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चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में तेज हुआ गोरखालैंड का मुद्दा, क्यों अलग होना चाहता है दार्जिलिंग?

लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा के मेनीफेस्टो से एक चीज गायब है- गोरखालैंड का मसला. नेपाली बोलने वाले गोरखा समुदाय की समस्या हल करने के वादे के साथ ही पार्टी ने साल 2009 से दार्जिलिंग में अपनी लोकप्रियता बनाए रखी थी. जानिए, क्या है गोरखालैंड का मुद्दा, जो आजादी के समय से चला आ रहा है. क्यों पश्चिम बंगाल में बसे नेपालीभाषियों को चाहिए अलग राज्य?

गोरखालैंड मसला एक सदी पुराना है. (Photo- Getty Images) गोरखालैंड मसला एक सदी पुराना है. (Photo- Getty Images)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 30 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 12:00 PM IST

चुनावी घोषणापत्र जारी करने के साथ ही भाजपा दार्जिलिंग में घिर गई. कई गैर-राजनैतिक गुट भाजपाई घोषणापत्र का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उसमें से गोरखालैंड का जिक्र गायब है. दार्जिलिंग में इसे लेकर छुटपुट प्रदर्शन भी हो चुके. यहां तक कि क्षेत्रीय संगठन मांग कर रहे हैं कि घोषणापत्र में संशोधन करते हुए गोरखालैंड का मुद्दा उठाया जाए, इसके बाद ही वे भाजपा को वापस सहयोग दे पाएंगे. 

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राजनीति में क्या चल रहा फिलहाल

साल 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने कहा था कि अगर पार्टी सत्ता में आई तो वो आदिवासियों और गोरखाओं की लंबे समय से अटकी मांगों की जांच करेगी और उनपर विचार भी करेगी. पार्टी के प्रत्याशी को तब उन स्थानीय पार्टियों का खुलकर सपोर्ट मिला, जो गोरखाओं के लिए राज्य की मांग कर रही थीं. भाजपा नेता जसवंत सिंह दार्जिलिंग सीट से भारी मतों से जीते. इस तरह से दार्जिलिंग पर भाजपाई पैठ हो गई. लेकिन अब ये मुद्दा घोषणापत्र में नहीं है. 

एनालिस्ट इसके कई मायने निकाल रहे हैं. गोरखालैंड मसले के गायब होने के पीछे एक कारण ये भी हो सकता है कि पार्टी पूरे पश्चिम बंगाल में पैठ की सोच रही है. ऐसे में गोरखालैंड के लिए दार्जिलिंग को अलग करने या उसपर विचार भी करने जैसी बात लार्जर स्केल पर नुकसान कर सकती है. हालांकि मार्च में सिलीगुड़ी में हुई एक बैठक में पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी पार्टी गोरखाओं की चिंताओं के हल के करीब पहुंच चुकी. 

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अंग्रेजों से समय से चली आ रही मांग 

दार्जिलिंग के पहाड़ी इलाकों में गोरखालैंड की डिमांड एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है. साल 1905 में ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक सुविधा के नाम पर बंगाल का पहली बार बंटवारा किया. तब ही गोरखाओं के लिए अलग स्टेट की चर्चा भी होने लगी थी, हालांकि ऐसा हुआ नहीं. दो साल बाद स्थानीय संगठनों ने अलग स्टेट की सीधी डिमांड की. वे भाषा और तौर-तरीकों के आधार पर बंटवारा चाहते थे, लेकिन गोरखालैंड नाम तब भी नहीं लिया गया था. 

ये विकल्प दिए गए

आजादी के बाद ऑल इंडिया गोरखा लीग (AIGL) ने तत्कालीन पीएम जवाहरलाल नेहरू को इस बारे में ज्ञापन दिया.

अगर अलग स्टेट न मिले तो लीग ने अलग यूनियन टैरिटरी का भी प्रस्ताव रखा था.

एक और विकल्प भी था कि दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी को असम के साथ जोड़ दिया जाए क्योंकि यहां भी नेपाली बोलने वाले गोरखाओं की आबादी अच्छी-खासी थी. 

एक ऑप्शन ये था कि दार्जिलिंग को खास जिला बना दिया जाए जिसके पास राज्य में रहते हुए भी स्वायत्ता हो. धारा 244 ए के तहत ये संभव है. 

कितने नेपालीभाषी बसे हुए

हमारे सहयोगी लल्लनटॉप ने एक रिपोर्ट में नेपाली स्टडीज के प्रोफेसर माइकल जेम्स हट के हवाले से लिखा है कि साल 1951 के सेंसस में माना गया कि दार्जिलिंग में लगभग 20 प्रतिशत ही नेपाली भाषी रहते हैं. हालांकि ये संख्या नेपाली बोलने वाली असल आबादी से काफी थी. प्रोफेसर हट के मुताबिक दार्जिलिंग में तब 66 प्रतिशत नेपाली बोलने वाले रहते थे. गलत आंकड़ों की वजह से सरकार ने नेपाली भाषा को भारत की राष्ट्रीय भाषाओं शामिल नहीं किया.

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साठ के दशक में पश्चिम बंगाल सरकार ने नेपाली को एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी. वहीं केंद्र ने इसे साल 1992 में आधिकारिक दर्जा दिया. लेकिन मुद्दा केवल भाषा का नहीं, इसलिए गोरखालैंड की मांग जोर पकड़ती रही. 

क्यों चाहते हैं अलग राज्य या यूनियन टैरिटरी

पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में बसे नेपाली-भारतीय गोरखा अपनी कल्चरल पहचान के लिए अलग होना चाहते हैं. स्थानीय संगठनों का आरोप है कि उनकी भाषा और चेहरे-मोहरे की वजह से उन्हें स्थानीय राजनीति से लेकर काम-धंधे में भी बंगाली भाषियों से पीछे रखा जाता है. 

दोहरे बर्ताव का एक सबूत पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के उस फैसले को माना जाता है, जब साल 2017 में उन्होंने सभी स्कूलों में बांग्लाभाषा अनिवार्य कर दी. नेपाली का इसमें कहीं जिक्र तक नहीं था. इसके बाद से गोरखालैंड का आंदोलन उग्र हो गया, जिसमें जान-माल का काफी नुकसान हुआ. दरअसल दार्जिलिंग अपनी कुदरती सुंदरता और चाय बागानों से भी काफी मुनाफा देता है, लेकिन प्रोटेस्ट होने पर पर्यटन और टी गार्डन्स दोनों पर ही असर पड़ता है. 

गोरखालैंड आंदोलन पर फैसला क्यों रखता है मायने

ये देश की स्थिरता के लिए तो जरूरी है, नेपाल से भी इसका संबंध है. भारतीय नेपाली भले ही यहां के नागरिक हैं, लेकिन उनका मूल नेपाल से है. ऐसे में भारत की सरकार उनसे कैसा व्यवहार करती है, इसका असर नेपाल से उसके रिश्तों पर दिखेगा. बता दें कि नेपाल के तराई इलाकों में मधेसी रहते हैं, जिनका संबंध भारत से है. एक बड़ी वजह और है. दार्जिलिंग वाला इलाका देश के लिए सामरिक तौर पर भी अहम है. ये चिकन्स नेक के पास है, जो बाकी देश को नॉर्थईस्ट से जोड़ता है. ऐसे में थोड़ा भी गलत फैसला गंभीर नतीजे दे सकता है. एक डर ये भी है कि अगर अलगाव के पक्ष में फैसला लिया जाए तो देश में इसी तर्ज पर कई अलगाववादी आंदोलन खड़े हो सकते हैं.

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