लिए तैयार रहने को कहा है.
विलियम बर्न्स ने एक इंटरव्यू में कहा था कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी सेना को 2027 तक ताइवान पर हमला करने के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया है.
वहीं, पिछले महीने ताइवान के रक्षा मंत्री चिउ कुओ-चेंग ने भी चेताया था कि देश को चीन के हमले से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए. उन्होंने कहा था कि चीन की सेना ने कभी भी अचानक से हमला कर सकती है.
क्या चीन के लिए ताइवान पर हमला करना आसान होगा?
चीन भले ही जंग की कितनी ही धमकी क्यों न दे, लेकिन उसके लिए ताइवान पर हमला कर पाना उतना आसान नहीं होगा. इसकी तीन बड़ी वजह है. पहली तो ये कि ताइवान चारों ओर से समुद्र से घिरा है. वहां के मौसम का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. वहां के पहाड़ और समुद्री तट उबड़-खाबड़ हैं. लिहाजा उसके इलाके में घुस पाना आसान बात नहीं है.
दूसरी वजह ये है कि ताइवान की सेना भले ही चीन की सेना के आगे बौनी नजर आती हो, लेकिन उसके पास एडवांस्ड हथियार हैं. 2018 में ताइवान ने बताया था कि उसके पास मोबाइल मिसाइल सिस्टम भी है. इसकी मदद से उसकी मिसाइलें बिना किसी को पता चले लक्ष्य तक पहुंच सकती हैं. साथ ही जमीन से हवा में मार करने वालीं मिसाइलें और एंटी-एयरक्राफ्ट गन चीन को नुकसान पहुंचा सकतीं हैं.
तीसरी वजह अमेरिका का साथ होना है. पिछले साल जब अमेरिकी नेता नैंसी पेलोसी ताइवान दौरे पर आई थीं तो उन्होंने कहा था कि अमेरिका ताइवान के साथ खड़ा है. उन्होंने ताइवान को अच्छा दोस्त बताया है. उनसे पहले मई में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुलेआम कहा था कि अगर चीन हमला करता है, तो अमेरिका ताइवान को सैन्य मदद जरूर देगा.
फिर भी, अगर इन सब बातों को दरकिनार कर जंग की बात को मान लिया जाए, तो इससे दुनियाभर पर असर पड़ेगा. पहले ही कोरोना और रूस-यूक्रेन की जंग ने दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया है. अब अगर चीन-ताइवान में युद्ध होता है तो कार और मोबाइल कंपनियां दिक्कत में आ जाएंगी. इसकी वजह ये है कि ताइवान सेमीकंडक्टर का बड़ा हब है. सेमीकंडक्टर से जो चिप बनती है, उसका इस्तेमाल कारों के सेंसर और मोबाइल की चिप बनाने में किया जाता है.
ताइवान ने बढ़ाया सैन्य बजट
ताइवान सेना की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन का सामना करने के लिए ताइवान इस साल एफ-16 फाइटर जेट सहित हथियारों और उपकरणों पर खर्च करने जा रहा है. ताइवान के रक्षा मंत्रालय का कहना है कि उन्होंने अपने स्ट्रैटेजिक ईंधन रिजर्व की समीक्षा भी करनी शुरू कर दी है.
चीन और ताइवान की सैन्य ताकत
मौजूदा समय में चीन के पास बीस लाख 35 हजार सैनिक हैं जबकि ताइवान के पास एक लाख 70 हजार सैनिक हैं. इनमें नौ लाख 65 हजार सैनिक चीन की थलसेना में है जबकि ताइवान की थलसेना में 94000 फौजी हैं. चीन की नेवी में दो लाख 60 हजार सैनिक है जबकि ताइवान की नेवी में 40 हजार सैनिक हैं.चीन की एयरफोर्स में तीन लाख 95000 सैनिक हैं जबकि ताइवान की एयरफोर्स में 35000 सैनिक हैं.
अगर हथियारों की बात करें तो चीन के पास 4800 टैंक हैं जबकि ताइवान के पास 650 टैंक हैं. चीन की सेना के पास 3000 से ज्यादा लड़ाकू विमान हैं जबकि ताइवान की सेना के पास 690 से ज्यादा लड़ाकू विमान हैं. चीन के पास 59 पनडुब्बियां हैं जबकि ताइवान के पास चार ही पनडुब्बियां हैं. चीन के पास 86 नौसैनिक जहाज हैं जबकि ताइवान के पास 26 नौसैनिक जहाज ही हैं. चीन के पास 9 हजारा से ज्यादा तोपें हैं जबकि ताइवान के पास लगभग तीन हजार तोपें ही हैं.
इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि चीन की सैन्य ताकत के सामने ताइवान कुछ भी नहीं है. ऐसे में अगर चीन, ताइवान पर हमला कर देता है तो ताइवान अपनी रक्षा कैसे करेगा? वह किसकी मदद लेगा? संभावित रूप से चीन की ताकत के सामने बौना ही लेकिन एक्सपर्ट्स के मुताबिक वह भी चीन के साथ युद्ध में टिक सकता है. अगर उसे बाहरी मदद मिले.
ताइवान कितना तैयार है?
ताइवान के रक्षा मंत्री कह चुके हैं कि चीन के हमले का जवाब देने के लिए उनकी सेना पूरी तरह से तैयार है. उन्होंने कहा कि ताइवान, चीन के किसी भी हमले का जवाब देगी.
रक्षा मंत्री चिउ कुओ चेंग ने कहा कि सेना को पता है कि उसे क्या करना है. हम युद्ध के लिए तैयार हैं. चीन के आगे बढ़ने पर हम निठल्लों की तरह नहीं बैठे रहेंगे. अगर चीन की तरफ से पहले हमला किया जाता है तो हम अपनी रक्षा के लिए तैयार हैं.