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कोकीन खाकर आदमखोर हुए भालू पर फिल्म, जानें- क्या जानवर भी होते हैं हाई!

एलिजाबेथ बैंक्स की फिल्म कोकीन बेयर 24 फरवरी को रिलीज हो रही है. इसमें उस भालू का जिक्र है, जो गलती से कोकीन ओवरडोज लेकर आदमखोर दरिंदा बन जाता है. फिल्म का कुछ हिस्सा सच्ची घटना पर आधारित है. वैसे नशे में पशु-पक्षियों का हाई होना कोई नई चीज नहीं. जंगलों में खोज-खोजकर वे ऐसे फल-फूल खाते हैं, जिनमें नशा हो.

जानवरों में भी नशे की लत पड़ जाती है. सांकेतिक फोटो (Unsplash) जानवरों में भी नशे की लत पड़ जाती है. सांकेतिक फोटो (Unsplash)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 20 फरवरी 2023,
  • अपडेटेड 4:12 PM IST

सबसे पहले Cocaine Bear के बारे में जानते चलें. फिल्म में एक भालू को कई किलो कोकीन खाकर तबाही मचाते दिखाया गया है. कम से कम ट्रेलर से यही अंदाजा होता है. फिल्म के पोस्टर में एलान है कि ये सच्ची घटना पर आधारित है, जो कि है भी. दिसंबर 1985 में जॉर्जिया में ये घटना घटी थी. जॉर्जिया ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन ने एक तस्कर की तलाश के दौरान अजीबोगरीब घटना देखी. उन्होंने पाया कि जॉर्जिया के घने जंगलों में एक भारी-भरकम भालू मरा पड़ा है. उसके चारों तरफ कोकीन की फटी हुई थैलियां थीं. जांच में भालू के शरीर में कोकीन की पुष्टि हुई. 

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कैसे पहुंची भालू तक कोकीन?
लगभग 165 करोड़ रुपए की कीमत वाली ये कोकीन एक तस्करी के दौरान जंगलों में गिर गई. तस्कर या पुलिस इस तक पहुंच पाती, इससे पहले एक भालू ने उसे खोज निकाला और कौतूहल से भरकर उसे खा भी लिया. ओवरडोज से उसकी मौत हो गई. जांच के दौरान भालू को पाब्लो एस्कॉबेयर नाम दिया गया, जो कि एक कुख्यात ड्रग लॉर्ड का भी नाम था. लगभग 40 किलो कोकीन का बहुत छोटा-सा हिस्सा ही भालू का काम तमाम कर गया. ज्यादातर पैकेट उसके आसपास फटे और बिखरे मिले. बहुत कोशिशों के बाद भी पुलिस कोकीन की पूरी खेप नहीं खोज सकी. 

कुछ सौ ग्राम कोकीन के असर से खत्म हो जाने वाले भालू के साथ ही इस बात पर बहस होने लगी कि क्या जानवर भी नशे में हाई होते होंगे. जाहिर सी बात है कि कोकीन की पहली डोज मुंह में जाते ही पाब्लो की मौत नहीं हुई होगी, बल्कि खाने पर उसे पहले नशा हुआ होगा, तब जाकर ओवरडोज से मौत. यानी पशु-पक्षी भी ड्रग एडिक्ट हो सकते हैं, अगर मौका मिले.

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Cocaine Bear फिल्म असल घटना से प्रेरित है. 

पशु भी होते हैं हाई
जानवरों के नशेड़ी होने के सबूत 19वीं सदी से ही मिलने लगे थे. तब अफ्रीका की जुलू जनजाति ने अपने हाथियों के एकाएक हिंसक हो जाने की शिकायत की. जांच हुई तो पता लगा कि सबके सब जंगल जाकर एक खास तरह का फल खाकर आते. पहले तो वे मौका मिलते ही भागते, लेकिन फिर नशे की उन्हें इतनी आदत लगी कि वे इसके लिए तोड़फोड़ तक मचाने लगे. साल 1830 की ये घटना पहला वाकया नहीं. 

शराब चोरी होने लगी
वर्वेट बंदर, जिन्हें ग्रीन मंकी भी कहते हैं, जमकर नशा करते रहे. अफ्रीकी मूल के इन बंदरों को ये आदत कैरेबियन जाकर लगी. दरअसल 18वीं सदी में दास प्रथा जोरों पर थी. अफ्रीकी लोगों को मजदूरी के लिए दुनिया के इस-उस कोनों में ले जाया जा रहा था. ऐसे ही उनका कैरेबियन जाना हुआ. अपने परिवारों से अलग हुए गुलाम अपने साथ बंदरों को ले जाने लगे. कैरेबियन द्वीपों पर तब गन्ने की खूब खेती होती थी. ये बंदर मालिकों से बचकर गन्ने खाने लगे और फिर वो जूस भी पीने लगे, जिससे नशा तैयार होता था. फिर हालत ये हुई कि बंदर शराब की चोरी करने लगे. बहुत से बंदरों को ऐसा करते हुए पकड़ा गया, जिसके बाद कैरेबियन पर गुलामों का बंदरों को लाना बंद करवा दिया गया. 

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आगे चलकर इन बंदरों पर कई स्टडीज हुईं. एक अध्ययन कहता है कि बंदरों के सामने अगर सादा पानी और अल्कोहल मिला पानी रखा जाए, तो हर पांच में से एक बंदर अल्कोहल मिला पानी पिएगा, वो भी तब जब उसने कभी नशा नहीं किया हो. साइंस डायरेक्ट में ये स्टडी वॉलंटरी अल्कोहल कंजप्शन गल वर्वेट मंकीज के नाम से छपी. इसमें ये भी दिखा कि टीनएजर बंदर, वयस्कों की तुलना में ज्यादा नशा करते हैं. 

कई पशु जंगल में मिलने वाले ऐसे फल-फूल खाते हैं, जो साइकोएक्टिव प्रकृति के हों. सांकेतिक फोटो (Unsolash)

मकड़ियों को दिया नशा
पशु-पक्षियों में ड्रग एडिक्शन पर स्टडी की शुरुआत मजेदार ढंग से हुई. साल 1948 में एक स्विस फार्मेकोलॉजिस्ट पीटर एन विट ने मकड़ियों को कई तरह के साइकोएक्टिव ड्रग्स देना शुरू कर दिया. दरअसल वे मकड़ियों को जाल बुनने से रोकना चाहते थे. नशा देने पर पाया गया कि मकड़ियां सुस्त हो जाती हैं और जाल नहीं बना पातीं. इसके बाद गौर किया जाने लगा कि एनिमल्स पर नशे का क्या असर होता है. 

डॉल्फिन नशे के लिए इस हद तक चली जाती हैं कि वे खोज-खोजकर ऐसी मछलियां खाती हैं, जिनके शरीर में नशा हो. दरअसल मछलियों की कई किस्मों में टेट्रोडोटॉक्सिन होता है. ये एक तरह का जहर है, जो छोटी मछलियां अपनी रक्षा के लिए निकालती हैं. डॉल्फिनों के लिए यही जहर नशे का काम करता. कई वैज्ञानिकों ने इसपर भी प्रयोग करना चाहा कि डॉल्फनों को बस वही मछली दी जाए, जिनमें टेट्रोडोटॉक्सिन हो, लेकिन फिर पशु-प्रेमी एक्सपर्ट्स के बवाल के बाद बात टल गई.

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टेट्रोडोटॉक्सिन कोई मामूली जहर नहीं, बल्कि इसके कुछ मिलीग्राम में ही कोकीन से लगभग सवा लाख गुना नशा होता है. इसे दुनिया के सबसे जहरीले जीवों के जहर से भी ज्यादा तेज माना जाता है. इसके बाद भी डॉल्फिनें इसे खाकर जिंदा रहीं. 

जंगल में ही खोज लेते हैं नशा देने वाली चीजें
शराब या ड्रग्स जानवरों की पहुंच के बाहर की चीजें हैं, ऐसे में वे जंगल में मिलने वाले ऐसे फल-फूल खाते हैं, जिनमें नशा हो. मिसाल के तौर पर मैजिक मशरूम, जिसे साइलोसिबिन मशरूम भी कहते हैं, बहुत से पशुओं की पहली पसंद है. ये साइकोएक्टिव फंगस है, जिसमें साइलोसिबिन नाम का कंपाउंड होता है. ये नशे का खुमार देने वाला कंपाउंड है. इसी तरह की कई चीजें जंगलों में होती हैं, जैसे महुआ और खजूर. अक्सर जानवर इनके आसपास मंडराते मिल जाएंगे. 

 

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