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क्या सिर्फ रूस को रोकने के लिए ताकत जुटा रहा है NATO, कितना खतरनाक हो सकता है स्वीडन का इसमें शामिल होना?

स्वीडन भी अब नाटो को हिस्सा बनने जा रहा है. इससे पहले तुर्की की नामंजूरी के चलते बार-बार ये देश नाटो की मेंबरशिप पाने से रह जाता था. इसी अप्रैल में फिनलैंड से भी तुर्की ने अपना अड़ंगा हटा लिया. क्या है नाटो, क्यों विकसित देश भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं, और कैसे तुर्की अक्सर इसपर वीटो लगाता रहा? समझिए सबकुछ.

नाटो में लगातार नए देश जुड़ रहे हैं, जिसे रूस की कमजोरी की तरह देखा जा रहा है. सांकेतिक फोटो (Unsplash) नाटो में लगातार नए देश जुड़ रहे हैं, जिसे रूस की कमजोरी की तरह देखा जा रहा है. सांकेतिक फोटो (Unsplash)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 13 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 2:54 PM IST

लगभग डेढ़ साल पहले रूस और यूक्रेन में लड़ाई छिड़ने के बाद स्वीडन ने नाटो यानी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन में शामिल होना होने की ख्वाहिश जताई थी, लेकिन तुर्की ने उसकी अर्जी को खारिज करवा दिया. उसके राष्ट्रपति तैयब एर्दोआन लगातार अड़े हुए थे कि वे इस देश को गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने देंगे. बाद में एकदम से उनका रवैया बदला और स्वीडन के रास्ते खुल गए. 

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क्या है नाटो और क्या मकसद रहा?

ये एक मिलिट्री गठबंधन है. पचास के शुरुआती दशक में पश्चिमी देशों ने मिलकर इसे बनाया था. तब इसका इरादा ये था कि वे विदेशी, खासकर रूसी हमले की स्थिति में एक-दूसरे की सैन्य मदद करेंगे. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा इसके फाउंडर सदस्थ थे. ये देश मजबूत तो थे, लेकिन तब सोवियत संघ (अब रूस )से घबराते थे. सोवियत संघ के टूटने के बाद उसका हिस्सा रह चुके कई देश नाटो से जुड़ गए. रूस के पास इसकी तोड़ की तरह वारसॉ पैक्ट है, जिसमें रूस समेत कई ऐसे देश हैं, जो पश्चिम पर उतना भरोसा नहीं करते. 

कैसे मिलती है नाटो की सदस्यता?

इसके लिए जरूरी है कि देश में लोकतंत्र हो. चुनावों के जरिए लीडर बनते हो. आर्थिक तौर पर मजबूत होना भी जरूरी है. लेकिन सबसे जरूरी है कि देश की सेना भी मजबूत हो ताकि किसी हमले की स्थिति में वो भी साथ दे सके. मेंबर बनने के लिए देश खुद तो दिलचस्पी दिखाता है, साथ ही पुराने सदस्य उसे न्यौता भी दे सकते हैं. इसके बाद ही मंजूरी मिलती है. 

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हाल में तुर्की ने स्वीडन को लेकर अपना वीटो हटा दिया. सांकेतिक फोटो (AP)

तुर्की क्यों रहा स्वीडन के खिलाफ?

इसकी कई वजहों को मिलाकर एक ही कारण बनता है, वो ये कि स्वीडिश सरकार इस्लामोफोबिक है और तुर्की को परेशान करने का मौका खोजती रहती है. तुर्की में साल 2015 में तख्तापलट की कोशिश कर चुके कई लोगों को स्वीडन में शरण मिली थी. अब ये देश अपने उन लोगों को वापस चाहता है, ताकि सजा दे सके. स्वीडन में कुरान जलाने की भी घटना हो चुकी है. यही वजह है कि तुर्की राष्ट्रपति एर्दोआन पिछले साल से अब तक स्वीडन को नाटो से दूर रखे हुए थे. 

हमेशा से सख्त रहे तुर्की ने अचानक स्वीडन के लिए उदार रुख अपनाते हुए अपना वीटो हटा दिया. अब स्वीडन भी आधिकारिक तौर पर नाटो का हिस्सा होगा. इससे स्वीडन को तो मिलिट्री एलायंस मिला ही, नाटो की भी ताकत बढ़ रही है. अब उसके पास सारे ताकतवर देश होंगे, जो रूस के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं. 

रूस को नाटो के बढ़ने से क्या खतरा है?

बीते कुछ दशकों में नाटो में 5 बार सदस्य देश जुड़े. इनमें से कई देश ऐसे हैं, जिनकी सीमाएं रूस से सटी हुई हैं, जैसे एस्टॉनिया, लातीविया और लिथुएनिया. रूस ने तब भी इसका विरोध किया था, हालांकि वो कुछ कर नहीं सका. अब स्वीडन भी नाटो मेंबर होने जा रहा है. दोनों ही देश काफी बड़ी सीमा रूस से साझा करते हैं. इस पर रूस ने चेतावनी दी कि अगर नाटो के बाकी सदस्य इन देशों में अपने हथियार या सेना तैनात करते हैं तो वो भी चुप नहीं बैठेगा. 

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यूक्रेन की तबाही के बीच पश्चिमी देश एक बार फिर रूस के खिलाफ जमा हो रहे हैं. सांकेतिक फोटो (Unsplash)

क्या नया सैन्य गठबंधन हो सकता है?

माना जा रहा है कि नाटो का रुतबा बढ़ने के साथ ही रूस भी अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान दे सकता है. चीन फिलहाल उसके पाले में दिख ही रहा है. कई दूसरे कम्युनिस्ट देश, जो अमेरिका के खिलाफ रहे, वे मिलकर एक नई संधि भी बना सकते हैं, जो वारसॉ पैक्ट से भी एक कदम आगे होगी. हालांकि फिलहाल ऐसी बात रूस या उसके किसी साथी देश ने नहीं कही. 

भारत क्यों नहीं इसका सदस्य?

चूंकि भारत आर्थिक और सैन्य तौर पर काफी मजबूत है इसलिए उसे कई बार इसकी सदस्यता का ऑफर मिल चुका, लेकिन वो हर बार इसे टाल देता है. नाटो फिलहाल दुनिया का सबसे मजबूत सैन्य अलायंस माना जाता है. इसमें शामिल होना भारत के लिए फायदे और नुकसान दोनों ला सकता है. सीधा-सीधा फायदा ये है कि उसकी सीमाएं और ज्यादा सेफ रहेंगी. वहीं इस मेंबरशिप के अपने खतरे भी हैं. 

नाटो में अमेरिका और ब्रिटेन का अब भी दबदबा है, जबकि भारत काफी बड़ी अर्थव्यवस्था और न्यूट्रल ताकत के तौर पर उभर रहा है. ऐसे में नाटो से जुड़ना उसकी इमेज पर असर डाल सकता है. दूसरा, रूस से भी हमारे ठीक संबंध है और कई चीजों का आयात-निर्यात होता है. इसमें भी रुकावट आ जाएगी. इसके अलावा सबसे अहम वजह ये है कि हमारी अपनी विदेश नीति है. नाटो से जुड़ने पर विदेश नीति में कई बदलाव लाने होंगे, जो मौजूदा समय में भारत नहीं चाहता.

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