
किसान फिर सड़कों पर हैं. केंद्र सरकार से चार राउंड की बातचीत के बाद भी कोई हल नहीं निकल सका है. किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं. लेकिन फिलहाल सरकार इस मांग को मानने के मूड में नहीं दिख रही है.
रविवार को किसान नेताओं के साथ चौथे दौर की बैठक में केंद्र सरकार ने एमएसपी पर नया प्रस्ताव दिया था. सरकार का प्रस्ताव था कि पांच साल तक दाल, मक्का और कपास को एमएसपी पर खरीदा जाएगा. लेकिन किसानों ने इसे नामंजूर कर दिया.
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कहा कि सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है, उसका नाप-तोल किया जाए तो इसमें कुछ भी नहीं है.
बहरहाल, किसानों ने 21 फरवरी से फिर दिल्ली कूच करने का ऐलान कर दिया है. किसान संगठनों का कहना है कि एमएसपी पर कानूनी गारंटी से कम कुछ मंजूर नहीं है. एमएसपी के अलावा किसानों की और भी मांग हैं.
कितने किसानों को मिलता है MSP का फायदा?
अभी सरकार जिन 23 फसलों के लिए एमएसपी तय करती है, उनमें 7 अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ), 5 दाल (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), 7 तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, तिल, सूरजमुखी, नाइजर बीज या काला तिल और कुसुम) और 4 कमर्शियल फसलें (गन्ना, कपास, खोपरा और जूट) शामिल हैं.
सरकार हर साल इन फसलों के लिए एमएसपी तय करती है. केंद्र सरकार की एजेंसी कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइसेस (CACP) एमएसपी की सिफारिश करती है. इसके बाद सरकार एमएसपी तय करती है.
इनमें से गन्ने की खरीद शुगर मिलें करती हैं. बाकी की फसलें केंद्र सरकार की एजेंसियां खरीदती हैं और फिर उन्हें राशन या दूसरी योजनाओं के तहत बांटा जाता है.
साल 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी के मुताबिक, देश के महज 6 फीसदी किसानों की फसल ही एमएसपी पर खरीदी जाती है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, खरीफ सीजन 2022-23 में एमएसपी पर धान की खरीद के लिए 1.74 लाख करोड़ रुपये खर्च किए थे. इससे लगभग सवा करोड़ किसानों का फायदा हुआ था. वहीं, रबी सीजन 2022-23 में गेहूं खरीदने के लिए 55,679 करोड़ रुपये खर्च किया था. सरकार ने ये रकम 21.28 लाख किसानों को दी थी. एमएसपी पर सबसे ज्यादा फसलें पंजाब और हरियाणा के किसान बेचते हैं.
इतना ही नहीं, सरकार के आंकड़े बताते हैं कि सभी फसलों को एमएसपी पर खरीद के लिए 2022-23 में 2.38 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए थे.
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MSP है तो लीगल गारंटी क्यों मांग रहे किसान?
1960 के दशक में जब देश में अनाज का भारी संकट पैदा हो गया था, तब एमएसपी की व्यवस्था लागू की गई थी. धान पर पहली एमएसपी 1964-65 में दी गई थी. तब एक क्विंटल धान पर 39 रुपये तक की एमएसपी तय की गई थी. 1966-67 से गेहूं पर एमएसपी दी जा रही है.
एमएसपी पर किसानों की मांग इसलिए भी जायज है, क्योंकि ये एक नीति है, कानून नहीं. और सरकार जब चाहे इसे बंद कर सकती है या रोक सकती है.
चिंता की दूसरी बात ये है कि ज्यादातर किसानों की फसल की खरीद एमएसपी पर होती ही नहीं है. किसानों को अपनी फसल एमएसपी से कम कीमत पर बेचनी पड़ती है. ऐसे में किसानों के पास किसी अदालत में जाकर अपना हक मांगने का अधिकार भी नहीं है.
इतना ही नहीं, अभी सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी तय करती है. लेकिन मुख्य रूप से सिर्फ गेहूं और धान (चावल) की खरीद ही होती है. अगर एमएसपी पर कानून बन जाता है तो सरकार सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदने के लिए बाध्य हो जाएगी.
कानून बनने का दूसरा बड़ा असर ये होगा कि अभी जो कॉर्पोरेट घराने कम कीमत पर किसानों से फसलें खरीद लेते हैं, कानून बनने के बाद उन्हें भी ये एमएसपी पर ही खरीदना होगा.
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश भी लागू नहीं
करीब 60 साल से एमएसपी पर फसलों की खरीद की जा रही है. लेकिन अब तक इसे कानूनी शक्ल नहीं दी गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसा हो सकता है?
2004 के आम चुनाव के बाद जब केंद्र में यूपीए की सरकार बनी तो नवंबर में एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में एक कमेटी बनी. कमेटी ने दिसंबर 2004 से अक्टूबर 2006 के बीच 6 रिपोर्टें सौंपी. इसमें एमएसपी को लेकर भी सिफारिश की गई थी.
स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उनकी लागत का 50% यानी डेढ़ गुना ज्यादा देने की सिफारिश की थी. रिपोर्ट आए 18 साल का वक्त गुजर गया है, लेकिन एमएसपी पर सिफारिशों को अब तक लागू नहीं किया गया है. जबकि, किसानों के आंदोलन की बड़ी वजह एमएसपी ही है.
दो साल पहले जब किसान आंदोलन चला था, तब सरकार ने एमएसपी पर एक कमेटी बनाने का वादा किया था. लेकिन किसान संगठनों का दावा है कि सरकार ने उनसे एमएसपी पर कानून लाने का वादा किया था, लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं सका.
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...तो क्या कानून बन सकता है?
पिछले साल दिसंबर में कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने एमएसपी की लीगल गारंटी को लेकर लोकसभा में सवाल पूछा था. इस सवाल के जवाब में कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने बताया था कि एक कमेटी का गठन किया गया है, जो एमएसपी को और बेहतर और पारदर्शी बनाने पर सिफारिश देगी.
सरकार की ओर से एमएसपी पर कानून बनाने को लेकर कुछ साफ-साफ नहीं कहा गया है. जानकार मानते हैं कि एमएसपी को कानून के दायरे में लाने में ज्यादा दिक्कत नहीं है. मगर, ऐसा होता है तो इससे सरकार की परेशानियां जरूर बढ़ जाएंगी.
इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि अगर एमएसपी को कानूनी दायरे में लाया जाता है, तो सरकार को सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदना ही होगा. भले ही उस अनाज की मांग हो या न हो.
सीएसीपी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर अशोक गुलाटी का कहना है कि फसलों की कीमतें डिमांड और सप्लाई पर निर्भर करती हैं. अगर किसी फसल की पैदावार 100 हुई है, लेकिन मांग 70 की है तो फिर क्या होगा? ऐसी स्थिति में बाकी फसल किसान के पास ही रहेगी.
प्रोफेसर गुलाटी का ये भी कहना है कि एमएसपी पर मुख्य रूप से गेहूं और धान की खरीद होती है, वो भी 5-6 राज्यों में. इसलिए एमएसपी को लीगल नहीं किया जाना चाहिए. उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है तो कारोबारी भी बाजार से दूर रहेंगे और आखिरकार इससे किसानों को ही नुकसान होगा.
साथ ही साथ ये भी
एमएसपी को लीगल न करने के पक्ष में दलील दी जाती है कि इससे अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ेगा. चूंकि अभी सरकार सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन कानून बनने के बाद सभी फसलें खरीदनी पड़ेंगी.
अगर ऐसा होता है तो इससे सरकारी खजाने पर बड़ा असर पड़ेगा. क्रिसिल का अनुमान है कि अगर 23 में से 16 फसलों को एमएसपी पर सरकार खरीदती है तो 13 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च बढ़ेगा.
इन 16 में से 8 फसलें- गेहूं, मक्का, ज्वार, तुअर, ग्राम, सोयाबीन, कपास और जूट की कीमत मंडी में एमएसपी से कहीं ज्यादा होती है. जबकि बाकी 8 फसलों- धान, बाजरा, रागी, उड़द, मूंग, मूंगफली, सरसों और सूरजमुखी की कीमत एमएसपी से कम होती है.
सरकार अभी एमएसपी पर खरीद के लिए सालाना लाखों करोड़ रुपये खर्च करती है. आंकड़ों के मुताबिक, 2022-23 में सरकार ने एमएसपी पर फसल खरीदने के लिए 2.28 लाख करोड़ रुपये का खर्च हुआ था.