
जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद फिर चुनी हुई सरकार आ गई है. विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन ने 48 सीटें जीत ली हैं. 90 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 46 है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला ने साफ कर दिया है कि उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनेंगे.
उमर अब्दुल्ला पहले भी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. तब भी उनका कांग्रेस के साथ ही गठबंधन था. हालांकि, अब स्थिति वैसी नहीं है, जैसी पहले थी. जनवरी 2009 से जनवरी 2015 तक जब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे, तब जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य था, उसका अपना संविधान था, वहां केंद्र की कम और राज्य सरकार की ज्यादा चलती थी.
मगर, अब जब उमर अब्दुल्ला फिर मुख्यमंत्री बनेंगे, तब जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है, अब चुनी हुई सरकार से ज्यादा केंद्र का दखल होगा. सरकार बिना उपराज्यपाल की मंजूरी और अनुमति के बगैर बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी.
खैर, अब जम्मू-कश्मीर में फिर नई सरकार आने वाली है. छह साल से भी लंबे वक्त से वहां की अपनी सरकार नहीं थी. ऐसे में जानते हैं कि अब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा कितनी अलग होगी?
कैसा केंद्र शासित प्रदेश है जम्मू-कश्मीर?
2019 में संसद में जम्मू-कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन एक्ट पास किया गया. इसके जरिए राज्य को दो हिस्सों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटकर दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा है, जबकि लद्दाख में विधानसभा नहीं है.
संविधान का अनुच्छेद 239 कहता है कि हर केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन राष्ट्रपति के पास होगा. इसके लिए राष्ट्रपति हर केंद्र शासित प्रदेश में एक प्रशासक की नियुक्ति करेंगे. अंडमान-निकोबार, दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल होते हैं. जबकि दमन दीव और दादरा नगर हवेली, लक्षद्वीप, चंडीगढ़ और लद्दाख में प्रशासक होते हैं.
2019 का जम्मू-कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन एक्ट कहता है कि पुडुचेरी में लागू संविधान का अनुच्छेद 239A ही जम्मू-कश्मीर में भी लागू होगा. दिल्ली, विधानसभा वाला एकमात्र केंद्र शासित प्रदेश है, जहां 239AA लागू है. दिल्ली में पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था को छोड़कर बाकी सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार दिल्ली सरकार को है.
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जम्मू-कश्मीर विधानसभा की शक्तियां क्या होंगी?
1947 में जब जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल हुआ था, तो उसे रक्षा, विदेश मामले और संचार को छोड़कर बाकी सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार था. अनुच्छेद 370 रद्द होने से पहले तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा के पास कई शक्तियां थीं, जबकि वहां के मामलों के लिए संसद की शक्तियां सीमित थीं.
हालांकि, 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक संरचना पूरी तरह से बदल गई है और अब वहां सरकार से ज्यादा बड़ी भूमिका उपराज्यपाल की हो गई है.
2019 का कानून कहता है कि पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर जम्मू-कश्मीर विधानसभा बाकी सभी मामलों पर कानून बना सकती है. लेकिन एक पेच भी है. अगर राज्य सरकार राज्य सूची में शामिल किसी विषय पर कानून बनाती है तो उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे केंद्रीय कानून पर कोई असर न पड़े.
इसके अलावा, इस कानून में ये भी प्रावधान किया गया है कि कोई भी बिल या संशोधन विधानसभा में तब तक पेश नहीं किया जाएगा, जब तक राज्यपाल ने उसे मंजूरी न दे दी हो.
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उपराज्यपाल के पास क्या शक्तियां हैं?
अब जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल ही एक तरह से सबकुछ है. सरकार को भले ही पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर बाकी मामलों में कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन उसके लिए उपराज्यपाल की मंजूरी जरूरी होगी.
इतना ही नहीं, उपराज्यपाल का नौकरशाही और एंटी-करप्शन ब्यूरो पर भी नियंत्रण होगा. इसका मतलब हुआ कि उपराज्यपाल सरकारी अफसरों का ट्रांसफर और पोस्टिंग उपराज्यपाल की मंजूरी से होगा.
इसके अलावा, उपराज्यपाल के किसी भी काम की वैधता पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि उन्हें ऐसा करते वक्त अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए था या उन्होंने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया था. उनके किसी फैसले को अदालत में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उन्होंने फैसला लेते वक्त मंत्री परिषद की सलाह ली थी या नहीं ली थी.
चुनाव से पहले ही उपराज्यपाल को एडवोकेट जनरल और लॉ अफसरों की नियुक्ति करने का अधिकार भी मिल गया है.
आखिर में सबसे अहम बात ये कि पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल होता था, लेकिन अब यहां भी सरकार 5 साल ही चलेगी और फिर चुनाव होंगे.