
हरियाणा में इस साल लोकसभा के बाद विधानसभा चुनाव भी होने हैं. और जिस तरह के घटनाक्रम हाल ही में हुए हैं, उससे पता चलता है कि हरियाणा के लोकसभा और विधानसभा चुनावों को कुछ हद तक जाट प्रभावित कर सकते हैं. फिलहाल हरियाणा में जाट बीजेपी से कुछ उखड़े-उखड़े नजर आ रहे हैं.
हरियाणा में किसानों का मतलब जाट हैं. किसानों का विरोध प्रदर्शन और उस पर केंद्र सरकार ने जैसी प्रतिक्रिया दी, उसने किसानों का मुंह खट्टा कर दिया. इस कारण हरियाणा में किसान बीजेपी और जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) से नाराज हैं.
चुनौतियों का अंबार!
बीजेपी और जेजेपी दोनों ही पार्टियों के नेताओं को अब किसानों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी के नेता जब गांवों में प्रचार के लिए पहुंच रहे हैं, तो उन पर किसान हमला कर रहे हैं.
सोनीपत में दहिया खाप में आने वाले 24 गांवों ने पार्टी का बहिष्कार कर दिया. सिरसा में भी इसी तरह का बहिष्कार हुआ. फतेहाबाद में बीजेपी उम्मीदवार डॉ. अशोक तंवर की रैलियों में प्रदर्शनकारियों ने काले झंडे दिखाए. 5 अप्रैल को पूर्व डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला को जाटों के गढ़ हिसार के नारा गांव में आने से रोक दिया गया था.
आरक्षण भी एक पेचीदा मुद्दा है. बीजेपी और जेजेपी के गठबंधन में टूट, पिछड़े वर्ग के वोटर्स पर निर्भरता और जाटों की अनदेखी के आरोपों के चलते जाट समुदाय और भगवा पार्टी के बीच दूरियां बढ़ रही हैं. खासकर ग्रामीण हरियाणा में. इससे निपटने के लिए बीजेपी स्थानीय जाट नेताओं से जुड़ने की कोशिश कर रही है.
चंडीगढ़ स्थित राजनीतिक विश्लेषक गुरमीत सिंह कहते हैं कि बीते 10 साल में जाट समुदाय उस सत्ता से वंचित था, जो गैर-जाट राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती थी. उनका मानना है कि जाटों की नजर लोकसभा से ज्यादा विधानसभा चुनाव पर हो सकती है.
जेजेपी का अलग होना भी बीजेपी के लिए एक बड़ी बाधा है, क्योंकि अब इस पार्टी के पास जाट वोटरों को प्रभावित करने वाले प्रमुख साझेदार की कमी है. हरियाणा कांग्रेस के प्रवक्ता केवल ढींगरा कहते हैं कि राज्य में 10 साल सत्ता में रहने के बावजूद बीजेपी जाट समुदाय के बीच असंतोष को दूर करने में नाकाम रही है. उन्होंने आरोप लगाया कि बीजेपी अपने खुद के जाट नेताओं को संतुष्ट करने में भी विफल रही है.
लोकसभा चुनाव में पूर्व बीजेपी प्रमुख ओपी धनखड़ और कैप्टन अभिमन्यु जैसे प्रमुख जाट नेताओं का नजरअंदाज किया गया. एक अन्य प्रमुख नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह भी हाल ही में बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए.
जाटों का प्रभाव
1966 में जब हरियाणा का गठन हुआ था, तभी से जाट नेताओं की यहां की राजनीति पर दबदबा रहा है. हालांकि, राज्य की आबादी में इस समुदाय की हिस्सेदारी एक तिहाई से भी कम है. हरियाणा की आबादी में जाटों की आबादी लगभग 26 से 28 फीसदी है. फिर भी वो सबसे प्रभावशाली बने हुए हैं.
एक अनुमान के मुताबिक, 90 विधानसभा सीटों में से लगभग 36 पर जाटों की मजबूत उपस्थिति है और 10 लोकसभा सीटों में से 4 पर उनका काफी प्रभाव है. 10 में से 2 सीटों पर बीजेपी ने कांग्रेस से आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया है. इनमें हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अशोक तंवर और पूर्व कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल शामिल हैं.
सीवोटर ट्रैकर के मुताबिक, 2019 के लोकसभा चुनाव में 39.8 फीसदी जाटों ने कांग्रेस को वोट दिया था. जबकि, बीजेपी को 42.4 फीसदी वोट जाटों के मिले थे. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में जाटों का वोटिंग पैटर्न बदल गया था. जेजेपी को 12.7 फीसदी जाट वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 38.7 फीसदी वोट मिले थे. बीजेपी को 33.7 फीसदी जाटों ने वोट किया था.
बीजेपी को जाट बेल्ट में वोट हासिल करने के लिए कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. 2019 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खराब प्रदर्शन के लिए जाट वोटरों को ही जिम्मेदार माना गया था. उसके छह जाट में से पांच उम्मीदवार भी चुनाव हार गए थे.
एक दिक्कत ये भी है कि बीजेपी के पास मजबूत या प्रभावशाली जाट नेता नहीं है. बीजेपी को मुख्य रूप से गैर-जाटों का समर्थन मिलता रहा है. पिछले दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने इन गैर-जाट समुदायों को लुभाकर जाटों के प्रभाव को हाशिये पर धकेल दिया.
हालांकि, बीजेपी जाटों को नजरअंदाज करने की कोशिश नहीं कर सकती. 2014 और 2019 के चुनावों में बीजेपी अपनी जीत का श्रेय मोदी लहर को दे सकती है, लेकिन जीत के बाकी फैक्टरों में जाट वोटों का बंटवारा भी शामिल है.
जाट विरासत
अपने 58 साल के इतिहास में हरियाणा में 33 मुख्यमंत्री जाट समुदाय के रहे हैं. गैर-जाट मुख्यमंत्रियों में भगवत दयाल शर्मा और राव बीरेंद्र सिंह शामिल हैं. इनके अलावा बिश्नोई समुदाय से भजन लाल, पंजाबी मनोहर लाल खट्टर और मौजूदा सीएम नायब सिंह सैनी एक ओबीसी नेता हैं.
तीन जाट परिवारों- देवी लाल, बंसी लाल और भूपिंदर सिंह हुड्डा ने सबसे लंबे समय तक राज्य पर शासन किया है. दो बार मुख्यमंत्री रहे देवी लाल ने जनता दल की सरकार के दौरान उप प्रधानमंत्री के रूप में भी काम किया है. बंसी लाल इंदिरा गांधी की सरकार में रक्षा और रेल मंत्री भी रहे हैं. वहीं, भूपिंदर सिंह हुड्डा के पिता रणबीर सिंह हुड्डा संविधान सभा के सदस्य रह चुके हैं. भूपिंदर सिंह हुड्डा 10 साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं. इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद वो फिर से मुख्यमंत्री पद पर नजर गड़ाए हुए हैं.
एक और प्रभावशाली जाट परिवारों में छोटू राम का परिवार भी है. उनके पोते बीरेंद्र सिंह केंद्रीय मंत्री रहे हैं. वो फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं. उनकी पत्नी प्रेमलता सिंह उचाना से विधायक हैं. उनके बेटे बृजेंद्र सिंह हिसार से लोकसभा सांसद हैं, जिन्होंने हाल ही में कांग्रेस में शामिल होने के बीजेपी से इस्तीफा दे दिया है. बृजेंद्र सिंह कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे.
क्या कांग्रेस को मिलेगा फायदा?
भूपिंदर सिंह हुड्डा की अगुवाई में जब कांग्रेस की सरकार 10 साल रही थी, तब जाट वोट एकजुट हो गए थे. भले ही उनकी पार्टी में जाट नेता बंटे हुए थे. हुड्डा ने इस बार लोकसभा चुनाव की बजाय विधानसभा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखाई है.
एक और प्रभावशाली जाट नेता बीरेंद्र सिंह ने लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है. उनकी बजाय उनके बेटे और पूर्व आईएएस अफसर बृजेंद्र सिंह चुनाव लड़ सकते हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव को छोड़कर विधानसभा चुनावों में जाटों ने कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल पर ज्यादा भरोसा किया है. जाट बेल्ट में कांग्रेस के बाद आईएनएलडी का दबदबा ज्यादा है. हालांकि, आईएनएलडी इस वक्त पारिवारिक झगड़ों में उलझी है. जाट बीजेपी से भी नाराच हैं और इससे कांग्रेस को जाटों के वोट स्विंग होने की उम्मीद है.
कांग्रेस में भूपिंदर सिंह हुड्डा, रणदीप सिंह सुरजेवाला और चौधरी बीरेंद्र सिंह जैसे जाट नेताओं का दबदबा है. हालांकि, बीरेंद्र सिंह का हुड्डा विरोधी माना जाता है और उनके कांग्रेस में आने से जाटों के थोड़ा छिटकने की भी संभावना है.
हालांकि, पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती गुटबाजी से निपटना होगा, क्योंकि ये सभी नेता अलग-अलग गुटों से हैं.
कलह और गुटबाजी
जाट वोटों का बंटवारा सिर्फ कांग्रेस तक ही सीमित नहीं है. पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी आईएनएलडी में फूट पड़ गई है. पार्टी खुद को जाटों का सच्चा प्रतिनिधि बताती थी. चौटाला के दोनों बेटे अजय और अभय अलग-अलग हो गए हैं. बड़े बेटे अजय ने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) बनाई है. उनके बेटे दुष्यंत सिंह चौटाला ने 2019 में खट्टर सरकार के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. हालांकि, हाल ही में दोनों पार्टियों का गठबंधन भी टूट गया है.
लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा चुनावों में जाट वोटों के कांग्रेस, आईएनएलडी और जेजेपी में बंटने की संभावना है. इसके अलावा बीजेपी भी ग्रामीण हरियाणा में कुछ जाट बहुल सीटों में सेंधमारी करने की कोशिश करेगी.
कांग्रेस और चौटाला परिवार में आंतरिक लड़ाई बीजेपी को कुछ फायदा जरूर मिल सकता है, लेकिन क्या ये काफी होगा? ये तो वक्त ही बताएगा.