
क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल 6.3 करोड़ लोगों को सिर्फ इसलिए गरीबी से जूझना पड़ता है क्योंकि उन्हें अपने स्वास्थ्य का खर्चा खुद उठाना पड़ता है. पर ऐसा क्यों होता है? जवाब है सरकार की अनदेखी. जिस देश में एक सांसद के स्वास्थ्य पर सरकार सालभर में 51 हजार रुपये से ज्यादा खर्च कर देती है, उसी देश के आम नागरिक के स्वास्थ्य पर खर्च 18 सौ रुपये के करीब ही है. सरकार की अपनी रिपोर्ट में ये आंकड़े दर्ज हैं.
स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी 'नेशनल हेल्थ अकाउंट्स' की रिपोर्ट में 2018-19 में स्वास्थ्य पर हुए खर्च की जानकारी दी गई है. इसमें बताया गया है कि 2018-19 में केंद्र और राज्यों की सरकारों ने स्वास्थ्य पर कितना खर्च किया और लोगों ने अपनी जेब से कितने?
इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में स्वास्थ्य पर 5.96 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए थे. इनमें से 2.42 लाख करोड़ रुपये केंद्र और राज्य सरकारों ने खर्च किए. बाकी का खर्च लोगों ने खुद उठाया या फिर निजी संस्थाओं ने किया.
रिपोर्ट के मुताबिक सरकारों ने 2018-19 में एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालभर में 1 हजार 815 रुपये खर्च किए. अगर एक व्यक्ति पर हुए खर्च का एक दिन का औसत निकाला जाए, तो ये 5 रुपये से भी कम होता है.
वहीं, एक आरटीआई के जवाब में राज्यसभा सचिवालय ने बताया था कि 2018-19 में राज्यसभा सांसदों के स्वास्थ्य पर 1.26 करोड़ रुपये खर्च किए गए. राज्यसभा में 245 सांसद हैं. इस हिसाब से हर सांसद के स्वास्थ्य पर औसतन 51 हजार से ज्यादा रुपये खर्च हुए.
इसे और थोड़ा आसान करें तो ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आपके स्वास्थ्य पर सरकार 1 रुपये खर्च कर रही है, तो एक सांसद के स्वास्थ्य पर उसकी तुलना में 29 रुपये खर्च हो रहे हैं.
नेशनल हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने 2018-19 में नेशनल हेल्थ मिशन पर 30 हजार 578 करोड़ रुपये खर्च किए थे. डिफेंस मेडिकल सर्विस पर 12 हजार 852 करोड़ और रेलवे हेल्थ सर्विसेस पर 4 हजार 606 करोड़ रुपये खर्च हुए थे.
इसके अलावा हेल्थ इंश्योरेंस की योजनाओं पर 12 हजार 680 करोड़, स्वास्थ्य योजनाओं पर 4 हजार 60 करोड़ और पूर्व कर्मचारियों के लिए स्वास्थ्य योजनाओं पर 3 हजार 226 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे.
स्वास्थ्य खर्च के इन आंकड़ों की 2013-14 से तुलना करें तो सामने आता है कि पांच साल में स्वास्थ्य पर होने वाला कुल खर्चा करीब 32% बढ़ गया है. वहीं, सरकारी खर्च भी लगभग दोगुना हो गया है. 2013-14 में सरकारों ने एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालभर में 1 हजार 42 रुपये खर्च किए थे.
हालांकि, स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1.28% ही सरकारी खर्च हुआ. ये खर्च 2017-18 की तुलना में कम हुआ है. 2017-18 में जीडीपी का 1.35% खर्च हुआ था.
स्वास्थ्य पर जीडीपी के खर्च के मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भूटान अपनी जीडीपी का 2.65% जबकि श्रीलंका 2% खर्च करता है.
नेशनल हेल्थ अकाउंट्स 2014-15 में कहा गया था कि सरकार को स्वास्थ्य पर जीडीपी का कम से कम 5% खर्च करना चाहिए. वहीं, इकोनॉमिक सर्वे में सिफारिश की गई थी कि स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 से 3% खर्च होना चाहिए, ताकि लोगों का खर्च कम किया जा सके.
भारत ने 2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5% खर्च करने का टारगेट सेट किया है. इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक, 2021-22 में केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.1% खर्च किया था.
अपनी जेब से कितना खर्च कर रहे लोग?
नेशनल हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में स्वास्थ्य पर कुल जितना खर्च हुआ था, उसमें से 48% से ज्यादा खर्च लोगों ने अपनी जेब से किया था. इसे आउट ऑफ पॉकेट खर्च कहते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आउट ऑफ पॉकेट खर्च का औसत 18.2% था.
हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में लोगों ने अपनी जेब से स्वास्थ्य पर 2.87 लाख करोड़ रुपये खर्च किए थे. इस हिसाब से एक व्यक्ति ने अपनी हेल्थ पर करीब 2000 रुपये खर्च किए.
2020-21 के आर्थिक सर्वे में कहा गया था कि अगर सरकार स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 से 3% तक खर्च करती है, तो इससे व्यक्तिगत स्वास्थ्य खर्च घटकर 35% के स्तर पर आ सकता है.
स्वास्थ्य पर लोगों की जेब से होने वाला खर्च जितना कम होता है, उतना अच्छा माना जाता है. वो इसलिए क्योंकि इससे समझा जाता है कि लोगों तक सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंच रही हैं.
आउट ऑफ पॉकेट खर्च में 189 देशों की लिस्ट में भारत की रैंकिंग 66वें नंबर की है. पाकिस्तान (55), बांग्लादेश (52), नेपाल (63), भूटान (37) भी हमसे आगे है.
स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ना कितना जरूरी?
भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यहां 80 करोड़ से ज्यादा लोग गरीब हैं. जबकि, स्वास्थ्य खर्च बढ़ता जा रहा है.
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2021 के मुताबिक, अगर गांव में कोई व्यक्ति सरकारी अस्पताल में भर्ती होता है, तो उसका औसतन खर्च 4,290 रुपये होता है. वहीं, गांव में निजी अस्पताल में भर्ती होने पर उसे 22,992 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. इसी तरह शहर में सरकारी अस्पताल में भर्ती होने पर 4,837 और निजी अस्पताल में 38,822 रुपये का खर्चा आता है.
जबकि, देश में हर आदमी की सालाना औसत कमाई 1.50 लाख रुपये के आसपास है. अगर ये व्यक्ति तबीयत बिगड़ने पर निजी अस्पताल में भर्ती हो जाता है तो उसकी दो से तीन महीने की कमाई सिर्फ बिल भरने में ही खर्च हो जाती है.
अपनी जेब से खर्च करने की वजह से गरीबी भी बढ़ती है. नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2015 में कहा गया था कि स्वास्थ्य पर अपनी जेब से खर्च करने की वजह से हर साल 6.3 करोड़ लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है.
इतना ही नहीं, बीमारी से तंग आकर लोग आत्महत्या करने को भी मजबूर हो जाते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में आत्महत्या करने की दूसरी बड़ी वजह बीमारी ही थी. पिछले साल 30,446 लोगों ने बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी.