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राजा ढिल्लू से ढिल्ली, ढिल्लिका, ढेलिका, ढेली और देल्ही तक... राजधानी दिल्ली के 16 नामों की कहानी

इतिहासकारों ने कई दस्तावेजों में जिक्र किया है, पुराना किला परिसर में आजादी के पहले तक इंदरपत नाम से एक गांव भी आबाद था. राजधानी नई दिल्ली का निर्माण करने के दौरान अन्य गांवों के साथ उसे भी हटा दिया गया था, दिल्ली में स्थित सारवल गांव से 1628 ईस्वी का संस्कृत का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है.

दिल्ली को उसका नाम मिलने की कहानी दिल्ली को उसका नाम मिलने की कहानी
विकास पोरवाल
  • नई दिल्ली,
  • 05 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 6:54 AM IST

राजधानी दिल्ली, जो एक केंद्र शासित प्रदेश भी है, एक बार फिर से अपना सीएम चुनने की राह पर खड़ी है. चुनावी जंग का मैदान सजा हुआ है. दिल्ली की सियासत पर गौर करते हैं तो ये सुई, इसके इतिहास पर आकर ठहर जाती है. वो इतिहास जिसके पन्ने युद्ध के मैदानों तक ले जाते हैं और, राजा-महाराजा, नवाब-सुल्तान से होकर संत-महात्मा, पीर-फकीर, महल-किले, दरों-दरगाहों तक जाकर खुलते हैं.

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दिल्ली से जुड़े हर शख्सियत की कहानी जितनी दिलचस्प है, उतना ही दिलचस्प है ये सवाल कि आखिर दिल्ली का नाम पड़ा कैसे? ये एक सवाल इतना गहरा है कि इसकी तह तक जाने में 5000 साल का इतिहास लग जाता है. 

इंद्रप्रस्थ से शुरू होती है कहानी
दिल्ली के सबसे प्राचीन नाम की कहानी इंद्रप्रस्थ से शुरू होती है. इस नाम के जिक्र का लिखित दस्तावेजीकरण महाभारत में मिलता है. हस्तिनापुर में कौरव-पांडव के बीच जब राज्य का बंटवारा हुआ था, तब उन्हें हस्तिनापुर का एक्सेंटेड एरिया, जो तब खांडवप्रस्थ कहलाता था वह मिला था. आज हस्तिनापुर के अवशेष उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले से 35 किमी दूर मवाना नाम की तहसील में मिलते हैं. यहां उल्टाखेड़ा नाम का एक पुराना टीला है. कहते हैं कि हस्तिनापुर का महल यहीं था. मवाना नाम भी 'मुहाना' शब्द से निकला है. 

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माना जाता है कि पहले गंगा नदी की एक धारा यहीं से होकर बहती थी और इसके किनारे ही हस्तिनापुर था. यह एरिया प्राचीन शहर का प्रवेश द्वार था, जिसे बाद में मुहाना कहा गया और यही मवाना बन गया. उधर, दूसरी ओर, पांडवों के हिस्से में बंटवारे के बाद जो खांडवप्रस्थ मिला था, वह पथरीली कंटीली झाड़ियों वाला वन प्रदेश था. यहां कीकर के पेड़ों का घना जंगल था और इसी के बीच से होकर यमुना नदी बहती थी. 

पुराना किला में था एक इंदरपत गांव
कृष्ण के सुझाव पर अर्जुन ने खांडवप्रस्थ को जलाकर यहां राजधानी बनाई. देवराज इंद्र के कहने पर पहले यहां तक्षक नाग और उसकी नागजाति का बसेरा था, जिन्हें यहां से विस्थापित किया गया. इंद्र ने अर्जुन की मांग पर राजधानी बसाने में सहायता की और उनके ही नाम पर इसे इंद्रप्रस्थ कहा गया. आज यमुना किनारे जो पुराना किला के अवशेष हैं, उसे ही पांडवों का माया महल माना जाता रहा है.

इतिहासकारों ने कई दस्तावेजों में जिक्र किया है, पुराना किला परिसर में आजादी के पहले तक इंदरपत नाम से एक गांव भी आबाद था. राजधानी नई दिल्ली का निर्माण करने के दौरान अन्य गांवों के साथ उसे भी हटा दिया गया था, दिल्ली में स्थित सारवल गांव से 1628 ईस्वी का संस्कृत का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है. यह अभिलेख लाल किले के संग्रहालय में उपस्थित है. इस अभिलेख में इस गांव के इंद्रप्रस्थ जिले में स्थित होने का उल्लेख है.

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शांतिसभा में पांडवों की ओर से जो पांच गांव मांगे गए थे, उनमें वे ही गांव शामिल थे, जिनमें प्रस्थ आता था. आज इन्हें इंदरपत, सोनीपत, बागपत, तिलपत कहा जाता है. महाभारत में इसका उल्लेख कुछ इस तरह आता है.

कृष्ण कहते हैं, इंद्रप्रस्थं वृक्रप्रस्थं जयंतं वारणावतनम्‌, देहि में चतुरो ग्रामान्‌ पंचमं किंचिदेव तु.

वहीं, पद्मपुराण ने इंद्रप्रस्थ में युमना को पवित्र तथा पुण्यवती माना है :

यमुना सर्वसुलभा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
इंद्रप्रस्थे प्रयागे च सागरस्य च संगमे।।

यहां यमुना के किनारे 'निगमोद्बोध' नामक तीर्थ भी प्रसिद्ध था. संभवतः इसी तीर्थ की प्रेरणा से बाद में निगमबोध घाट बना हुआ हो. इंद्रप्रस्थ की स्थिति दिल्ली से दो मील दक्षिण की ओर उस स्थान पर थी जहां आज हुमायूं द्वारा बनवाया 'पुराना किला' खड़ा है.

राजा ढिल्लू की कहानी
नाम की इस परंपरा में आग बढ़ें तो दिल्ली के वर्तमान नाम के स्वरूप का अगला और जरूरी जिक्र 800 ईस्वी पूर्व मे मिलता है. इस फैक्ट की मानें तो दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के "दिल्हीका"(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है. राजा ढिल्लू को लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं. स्पष्ट तो नही है, लेकिन सम्भव है कि जाट जाति के ढिल्लों गोत्र से संबंधित इस राजा ने अरावली की गोद में और यमुना के चौड़े फाट वाले सपाट मैदानी क्षेत्र में मध्यकाल का पहला शहर बसाया था. यह तब दक्षिण-पश्चिम सीमा के पास स्थित था, जो वर्तमान में महरौली के पास है. यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था. इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है, जो योगिनी (एक प्राचीन देवी) के शासन काल में था.

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इसके पीछे एक मत और है, अरावली की पहाड़ी के इस सूखी घाटी नुमा क्षेत्र में मिट्टी के बड़े-बड़े टीले थे. इन टीलों को भी ढिल्लि (दीमक की बॉबी को भी ढिल्ली कहा जाता है) कहते हैं. इनके ही कारण इस जगह की पहचान ढिल्ली के तौर पर हुई. फिर तो तोमर, चौहान, तुगलक, खिलजी, लोदी, मुगल और आखिरी में अंग्रेजों के आने तक ये ढिल्ली, ढिल्लिका, ढेलिका, ढेली से होते-होते दिल्ली में बदल गई. अंग्रेज इसे अपनी लैंग्वेज के एक्सेंट में देलही बोलते थे, आज भी इंग्लिश में यह Delhi कहलाता है, जिसका उच्चारण इसके प्राचीन नाम से सबसे अधिक मिलता है. 

अनंगपाल तोमर की दिल्ली
आगे चलकर 12वीं शताब्दी में राजा अनंगपाल तोमर ने अपना तोमर राजवंश लालकोट से चलाया, जिसे बाद में अजमेर के चौहान राजा ने जीतकर इसका नाम किला राय पिथौरा रखा था. 
चंदरबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो में तोमर वंश राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया जाता है. ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और लौह-स्तंभ दिल्ली लाया था.

हर शाह और सम्राट ने दिए नए नाम
दिल्ली में तोमर वंश का शासनकाल 900-1200 ईस्वी तक माना जाता है. इसके अलावा 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग भी सबसे पहले उदयपुर में मिले शिलालेखों पर देखा गया है. इतिहासकार इनका समय 1170 ईस्वी तक बताते हैं. यह भी संभव है कि, 1316 ईस्वी तक यह एरिया हरियाणा का ही एक एक्सटेंडेड एरिया रहा हो. 1206 ईस्वी के बाद दिल्ली सल्तनत शाही की राजधानी बनी जिसमें खिलज़ी वंश, तुग़लक़ वंश, सैयद वंश और लोदी वंश समेत कुछ अन्य वंशों ने शासन किया.

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सात बार उजड़ी दिल्ली और मिले 16 नाम
दिल्ली एक ऐसा शहर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह सात बार बसी, सात बार उजड़ी और फिर हर बार बसी. हर बार दिल्ली को उसके बनाने वालों एक नया आयाम ही दिया और हर राज-शासन और शाही मौजूदगी में दिल्ली का परचम बुलंद ही रहा. सात बार उजड़ने वाले इस शहर को बसाने वालों ने अपने-अपने समय पर 16 नए नाम भी दिए. खास बात यह है कि जब-जब दिल्ली का मुख्‍यालय बदला, तब-तब दिल्ली का नाम भी बदला और मुख्‍यालय के नाम से ही इस शहर को संबोधित किया जाने लगा.

दिल्ली को किसने क्या कहा?
जैसे, हिन्दू शासकों के राज में पांडवों ने इसे इंद्रप्रस्थ कहा तो राजा अनंगपाल ने यहां अनंगपुर बसाया. राय पिथौरा ने मेहरौली में बसावट की और से महरौली के नाम से जाना गया. गुलाम वंश में इसे किला राय पिथौरा ही कहा गया. यह राय पिथौरा का ही क्षेत्र रहा था, हालांकि बाद में सुल्तान खैकाबाद (जिसे किकैबाद भी कहते हैं) किलेखोरी नाम से अपनी राजधानी बनाई. खिलजी ने इसे सीरी नाम दिया तो आगे चलकर यह इलाका गयासुद्दीन तुगलक के काल में तुगलकाबाद बन गया.

खिज्राबाद और दीनपनाह भी रहे हैं पुराने नाम
फिरोज़ शाह तुगलक ने इसे फिरोज़ाबाद का नाम दिया तो खिज़्र खान जब आया तो उसने अपनी राजधानी का नाम बदलकर खिज़्राबाद रख लिया, लेकिन सल्तनत और राजधानियों का दस्तूर रहा है कि उनके नाम हमेशा सुल्तानों और शाहों की मर्जी पर ही चले हैं, लिहाजा मुबारक शाह जब तख्त पर बैठा तो इसने इसे कोटला मुबारकपुर का नाम दिया. मुगलों की शुरुआत हुमायूं ने की और इसी के साथ दिल्ली को मिला नया नाम जिसे 'दीनपनाह' कहा गया. 

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शाहजहां ने बसाया था शाहजहानाबाद
शेर शाह सूरी ने इस पर कब्जा कर इसे शेरगढ़ का नाम दिया तो आगे चलकर, सलीम शाह सूरी ने इसे 'सलीमगढ़' में बदल दिया. शाहजहां ने दिल्ली को बहुत प्यार किया. उसने लालकिला बनवाने के साथ ही नए शहर शाहजहानाबाद की नींव रखी. आज का चांदनी चौक, पुराना मीना बाजार इसी शाहजहानाबाद के किस्से कहने के लिए जिंदा हैं. 

अंग्रेजों ने फिर से दिया वहीं पुराना नाम... दिल्ली
मुगलिया सल्तनत का सूर्य डूबा तो भारत में ब्रिटिश शासन का सितारा बुलंद हुआ. कई गवर्नर जनरल ने दिल्ली से शासन किया. हालांकि इससे पहले राजधानी कोलकाता में भी रही थी, लेकिन अंग्रेज इसे दिल्ली ले आए और शाहजहानाबाद के कश्मीरी गेट में राजधानी बनाई. तब पहली दफा इसे 'कश्‍मीरी गेट सिविल लाइंस' के नाम से भी जाना गया, फिर यह आगे चलकर एक शहर के रूप में विकसित हुआ. पुरानी दिल्ली से हटकर एक नई दिल्ली बनाई और बसाई गई और फिर यह 'नई दिल्ली' ही इसका नाम और पहचान बन गया. आजादी के बाद से भारत सरकार एवं दिल्ली सरकार इसे 'नई दिल्ली' ही कहते आ रहे हैं, जो उसी राजा ढिल्लू का नाम से मिलता-जुलता लगता है. 

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक दिल्ली के विस्तार पर विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि, 'जो भी मौजूदा यमुनापार है वह सन 1914 तक मेरठ जिले का हिस्सा था. दिल्ली के देश की नई राजधानी बनने के बाद मेरठ जिले के 65 गांवों का 22 मई, 1914 को दिल्ली में विलय कर दिया. इन गांवों में शकरपुर, खिचड़ीपुर, चौहान बांगर, मंडावली, शाहदरा, ताहिरपुर, झिलमिल, जाफराबाद वगैरह शामिल थे. इन्हीं पर आगे चलकर मयूर विहार, आई.पी.एक्सटेंशन की सैकड़ों ग्रुप हाउसिंग सोसायटीज और तमाम ‘विहार’ आदि आबाद हुए हैं. यमुनापार के इन गांवों का अधिग्रहण देश की नई राजधानी के भावी विस्तार योजना के लिए किया गया था. ये तो स्पष्ट है कि सौ से कुछ अधिक साल पहले तक आज की ईस्ट दिल्ली तो मेरठ में थी. 

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यहीं से दिल्ली नाम के पीछे एक और तर्क जेहन में आता है जो 'दहलीज' शब्द से निकला है. दिल्ली सिर्फ अरावली की गोद में बसा ऊबड़-खाबड़ मैदान नहीं रह गया, बल्कि यह गांगेय क्षेत्र (गंगा के बनाए मैदानी प्रदेश) की ओर बढ़ने का प्रवेश द्वार भी बन गया. यह दहलीज, देहली कहलाया, जिसका अर्थ है द्वार की रेखा. अब दिल्ली कहो, देलही कहो या Delhi, आज नई दिल्ली राजनीति, उद्योग, शिक्षा और तकनीक के साथ संस्कृतियों का भी केंद्र है.

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