
भारत इन दिनों भीषण गर्मी की चपेट में है. मई के आखिरी सप्ताह में दिल्ली समेत कई राज्यों में पारा 50 तक पहुंच गया. इससे हीटस्ट्रोक के मरीज तेजी से बढ़े. गर्मी सिर्फ शरीर ही नहीं, ब्रेन पर भी असर डालती है. एक्सपर्ट मानते हैं कि इस दौरान उन लोगों को ज्यादा खतरा है, जो डिप्रेशन की दवाएं ले रहे हों, या पहले भी किसी मानसिक बीमारी की गिरफ्त में आ चुके हों.
क्या कहते हैं अध्ययन
पहले ये सोचा जाता रहा कि सर्दियों में ही मेंटल हेल्थ पर असर होता है लेकिन गर्मियों में आत्महत्या के बढ़े मामले कुछ और ही इशारा करते हैं. कई स्टडीज ये बात साबित कर चुकीं कि पारा बढ़ने के साथ आत्महत्याएं भी बढ़ती हैं, खासकर उन लोगों में ये टेंडेंसी बढ़ जाती है, जो गर्मी में काम करते हैं.
अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल जेएएमए साइकेट्री में फरवरी 2022 में एक रिपोर्ट छपी, जिसमें 2.2 मिलियन लोगों का मेडिकल रिकॉर्ड था. ये वे लोग थे, जो साल 2010 से 2019 के बीच अस्पतालों के इमरजेंसी विभाग पहुंचे. मेडिकल एक्सपर्ट्स ने पाया कि सबसे गर्म दिनों में इमरजेंसी विजिट, सबसे ठंडे दिनों की तुलना में 8 फीसदी बढ़ी. इसमें ऐसे मरीज भी थे, जो खुदकुशी की इच्छा रखते या इसकी कोशिश कर चुके थे. अवसाद, नशा, एंजाइटी और मेनिया के भी मरीज शामिल थे.
हर डिग्री के साथ बढ़ता है डिप्रेशन
द लैंसेट के प्लानेटरी हेल्थ में छपी रिपोर्ट दावा करती है कि तापमान में एक डिग्री की भी बढ़त से डिप्रेशन और एंजाइटी के मामले बढ़ जाते हैं. जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की स्टडी वैसे तो बांग्लादेश में हुई लेकिन इसके नतीजों को ग्लोबल तौर पर देखा गया. वैज्ञानिकों ने माना कि जैसे-जैसे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी, अवसाद के मरीज भी बढ़ते जाएंगे. इसके सबूत भी मिल चुके हैं.
साल 2018 में हुई एक स्टडी जो कि नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी, में दावा है कि अमेरिका और मैक्सिको में तापमान एक डिग्री बढ़ने पर आत्महत्याओं का प्रतिशत भी एक डिग्री बढ़ गया. दोनों ही देशों में हजारों आत्महत्याओं बाकी मौसमों की तुलना में ज्यादा हुईं.
गर्मी और मस्तिष्क का क्या लेनादेना
शरीर का तापमान कंट्रोल करने में ब्रेन का बड़ा रोल है. मस्तिष्क के नीचे की तरफ स्थित हाइपोथैलेमस ये काम करता है. उसे स्किन और शरीर के दूसरे अंगों से बढ़ते या घटते तापमान का सिग्नल मिलता है. हाइपोथैलेमस इसी के अनुसार प्रतिक्रिया देता है. अगर बॉडी टेंपरेचर गिर जाए तो हाइपोथैलेमस के चलते मांसपेशियां तेजी से फैलती-सिकुड़ती हैं. ये वो वक्त है जब हम कांपने लगते हैं. इससे तापमान काबू में आ जाता है. गर्मी के साथ भी यही बात है. इस दौरान हाइपोथैलेमस स्वेद ग्रंथियों को ज्यादा पसीना लाने का सिग्नल देता है. जैसे-जैसे पसीना सूखता है, कूलिंग बढ़ती है.
हीटस्ट्रोक कैसे होता है
गर्मी जब जरूरत से ज्यादा बढ़ जाए तो हाइपोथैलेमस टेंपरेचर कंट्रोल की कोशिश तो करता है लेकिन कामयाब नहीं हो पाता. शरीर का तापमान 104 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए तो ब्लड वेसल्स सुस्त पड़ जाते हैं. ऐसे में हार्ट खून की पंपिंग के लिए और तेजी से काम करने लगता है. फिर एक स्टेज ऐसी आती है जब वो कमजोर पड़ जाता है. यहां तक कि ब्रेन और बाकी हिस्सों तक खून की आपूर्ति धीमी पड़ जाती है. इसका असर चिड़चिड़ाहट से लेकर गंभीर लक्षणों तक दिख सकता है.
लेकिन जो हीटस्ट्रोक की सीधी चपेट में नहीं आ रहे, क्यों उनमें भी डिप्रेशन दिखता है?
इसकी एक वजह है - नींद की कमी. गर्मी बढ़ने पर एसी या कूलर के बगैर नींद आना संभव नहीं. जिन घरों में ये बंदोबस्त नहीं, वे लगातार कई दिनों तक नींद की कमी से जूझते रहते हैं. ये अवस्था उन लोगों के लिए काफी खतरनाक है, जो पहले अवसाद या फिर बाईपोलर डिसऑर्डर के मरीज रह चुके हों. नींद की कमी उनमें बीमारी को ट्रिगर करती है.
हीट सेरोटोनिन नाम से न्यूरोट्रांसमीटर पर भी असर डालती है. ये वो मूड रेगुलेटर है, जो हमारे गुस्से पर काबू करता और मन खुश रखता है. डिप्रेशन के मरीज, जो एंटी-साइकोटिक्स ले रहे हों, उनमें शरीर का तापमान वैसे ही डिस्टर्ब रहता है. ऐसे में पारा ऊपर जाना उन्हें बुरी तरह से परेशान करता है.
गर्मी का ब्रेन पर क्या असर होता है, ये समझने के लिए हमने एम्स दिल्ली में साइकेट्री विभाग के प्रोफेसर राजेश सागर से बात की.
वे कहते हैं- एक्सट्रीम गर्मी पड़ने पर ऐसे लोगों के लिए डर रहता है, जो पहले ही अवसाद या किसी भी तरह की मानसिक बीमारी झेल चुके हों. हीट स्ट्रोक का कॉग्निटिव हेल्थ से सीधा संबंध है. अवसाद या मेनिया न भी हो तो भी ज्यादा गर्मी से चिड़चिड़ाहट, एकाग्रता की कमी जैसे मामूली लक्षण दिखते हैं. अगर कोई गंभीर डीहाइड्रेशन का शिकार हो जाए तो स्थिति गंभीर हो सकती है. शरीर में इलेक्ट्रोलाइट की कमी का असर दिमाग पर होता है.
अवसाद की दवा ले रहे लोगों को मौसम से सावधान रहने की जरूरत
एक बात और है. जो पहले से ही एंटी-साइकोटिक्स ले रहे हों, यानी अवसाद की दवाएं, वे तापमान के लिए काफी संवेदनशील हो जाते हैं. इसका कारण ये है कि अवसाद की दवा से बॉडी टेंपरेचर पहले से ही डिस्टर्ब रहता है. ऐसे में गर्मी में थर्मोरेग्यूलेशन में ज्यादा मुश्किल होती है.
गर्मी में बढ़ जाता है गुस्सा और मारपीट
गर्म देशों के मौसम का अपराध से डायरेक्ट नाता है. एम्सटर्डम की व्रिजे यूनिवर्सिटी ने इसपर एक स्टडी की, जिसके नतीजे बिहेवियरल एंड ब्रेन साइंसेज में छपे. इसमें वैज्ञानिकों ने देखा कि आम लोग, जो क्रिमिनल दिमाग के नहीं होते, वो एकदम से अपराध कैसे कर बैठते हैं. इसके लिए क्लैश (CLASH) यानी क्लाइमेट, एग्रेशन और सेल्फ कंट्रोल इन ह्यूमन्स को वजह माना गया. एक्सपर्ट्स के मुताबिक, लोग जिस क्लाइमेट में रहते हैं, वो गुस्से को उकसाता या उसपर कंट्रोल करता है.