
चुनाव हों और बवाल न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. नया बवाल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के एक चुनावी वादे से खड़ा हो गया. सीपीएम ने अपने घोषणापत्र में सरकार बनने पर 'परमाणु हथियार नष्ट' करने का वादा किया है. सीपीएम विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक का हिस्सा है. और इस पर अब बवाल बढ़ता जा रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस चुनावी वादे को 'खतरनाक' बताया है. पीएम मोदी ने एक रैली में कहा, 'भारत जैसा देश, जिसके दोनों पड़ोसियों के पास परमाणु हथियार हों, क्या उस देश में परमाणु हथियार खत्म करना ठीक होगा?'
बीजेपी के कई नेताओं ने सीपीएम पर चीन के इशारों पर काम करने का आरोप लगाया है. वहीं, विपक्ष ने इससे दूरी बना ली है. कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि इन सब बातों का जवाब सीपीएम ही देगी, इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है.
बहरहाल, परमाणु हथियारों को लेकर भारत में लेफ्ट पार्टियों का रवैया हमेशा से ऐसा ही रहा है. मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में जब भारत और अमेरिका के बीच अहम परमाणु समझौता होने वाला था, तब लेफ्ट पार्टियों ने पहले तो धमकी दी और फिर सरकार से समर्थन वापस ले लिया. बाद में एक किताब में खुलासा हुआ था कि इस समझौते का विरोध लेफ्ट पार्टियों ने इसलिए किया था, क्योंकि चीन ने ऐसा कहा था.
चीन के कहने पर परमाणु समझौते का विरोध!
विदेश सचिव रहे विजय गोखले की दो साल पहले एक किताब आई थी. इसका नाम- 'द लॉन्ग गेमः हाउ द चाइनीज नेगोशिएट विद इंडिया' था.
इस किताब में उन्होंने दावा किया, 'लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु समझौते का विरोध करने का फैसला चीन की वजह से लिया था. 2008 में चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल किया. उसने भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते को तोड़ने के लिए भारत के अंदर राजनीतिक विरोध शुरू करवाया था.'
गोखले ने किताब में दावा किया है कि चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों और लेफ्ट की ओर झुकाव वाली मीडिया के जरिए परमाणु समझौते में अड़ंगा डालने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि भारत की अंदरूनी राजनीति में चीन के दखल का ये पहला मामला था.
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हुआ क्या था?
साल 1974 में 18 मई को राजस्थान के पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया. इसे 'स्माइलिंग बुद्धा' नाम दिया गया था. ये परीक्षण सफल रहा और इससे दुनियाभर में हलचल पैदा हो गई. सबसे ज्यादा दिक्कत हुई अमेरिका को.
इस परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर कई सारे प्रतिबंध लगा दिए गए. कनाडा और अमेरिका ने भारत के परमाणु रिएक्टरों को दिए जाने वाले रेडियोएक्टिव ईंधन की सप्लाई भी रोक दी. उसी साल 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' बना और भारत को परमाणु सामग्री और परमाणु तकनीक निर्यात किए जाने पर रोक लगा दी.
सप्लायर ग्रुप ने नियम बनाया कि जो देश परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर दस्तखत नहीं करेगा, उसके साथ परमाणु व्यापार नहीं किया जाएगा. भारत ने एनपीटी पर साइन करने से इनकार कर दिया.
इसके बाद 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भारत ने पोखरण में एक बार फिर परमाणु परीक्षण किया. इससे अमेरिका और आगबबूला हो गया. अमेरिका ने फिर भारत पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए.
मनमोहन सरकार में हुआ वो ऐतिहासिक समझौता
कई सालों तक भारत और अमेरिका के बीच तनाव बना रहा. मई 2004 में जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बनी, तो रिश्ते सुधारने की पहल शुरू की गई. जुलाई 2005 में मनमोहन सिंह ने अमेरिका का दौरा किया. इस दौरान उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को एक परमाणु करार पर सहमत करा लिया.
लेकिन अमेरिका ने इसके लिए दो शर्तें रखीं. पहली- भारत अपनी सैन्य और नागरिक परमाणु गतिविधियों को अलग-अलग रखेगा. दूसरी- परमाणु तकनीक और सामग्री दिए जाने के बाद भारत के परमाणु केंद्रों की निगरानी अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) करेगा.
2 मार्च 2006 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश भारत दौरे पर आए. इसी दौरे में भारत और अमेरिका के बीच ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर हुए. इस समझौते को 'इंडिया-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील' भी कहा जाता है. हालांकि, अभी भी इसकी राह में कई रोड़े थे.
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लेफ्ट पार्टियां उतरी विरोध में
सीपीआई और सीपीएम जैसी लेफ्ट पार्टियां शुरू से ही अमेरिका के साथ होने वाली इस न्यूक्लियर डील का विरोध कर रही थीं.
2006 में जब बुश भारत दौरे पर आए थे, तब केरल और बंगाल में विधानसभा चुनाव भी होने ही थे. इसलिए लेफ्ट पार्टियां थोड़ी शांत रहीं. लेकिन दोनों ही राज्यों में जोरदार वापसी ने लेफ्ट पार्टियों को खुलकर विरोध करने का मौका दे दिया.
चुनाव नतीजों के बाद मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहीं लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु समझौते से बाहर हटने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. लेफ्ट पार्टियों के नेता आए दिन सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकियां देने लगीं. सीपीआई नेता एबी वर्धन से एक बार जब मीडिया ने पूछा कि सरकार कब तक सुरक्षित है? तो उन्होंने जवाब दिया, 'शाम पांच बजे तक तो सुरक्षित है, लेकिन आगे का मैं नहीं बता सकता.'
लेफ्ट पार्टियों का कहना था कि इस समझौते से भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर असर पड़ेगा और स्वायत्तता पर अमेरिका की छाप पड़ेगी. उन पार्टियों का ये भी कहना था कि ये समझौता अमेरिका की ओर से फेंका गया एक जाल है, जिसका मकसद भारत को सैन्य और रणनीतिक स्तर पर खुद से बांधना है.
इधर लेफ्ट पार्टियों के बढ़ते दबाव के कारण कांग्रेस में भी हलचल बढ़ गई थी. बताया जाता है कि उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी मनमोहन सिंह को इस डील पर दोबारा सोचने को कहा. मनमोहन सिंह परमाणु समझौते पर किसी भी कीमत पर भी झुकने को तैयार नहीं थे.
बताया जाता है कि कांग्रेस की एक बैठक में जब परमाणु समझौते पर मुद्दे पर चर्चा हुई तो मनमोहन इतने नाराज हो गए कि उन्होंने अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी.
इस सबका नतीजा ये हुआ कि 8 जुलाई 2008 को लेफ्ट ने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लेफ्ट पार्टियों ने दावा किया कि सरकार अल्पमत में है.
22 जुलाई 2008 को मनमोहन सरकार ने विश्वास मत पेश किया. इसके पक्ष में 275 और विरोध में 256 वोट पड़े. इस तरह सरकार ने 19 वोटों से विश्वास मत जीत लिया. और लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बावजूद सरकार बच गई.
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और फिर फाइनल हुई डील
मार्च 2006 में भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौता तो हो गया था, लेकिन डील अब तक फाइनल नहीं हुई थी. क्योंकि इस डील को फाइनल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA), न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (NSG) और अमेरिकी संसद की मंजूरी जरूरी थी.
लेफ्ट पार्टियों के समर्थन वापसी के बाद मनमोहन सरकार इस समझौते को अंतिम रूप देने के लिए फुल एक्शन मोड में आ गई. आठ अगस्त 2008 को IAEA ने इस समझौते को मंजूरी दे दी.
इसके बाद 6 सितंबर 2008 को विएना में न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप के 45 सदस्य देशों के बीच एक अहम बैठक हुई. काफी लंबी मशक्कत के बाद एनएसजी ने भी इस समझौते को मंजूरी दे दी. इसके साथ ही परमाणु ऊर्जा के लिए परमाणु सामग्री और तकनीक हासिल करने का जो रास्ता भारत के लिए तीन दशकों से बंद था, वो दोबारा खुल गया.
अब तीसरा पड़ाव था इस समझौते को अमेरिकी संसद की मंजूरी मिलना. 27 सितंबर 2008 को अमेरिकी संसद के निचले सदन ने इस समझौते को 298 वोटों के साथ मंजूरी दे दी. 2 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी सीनेट की भी इसकी मंजूरी मिल गई. आखिरी में 8 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इस समझौते पर दस्तखत कर आखिरी औपचारिकता भी पूरी की.
इस समझौते को लगभग 16 साल पूरे हो गए हैं. इस समझौते का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ है कि दुनियाभर का परमाणु बाजार भारत के लिए खुल गया.