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भारत में शिकार पर बैन की वो कहानी जिसने इंदिरा को बना दिया बाघों का 'चीफ प्रोटेक्टर'!

दो साल बाद भारत फिर चीते खरीदने की प्लानिंग कर रहा है. हालांकि, बताया जा रहा है कि पिछली बार की तरह इस बार चीते नामीबिया से नहीं, बल्कि किसी और देश से आ सकते हैं. ऐसे में जानते हैं कि भारत में चीते कैसे विलुप्त हुए थे? और क्यों इंदिरा गांधी को वाइल्डलाइफ हीरो कहा जाता है?

बाघ के शावक के साथ इंदिरा गांधी. (फोटो क्रेडिटः X@Jairam_Ramesh) बाघ के शावक के साथ इंदिरा गांधी. (फोटो क्रेडिटः X@Jairam_Ramesh)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 26 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 7:59 PM IST

भारत में एक बार फिर चीते आने वाले हैं. लेकिन नामीबिया से नहीं, बल्कि दूसरे देशों से. माना जा रहा है कि सरकार इस बार नामीबिया की बजाय सोमालिया, केन्या, तंजानिया या सूडान से चीते मंगा सकती है. 

दो साल पहले भारत में नामीबिया से आठ चीते आए थे. इन चीतों को मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में रखा गया है. इनमें से तीन चीतों की मौत हो चुकी है. इनकी मौत की वजह मौसम और जलवायु मानी जाती है. दरअसल, भारत में जिस वक्त गर्मी पड़ती है, उस वक्त दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया में सर्दी का मौसम होता है. इन चीतों को इसी की आदत थी. इसलिए जब भारत में गर्मी पड़ रही थी, तब चीतों ने सर्दी की कोट बना ली थी. सर्दी से बचने के लिए चीते एक कोट बना लेते हैं. भारत में गर्मी पड़ने के कारण इन चीतों की कोट के नीचे घाव हो गए थे और संक्रमण की वजह से इनकी मौत हो गई.

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भारत में चीतों को विलुप्त हुए सात दशक से ज्यादा का वक्त बीत गया है. मगर एक वक्त था जब भारत में चीतों, शेरों और बाघों की आबादी खूब हुआ करती थी. अब चीते तो विलुप्त हो ही चुके, शेरों की संख्या भी 700 के आसपास ही है. बाघों की आबादी भी साढ़े तीन हजार से बस थोड़ी ज्यादा है. बाघ भी खत्म हो ही गए होते, अगर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिकार पर प्रतिबंध न लगाया होता.

माना जाता है कि जंगली जानवरों का शिकार भारत में आम तब हुआ, जब अंग्रेज भारत आए. अंग्रेजों के आने के बाद रईसों और रसूखदारों के लिए शिकार 'शाही खेल' बन गया. अंग्रेज अपने साथ बंदूक और पिस्टल भी लेकर आए, जिसने शिकार को और आसान बना दिया.

शाही परिवारों, अंग्रेजों और रईसों को चीता, शेर और बाघों का शिकार करने का बड़ा शौक था. उनके इस शौक ने इन बेजुबानों को विलुप्ति की कगार पर ला दिया.

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इतिहासकार रोनाल्ड टिल्सन और फिलीप जे नाएस अपनी किताब 'टाइगर्स ऑफ द वर्ल्ड: द साइंस, पॉलिटिक्स एंड कंजर्वेशन ऑफ पैंथेरा टाइग्रिस' में अनुमान लगाते हैं कि 1875 से 1925 के बीच भारत में 80 हजार से ज्यादा बाघों का शिकार किया गया था.

आखिरी तीन चीतों का शिकार

एक समय था जब भारत में चीतों की अच्छी-खासी आबादी रहती थी. लेकिन राजा-महाराजाओं ने इनका शिकार करना शुरू कर दिया. इसके अलावा चीतों की खाल का कारोबार करने के लिए भी इनका शिकार किया जाने लगा. इतना ही नहीं, ब्रिटिश इंडिया के दौर में चीते गांव में घुस आते थे, जिस कारण लोग इन्हें मार देते थे. इन सब वजहों से भारत में इनकी आबादी घटती रही. 

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में पहली बार चीतों को पालने का चलन भारत में ही शुरू हुआ था. 16वीं सदी में मुगल शासक जहांगीर ने चीतों को पालना और उन्हें कैद में रखना शुरू किया. अकबर के समय भी 10 हजार से ज्यादा चीते पले हुए थे. इनमें से करीब 1 हजार चीते उनके दरबार में थे.

20वीं सदी में खेल के लिए भी जानवरों का आयात होना शुरू हो गया. एक रिसर्च के मुताबिक, 1799 से 1968 के बीच कम से कम 230 चीते भारत के जंगलों में थे. 

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भारत में आखिरी बार 1948 में चीता देखा गया था. 1948 में सरगुजा के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने तीन चीतों का शिकार किया था. यही भारत के आखिरी चीते थे. 1952 में भारत ने चीतों के खत्म होने की घोषणा कर दी.

(फोटो क्रेडिटः X@Jairam_Ramesh)

भारत में शिकार के लिए आते थे विदेशी

आजादी के बाद भी 25 साल तक भारत में शिकार पर रोक नहीं थी. माना जाता है कि हर साल हजारों विदेशी सिर्फ शिकार के लिए भारत आते थे. बाकायदा ट्रैवल कंपनियां भी होती थीं, जो सिर्फ शिकार के लिए पैकेज देती थीं.

जनवरी 1961 में ब्रिटेन की क्वीन एलिजाबेथ भारत आई थीं. तब वो जयपुर राजघराने की मेहमान बनी थीं. उस समय उन्होंने और उनके पति प्रिंस फिलिप ने रणथंभौर में एक बाघ का शिकार किया था. बताया जाता है कि बाघ के शिकार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी खासे नाराज हुए थे. उनके इस दौरे का ब्रिटेन में भी विरोध हुआ था और बाघ के शिकार के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए थे.

चीते तो पहले ही विलुप्त हो चुके थे और शिकार के कारण शेर और बाघ की आबादी भी घटने लगी थी. ये वो वक्त था, जब दुनिया में बाघ का अस्तित्व खतरे में था. मगर उस समय भी दुनिया के 70% बाघ भारत में ही थे.

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और फिर इंदिरा गांधी ने बनाया कानून

बाघ का शिकार करना अमीरों का शौक था तो गरीब और तस्करों के लिए कारोबार. अमीर अपने शौक के लिए बाघ का शिकार करते थे. जबकि, तस्कर उसकी खाल, नाखून और दांत बाजारों में बेचते थे. इस कारण बाघों की आबादी तेजी से कम होने लगी.

1970 में जब बाघों की गिनती की गई तो पता चला कि देश में 1800 बाघ ही बचे हैं. जबकि, 20वीं सदी की शुरुआत में इनकी आबादी 40 हजार से ज्यादा था. 

उसी वक्त राजस्थान के रणथंभौर में एक बाघिन ने दो बाघों को जन्म दिया. लेकिन कुछ ही दिन बाद बाघिन की मौत हो गई. बताया जाता है कि तब भारतीय वन सेवा के अफसर कैलाश सांखला उन दो शावकों को टोकरी में रखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास ले गए थे. बाघिन की मौत के बारे में जानकर इंदिरा गांधी काफी दुखी हुईं.

(फोटो क्रेडिटः X@Jairam_Ramesh)

कैलाश सांखला ने इंदिरा गांधी से कहा कि बाघों को बचाने की जरूरत है. इसके बाद 1972 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट लागू किया गया. इस कानून ने जंगली जानवरों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगा दी. इंदिरा गांधी के इस फैसले का विरोध भी हुआ था.

इस कानून के लागू होने के सालभर बाद इंदिरा गांधी ने 'प्रोजेक्ट टाइगर' शुरू किया. इसका मकसद बाघों को बचाना था. कैलाश सांखला को इस प्रोजेक्ट का डायरेक्टर बनाया गया. इतना ही नहीं, बाघों को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए इसे 'राष्ट्रीय पशु' भी घोषित किया गया. इससे पहले तक भारत का राष्ट्रीय पशु शेर था.

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प्रोजेक्ट टाइगर के तहत उस समय नौ नेशनल पार्क को स्पेशल प्रोटेक्शन में रखा गया. इसका नतीजा ये हुआ कि 1984 तक बाघों की संख्या दोगुनी हो गई. 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या की गई, तब नेशनल जियोग्राफिक मैग्जीन ने लिखा कि 'बाघों ने अपना चीफ प्रोटेक्टर खो दिया'.

शिकार करने पर क्या है सजा?

1972 से ही भारत में शिकार पर कानूनी रोक है. सिर्फ शिकार ही नहीं, बल्कि जानवरों को मारकर उनकी खाल, नाखून या दांत का सौदा करना भी गैरकानूनी है. इस कानून में बाघों के अलावा और भी कई जंगली जानवर और पक्षी शामिल हैं.

वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत, जंगली जानवर का शिकार करने या उनकी हत्या करने पर 3 से 7 साल की जेल की सजा का प्रावधान है. इसके साथ ही 25 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया जाता है.

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