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'गैरजरूरी' सहायता रोककर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा अमेरिका, क्यों मदद ने बना रखा है मुखिया?

डोनाल्ड ट्रंप फिलहाल खर्चों में कटौती के मूड में हैं और इसका जिम्मा मिला हुआ है एलन मस्क को. दोनों का मानना है कि अमेरिकी करदाताओं के पैसे विदेशियों पर क्यों खर्च हों! इसी तर्क के साथ फंडिंग रोकी जा रही है. लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है. अमेरिका दुनिया का मुखिया भी तभी तक है, जब तक वो मदद करता दिखे, फिर चाहे वो आर्थिक हो, या सैन्य.

मौजूदा अमेरिकी सरकार खर्च कम करने पर जोर दे रही है. (Photo- AP) मौजूदा अमेरिकी सरकार खर्च कम करने पर जोर दे रही है. (Photo- AP)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 19 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:45 PM IST

डोनाल्ड ट्रंप ने गैरजरूरी अमेरिकी खर्च रोकने का जिम्मा एलन मस्क को दे दिया. इसके बाद से एक के बाद एक कटौतियां हो रही हैं. इसी जद में यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) भी आ गई. एजेंसी जिन भी देशों में आर्थिक मदद दे रही थी, उनपर रोक लगने लगी. इनमें भारत भी शामिल है. वैसे यूएस दुनिया के तमाम देशों को कभी लोकतंत्र की रक्षा और कभी मानवीय जरूरतों के हवाले से बड़ी फंडिंग करता रहा. 

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विदेशी फंडिंग से नाराज हुई अमेरिकी आबादी

कुछ सालों पहले अमेरिकी जनता में एक खास बात पर नाराजगी दिखने लगी. लोगों का कहना था कि उनकी सरकार दूसरे देशों की मदद, और खासकर सैन्य मदद में अच्छे-खासे पैसे लगाती है, जो कि असल में टैक्स देने वालों के पैसे हैं. जहां भी अमेरिकी आर्मी सालों से तैनात है, उन्हें वापस बुलाने की मांग होने लगी. अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी भी असल में इसी गुस्से का नतीजा था.

अब वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप आ चुके हैं. पूरी जिंदगी बिजनेस कर चुके ट्रंप खोज-खोजकर सारी फिजूलखर्ची रोक रहे हैं, और इस काम को संभाला हुआ है एलन मस्क ने. 

मस्क के निशाने पर सबसे पहले यूएसएड आई. ये संस्था दुनियाभर में मानवीय जरूरतों या लोकतंत्र के नाम पर भारी पैसे खर्चती है. यहां तक कि इसके जरिए भारत को भी चुनाव में वोटर्स का प्रतिशत बढ़ाने के लिए लगभग दो करोड़ डॉलर मिलते रहे. इस फंड को रोकने पर ट्रंप का तर्क है कि भारत अमीर देश है, जिसके पास टैक्स से काफी पैसे आते हैं. ऐसे में उसे इस तरह की फंडिंग की जरूरत नहीं. ट्रंप का नजरिया ये भी है कि अमेरिकी करदाताओं के पैसे विदेशियों पर क्यों लगाए जाएं! वे इस रकम को अपने ही लोगों पर खर्च करना चाहते हैं.

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क्या फायदे होते रहे फॉरेन एड से

हालांकि फॉरेन एड का मतलब केवल दूसरों के घर में उजाला करना नहीं, बल्कि ये एक किस्म की सॉफ्ट पावर भी रही. मिसाल के तौर पर यूएसएड को ही लें तो 50 से ज्यादा देशों में एजेंसी स्थानीय संगठनों से जुड़ी हुई थी, और फंडिंग के साथ-साथ लोकल पैठ भी बना चुकी थी. इससे यूएस को अपनी बात रखने का मौका मिलता रहा. 

सारे अमीर देश करते हैं सहायता

अमेरिकी नेता आरोप लगाते हैं कि बाकी लोग अपने हिस्से का काम नहीं कर रहे. सारी जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गई है. ये सच है कि सुपर पावर होने की वजह से ह्यूमेनिटेरियन कामों के लिए सबसे ज्यादा फंड यही देश करता है लेकिन यही बात है, जो उसे महाशक्ति बनाए हुए है. ये इंटरनेशनल कमिटमेंट है कि अमीर देश सालाना अपनी आय का 0.7 फीसदी गरीब देशों के लिए खर्च करें. अमेरिका के अलावा नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क और लग्जमबर्ग जैसे देश भी मानवीय मदद पर काफी पैसे लगाते रहे. अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स की मानें तो यह फंड वॉशिंगटन की तुलना में प्रतिशत में ज्यादा ही रहा. 

कहां जाती है मदद

एक भ्रम ये भी रहा कि फॉरेन एड अक्सर गलत हाथों में जाता है और कहां खर्च होता है, इसका हिसाब नहीं मिलता. ब्रुकिंग्स.एजुकेशन की रिपोर्ट 'वॉट एर्वी अमेरिकन शुड नो अबाउट फॉरेन एड' के मुताबिक ये आम धारणा है, जिसपर अमेरिकी जनता असंतोष जताती रही. हालांकि अमेरिका जो इकनॉमिक सहायता देता है, उसका छोटा हिस्सा ही किसी देश की सरकार के पास जाता है. साल 2018 के डेटा की मानें तो यूएस की सहायता का 21 फीसदी विदेशी सरकारों को,  20 फीसदी एनजीओज को,  34 प्रतिशत मल्टीलैटरल संस्थाओं को, जबकि 25 फीसदी अलग-अलग जगहों पर गया. 

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आमतौर पर यूएस उन देशों को ऐसी मदद देता है, जहां लोकतंत्र कुछ कमजोर हो. ऐसे में असिस्टेंस सरकार की बजाए निजी चैनलों के जरिए जाता है. आमतौर पर ये एनजीओ को फंड करते हैं, जो जमीन पर काम करते हों.  

पैसे कैसे खर्च हुए, ये पता लगाना मुश्किल 

फर्ज कीजिए कि अमेरिका ने भारत के सुदूर गांव में बच्चियों की पढ़ाई के लिए पैसे दिए. ये पैसे शहर में काम करने वाले किसी नॉन-प्रॉफिट को मिलते हैं, जो गांव तक पहुंचेगी. अमेरिकी मदद को गलत बताने वाले लोग ये तर्क देते कि पैसे जिस कॉज में लगे हैं, वो कैसे पक्का हो. लेकिन इसका तोड़ भी निकाला गया. फंड करने वाली संस्था उस देश में अपने लोग तैनात करेगी, जो तयशुदा समय के बाद जांच सके कि काम कहां तक पहुंचा. 

फॉरेन एड देने से अमेरिका को क्या फायदा

ये सवाल भी उठता रहा. ट्रंप भी यही तर्क देते हुए कई जगहों पर कटौती की बात कर रहे हैं. लेकिन यही मददद अमेरिका के लिए सॉफ्ट पावर का काम करती है. मदद पा रहे देशों की सरकार अमेरिकी नीतियों के लिए ज्यादा उदार होगी और दोनों के बीच डिप्लोमेटिक संबंध भी सुधरेंगे. इसका सीधा असर व्यापार पर दिखेगा. 

मदद के पीछे एक वजह और रही

कहा जाता है कि पड़ोसी के घर में आग लगी हो और आप सोते रहें तो आग जल्द ही आपको भी निगल लेगी. यही बात अस्थिरता के साथ भी है. अगर आसपास के देशों में आर्थिक उथलपुथल रहे तो अमेरिका भी इसके असर से नहीं बच सकेगा. जैसे वेनेजुएला में गरीबी या सीरिया में राजनैतिक-धार्मिक भूचाल की वजह से लोग भागकर अमेरिका आने लगे. ये वॉशिंगटन की अपनी इकनॉमी को खराब कर सकता है. तो इसे रोकने का एक तरीका ये भी है कि ऐसे देशों की आर्थिक मदद की जाए .या वहां लोकतंत्र स्थापित करने में सैन्य मदद भी दी जाए. यूएस वही करता रहा.

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