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दंडकारण्य का जंगल कैसे बना हुआ है नक्सलियों का गढ़? इतने प्लान और ऑपरेशन के बावजूद क्यों बरकरार है खतरा

दंडकारण्य का जंगल 90 हजार से ज्यादा वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है. इसे नक्सलियों का गढ़ भी कहा जाता है. वो इसलिए क्योंकि यहीं पर नक्सली बसे हुए हैं. सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि आसपास के राज्यों के नक्सली भी यहां पर मौजूद हैं.

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद बड़ी समस्या बनी हुई है. छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद बड़ी समस्या बनी हुई है.
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 27 अप्रैल 2023,
  • अपडेटेड 1:59 PM IST

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने एक बार फिर सुरक्षाबलों को निशाना बनाया है. बुधवार को नक्सलियों ने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड फोर्स (डीआरजी) को लेकर आ रही वैन पर IED से हमला कर दिया. इस हमले में 10 जवान शहीद हो गए. साथ ही वैन चला रहे ड्राइवर की भी मौत हो गई. ये हमला दंतेवाड़ा के अरनपुर में तब हुआ, जब डीआरजी के जवान एंटी-नक्सल ऑपरेशन से लौट रहे थे. 

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इस हमले के बाद पूरे बस्तर डिविजन को अलर्ट पर रखा गया है. बस्तर डिविजन में सात जिले- कांकेर, कोंडागांव, नारायणपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर आते हैं. 

बस्तर डिविजन में सुरक्षाबलों पर नक्सली हमलों का इतिहास पुराना रहा है. गर्मियों में ये हमले और बढ़ जाते हैं. नक्सली इसे 'टैक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैंपेन' यानी TCOC कहते हैं.

नक्सलवाद कितनी बड़ी समस्या?

गृह मंत्रालय के मुताबिक, देश के 10 राज्यों के 70 जिले ऐसे हैं जहां नक्सलवाद अभी भी है. सबसे ज्यादा 16 जिले झारखंड के हैं. उसके बाद 14 जिले छत्तीसगढ़ के हैं. 

छत्तीसगढ़ के जो जिले नक्सल प्रभावित हैं, उनमें बलरामपुर, बस्तर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, धमतरी, गरियाबंद, कांकेर, कोंडागांव, महासमुंद, नारायणपुर, राजनंदगांव, सुकमा, कबीरधाम और मुंगेली शामिल हैं.

आंकड़े बताते हैं कि भले ही झारखंड में छत्तीसगढ़ से ज्यादा नक्सल प्रभावित जिले हैं. लेकिन, छत्तीसगढ़ के मुकाबले झारखंड में नक्सली हमलों की संख्या लगभग आधी है.

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छत्तीसगढ़ में कितना है नक्सलवाद?

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद सबसे बड़ी समस्या है. गृह मंत्रालय के मुताबिक, 2018 से 2022 के बीच पांच साल में नक्सलियों ने एक हजार 132 हमलों को अंजाम दिया है. इनमें सुरक्षाबलों के 168 जवान शहीद हुए हैं, जबकि 335 आम नागरिक भी मारे गए हैं.

वहीं, इसी दौरान सुरक्षाबलों की ओर से 398 ऑपरेशन चलाए गए हैं, जिनमें 327 नक्सलियों को ढेर कर दिया गया है.

गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि इस साल 28 फरवरी तक छत्तीसगढ़ में 37 नक्सली हमले हुए थे, जिनमें सुरक्षाबलों के सात जवान शहीद हो गए थे. सुरक्षाबलों ने एक नक्सली को ढेर कर दिया था. अब दंतेवाड़ा में नक्सली हमलों में 10 जवान शहीद हो गए. 

छत्तीसगढ़ से खत्म क्यों नहीं होता नक्सलवाद?

छत्तीसगढ़ और झारखंड के अलावा आंध्र प्रदेश, बिहार, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल से भी नक्सलवाद पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. 

हालांकि, अब ज्यादातर नक्सली हिंसा दो केंद्रों तक सिमट गई है. पहला- छत्तीसगढ़ और आसपास के राज्यों में फैले दंडकारण्य जंगल में. और दूसरा- झारखंड-बिहार-पश्चिम बंगाल की सीमा पर.

लेकिन, इसमें भी सबसे ज्यादा नक्सली हिंसा दंडकारण्य के जंगलों और पहाड़ी इलाकों में ही होती है. दंडकारण्य छत्तीसगढ़ के साथ-साथ आंध्र प्रदेश और ओडिशा में भी फैला हुआ है. ये पूरा जंगल 92 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है.

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छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद न खत्म होने की एक वजह ये है कि आसपास के राज्यों के नक्सली अब यहां बसने लगे हैं. दरअसल, ऐसा माना जाता है कि नक्सलवाद को खत्म करने में सबसे अहम भूमिका राज्य की पुलिस की होती है. आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड में पुलिस ने नक्सलियों के खिलाफ जबरदस्त ऑपरेशन चलाया है. नतीजा ये हुआ कि इन राज्यों के नक्सलियों ने दंडकारण्य के जंगलों में पनाह ले ली. 

दंडकारण्य कैसे बना नक्सलियों का गढ़?

इसकी जड़ें 90 के दशक से जुड़ती हैं. दरअसल, नक्सलियों के खात्मे के लिए 1989 में आंध्र प्रदेश पुलिस ने 'ऑपरेशन ग्रेहाउंड' लॉन्च किया था. इस ऑपरेशन आईपीएस केएस व्यास ने लीड किया था.

इस ऑपरेशन के तहत आंध्र में कई नक्सलियों को ढेर कर दिया गया था. इससे माओवादी घबरा गए थे. केएस व्यास नक्सलियों की हिट लिस्ट में आ गए थे. 27 जनवरी 1993 को माओवादियों ने गोली मारकर केएस व्यास की गोली मारकर हत्या कर दी थी. उनकी हत्या शाम को उस समय की गई, जब वो सैर पर निकले थे.

आंध्र प्रदेश पुलिस के इस ऑपरेशन से बचने के लिए नक्सलियों ने दंडकारण्य के जंगलों में छिपने को मजबूर कर दिया. धीरे-धीरे इन जंगलों में माओवादियों की संख्या बढ़ती गई. इन माओवादियों ने स्थानीय आदिवासियों तक माओवादी विचारधारा फैलाना शुरू कर दी. 

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नक्सलियों ने स्थानीय आबादी को ये समझाना शुरू कर दिया कि उनकी हर समस्या का समाधान उनके पास है. उदाहरण के लिए, तेंदुपत्ता चुनने पर आदिवासियों को पहले जो मजदूरी मिलती थी, वो नक्सलियों के विरोध के बाद दस गुना बढ़ गई थी.

इन सबने यहां के स्थानीय आबादी को भी नक्सलवाद की तरफ धकेल दिया. दंडकारण्य के जंगल के नक्सलवाद बनने की दूसरी वजह ये है कि यहां पर जो स्थानीय आबादी रहती है, उन्हें सालों तक बुनियादी जरूरतें भी हासिल नहीं हो सकीं. 

जंगलों में इस तरह कैम्प बनाकर रहते हैं माओवादी. (फाइल फोटो)

आखिर में बात DRG क्या है?

डीआरजी यानी डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड फोर्स. बस्तर डिविजन के सभी जिलों में नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए 2008 में इसकी शुरुआत की थी. बाद में कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर, सुकमा, कोंडागांव और दंतेवाड़ा में भी इसका गठन किया गया.

डीआरजी में स्थानीय युवाओं को तरजीह दी जाती है. इनमें कई बार सरेंडर कर चुके नक्सलियों को भी भर्ती किया जाता है. 

स्थानीय युवाओं और सरेंडर कर चुके नक्सलियों को इसलिए ज्यादा तरजीह दी जाती है, ताकि नक्सलवाद से निपटने में ज्यादा मदद मिल सके. इन्हें इलाकों की ज्यादा जानकारी होती है. स्थानीय भाषा की भी समझ होती है.

खर्च बढ़ रहा, लेकिन हमले नहीं रुक रहे

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नक्सली हमलों से निपटने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार को मिलने वाली आर्थिक मदद बढ़ रही है. लेकिन हमले कम नहीं हो रहे हैं. 2017-18 में केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ को 92 करोड़ रुपए दिए थे, जो 2020-21 में बढ़ाकर 140 करोड़ रुपए हो गए. इसके बावजूद छत्तीसगढ़ सबसे ज्यादा मौतों के मामले में टॉप पर है.

 

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