
हर देश की अपनी इंटेलिजेंस एजेंसी होती है. इसमें अमेरिका के सीआईए, भारत के रॉ, और इजरायल के मोसाद का लोहा हर कोई मानता रहा. इनके जासूस विदेशी खुफिया जानकारी ही नहीं जुटाते, खतरनाक से खतरनाक मुहिम को भी अंजाम देते आए हैं. इसके बाद भी सबसे ट्रेंड जासूसों की आंख के नीचे भी कई हादसे होते रहे. इसपर काबू के लिए दुनिया के सबसे ताकतवर देशों ने मिलकर एक गुट बना लिया. फाइव-आईज-अलायंस नाम से ये समूह पांच सबसे ताकतवर देशों के बेहतरीन जासूसों का क्लब है.
कौन से देश हैं शामिल
फाइव-आईज-अलायंस में अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड हैं. इन सबके बीच करार है कि अगर उनके क्षेत्र में कोई भी संदिग्ध गतिविधि हो, जिससे इन सबमें से किसी भी देश को खतरा हो, तो वे जानकारी शेयर करेंगे. इसमें पांच देशों की 20 खुफिया एजेंसियां काम कर रही हैं. इनके बीच जो जानकारियां शेयर होती हैं, वो क्लासिफाइड सीक्रेट AUS/CAN/NZ/UK/US आईज ऑनली कहलाती हैं. .
कब और क्यों बना अलायंस
दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद रूस की खुफिया जानकारियों का भेद लेने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर एक क्लब बनाया. बाद में कनाडा और फिर न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया भी इसका हिस्सा बन गए. ये सब इकनॉमी और सैन्य ताकत में भी बाकी देशों से बढ़-चढ़कर थे.
कैसे काम करता है ये नेटवर्क
इसकी पुख्ता जानकारी तो नहीं, लेकिन साल 2020 में कनाडा के एक इंटेलिजेंस ऑफिसर ने कनाडाई सरकार के मिलिट्री जर्नल के लिए लिखते हुए बताया कि हर देश के एरिया बंटे हुए हैं.
- अमेरिका के हिस्से रूस, उत्तरी चीन, लैटिन अमेरिका और एशिया का बड़ा हिस्सा हैं. यहां होने वाली हर संदिग्ध एक्टिविटी की जानकारी अमेरिकी जासूसों को रहनी चाहिए.
- ऑस्ट्रेलिया को दक्षिणी चीन और इसके पड़ोसियों जैसे इंडोनेशिया पर ध्यान देना है.
- ब्रिटेन का काम पूरा का पूरा अफ्रीका और वे देश हैं, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे.
- न्यूजीलैंड पश्चिमी प्रशांत को देखता है, जिसमें छोटे-बड़े बहुत से देश हैं.
- कनाडा का काम रूस के पोलर हिस्सों पर नजर रखना है, जो बाकियों की नजर से बच जाते हैं.
बाद में कई दूसरे देश भी इससे जुड़े
पांच देशों के नेटवर्क के बाद इसमें कई और देश भी जुड़ते चले गए. इसमें नाइन-आईज भी है, जिसमें इन पांच देशों के साथ-साथ फ्रांस, डेनमार्क, नॉर्वे और नीदरलैंड भी शामिल हैं. इसके बाद 14-आईज भी है, यानी वे 14 देश जो जासूसी में आपसी मदद करते हैं. इसमें 9 देशों के साथ जर्मनी, बेल्जियम, इटली, स्पेन और स्वीडन आ जाते हैं. हालांकि फाइव-आईज-अलायंस सबसे क्लोजली काम करता है.
भारत के मामले में क्लब का एक सदस्य घिरा था
कुछ महीनों पहले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने खालिस्तानी लीडर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को लेकर भारत पर आरोप लगाया था. कनाडाई सरकार को ये जानकारी फाइव-आईज क्लब के मेंबर अमेरिका से मिली थी. अमेरिका का काम कई दूसरे इलाकों के साथ-साथ एशियाई देशों पर नजर रखना और अपने साथियों से सीक्रेट शेयर करना है. भारत ने इस आरोप पर जमकर गुस्सा जताया था. कनाडा से लेकर अमेरिकी सरकार भी इसपर कोई सबूत तक नहीं दे सकी.
क्यों होता रहा विवाद
खुफिया एजेंसियां न केवल सीमाओं और संदिग्ध लोगों पर नजर रखती हैं, बल्कि हम-आप जैसे आम लोग भी इसकी जद में रहते हैं. ये हमारे सारे डिजिटल फुटप्रिंट्स- ईमेल, फोन कॉल, सोशल मीडिया गतिविधि यहां तक कि ऑनलाइन शॉपिंग, और हम क्या पढ़ते हैं, यह तक जानती हैं. इसपर अक्सर तर्क दिया जाता है कि अगर आप गलत नहीं तो आपको छिपाने का डर भी नहीं रहेगा. हालांकि मानवाधिकार विशेषज्ञ फाइव-आइज समेत सारी खुफिया एजेंसियों पर इसे लेकर नाराज होते आए कि वे आम लोगों पर भी ट्रैक रखती हैं.
क्या है ड्यूटी-टू-वॉर्न पॉलिसी
ये कोई करार नहीं, लेकिन एक नैतिक जिम्मेदारी है. इसके तहत अगर किसी भी देश को दूसरे पर हमले की जानकारी मिले, तो उसका काम इस जानकारी को साझा करना है. अमेरिका और रूस भले ही एक-दूसरे को पसंद नहीं करते, लेकिन रूस में किसी संदिग्ध एक्टिविटी का शक होते ही अमेरिका ने ये बात कही.
7 मार्च को यूएस सरकार ने कहा था कि मॉस्को की यूएस एबेंसी को ऐसी जानकारी मिली कि चरमपंथी समूह राजधानी में बड़ी गेदरिंग्स पर हमला कर सकते हैं. उसने नागरिकों को सचेत रहने और भीड़ का हिस्सा न बनने को भी कहा था. यूएस एबेंसी ने अपने नागरिकों को भी सचेत किया था, लेकिन ये चेतावनी 48 घंटों के लिए ही थी. अब अमेरिका कह रहा है कि रूस अगर तभी पड़ताल करता तो ये नौबत नहीं आती.