
जापान ने हाल ही में रेडियोएक्टिव पानी प्रशांत महासागर में छोड़कर सनसनी फैला दी. सारे देश उसके इस कदम का विरोध करते हुए पानी के जहरीला होने की बात कर रहे हैं. ये हल्ला-गुल्ला तब है, जब जापान दावा कर रहा है कि उसने पानी को पूरी तरह से ट्रीट किया और अब उसमें कोई भी जहर नहीं है. दूसरी तरफ एक मामला भारत का है, जिसकी गर्भवती महिलाओं को ब्रिटेन में रेडियोधर्मी रोटियां खिला दी गईं.
हाल में ब्रिटेन में कोवेंट्री से सांसद ताइवो ओवाटेमी ने इसकी जांच की मांग की. साथ ही कहा कि उन महिलाओं को खोजकर ये देखा जाए कि उनके या उनके परिवार की सेहत कैसी है.
क्या और क्यों हुआ प्रयोग?
साल 1969 में ब्रिटेन कथित तौर पर दक्षिण एशियाई आबादी की हेल्थ पर प्रयोग कर रहा था. इसी प्रयोग के तहत उसने ब्रिटेन आई 21 भारतीय महिलाओं को चुना. ये वे औरतें थीं जो गर्भवती थीं और एनीमिया यानी खून की कमी जैसे लक्षण झेल रही थीं. इन महिलाओं के घर पर रेडियोधर्मी रोटियां भेजी गईं, जो कथित तौर पर इलाज का हिस्सा था. कोवेंट्री में हुए इस प्रयोग के बाद महिलाओं को ऑक्सफोर्डशायर में एटॉमिक एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ले जाया गया. यहां उनके शरीर में रेडिएशन के स्तर की जांच हुई, ताकि ये देखा जा सके कि उनका शरीर कितना आयरन पचा सका है.
कम पढ़ी-लिखी महिलाओं पर हुआ प्रयोग
मेडिकल रिसर्च सेंटर (MRC) ने इस प्रयोग को फंड किया था, जिसे कार्डिफ यूनिवर्सिटी ने आगे बढ़ाया. रेडियोएक्टिव तत्वों की भयावहता जानने के बावजूद गर्भवती महिलाओं पर प्रयोग हुआ. ये ऐसी प्रवासी महिलाएं थीं, जो उसी समय पंजाब और गुजरात से ब्रिटेन पहुंची थीं, और कम पढ़ी लिखी थीं. ऐसे में जाहिर है कि वे नहीं जानती रही होंगी कि उनके साथ क्या हो रहा है. बाद में फॉलोअप भी नहीं हुआ कि महिलाएं जिंदा रहीं या नहीं. या फिर क्या वे रेडियोधर्मी तत्वों के सीधे संपर्क में आने के बाद कैंसर या किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो गईं. या उनकी संतानें किसी बर्थ डिफेक्ट का शिकार तो नहीं हुईं!
साल 1995 में एक चैनल ने यह मुद्दा उठाया
वो डेडली एक्सपेरिमेंट्स पर डॉक्युमेंट्री कर रहा था, जिसमें इस प्रयोग को भी शामिल किया गया. इसके बाद पहली बार MRC ने इसपर बात की. क्या और क्यों हुआ था, इसपर कोई डिटेल्ड रिपोर्ट नहीं मिलती. शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि वे महिलाओं की भलाई के लिए काम कर रहे थे और उनमें आयरन की कमी को दूर करने के लिए रेडियोधर्मी रोटियां खिलाई गई थीं, जिनमें आयरन-59 मिला हुआ था.
क्या कहा जांच कमेटी ने
डॉक्युमेंट्री आने के बाद साल 1998 में इंक्वायरी कमेटी बैठी. इसने दावा किया कि स्टडी में शामिल महिलाओं को सबकुछ अच्छी तरह से समझाया गया था. साथ ही कमेटी ने यह भी माना कि शायद बहुत समझाने के बाद भी उन्हें समझ न आया हो कि उनके शरीर पर क्या प्रयोग हो रहा है. कमेटी पर सवाल उठाते हुए सांसद ने कहा कि अगर सबकुछ पारदर्शी था तो महिलाओं की आगे जांच क्यों नहीं हुई. क्यों नहीं इसके नतीजे सार्वजनिक किए गए. यहां तक कि प्रयोग में शामिल किसी भी महिला का कुछ अतापता नहीं लगा.
क्या है आयरन-59?
यह रेडियोएक्टिव आइसोटोप है, जिससे गामा और बीटा विकिरणें निकलती हैं. इनपर काम करते हुए वैज्ञानिकों को शील्डिंग की जरूरत पड़ती है. सीधा और लंबा एक्सपोजर कैंसर की आशंका को कई गुना बढ़ा सकता है. बीटा पार्टिकल से स्किन पर असर तुरंत दिखता है. वो जलने लगती है, फफोले पड़ जाते हैं और स्किन कैंसर का डर रहता है.
रेडिएशन से हर तरह के एक्सपोजर में सूंघने की बजाए उसका सीधे शरीर में जाना ज्यादा खतरनाक माना जाता है. ये कोशिकाओं पर हमला करता है और DNA की संरचना तक बदल देता है. ऐसे में रेडियोएक्टिव रोटियां खा चुकी गर्भवती महिलाओं के साथ क्या हुआ होगा, इसका कोई अंदाजा किसी को नहीं.
हम रोजमर्रा में भी रेडिएशन के संपर्क में आते हैं
इनमें से कुछ नेचुरल हैं तो ज्यादातर इंसानों के बनाए हुए हैं. जैसे मॉडर्न घड़ियों में कई बार रोशनी के लिए हाइड्रोजन-3 या प्रोमीथियम-14 डाला जाता है. पहले इनकी जगह रेडियम- 226 डाला जाता था, ये रेडियोएक्टिव है और गलती से भी खाना खतरनाक हो सकता है. हेल्थ फिजिक्स सोसायटी के मुताबिक, पहले रेडियोएक्टिव तत्वों का ज्यादा इस्तेमाल होता था. अब ये कम हुआ है.
कितना रेडिएशन जानलेवा हो सकता है
बहुत से रेडिएशन के संपर्क में हम नेचुरली भी आते हैं. जैसे मिट्टी-पत्थर या पानी में घुले हुए रेडियोएक्टिव तत्व. आउटर स्पेस से आ रही किरणों में भी रेडिएशन होता है. हालांकि इसकी बहुत थोड़ी मात्रा ही हम सह सकते हैं.
न्यूक्लियर रेडिएशन कमीशन के अनुसार 500 रेम (रेडिएशन मापने की यूनिट) के संपर्क में आने पर लोगों की तुरंत मौत हो जाती है. जबकि रोज बहुत कम मात्रा में रेडियोएक्टिव तत्वों के संपर्क में आना कैंसर की आशंका कई गुना कर देता है. ये लेटेंट पीरियड होता है, जिसमें रेडिएशन शरीर में बदलाव ला रही होती हैं.