
कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर का रेप और उसके बाद हत्या का मामला चर्चा में बना हुआ है. मुख्य आरोपी संजय रॉय को गिरफ्तार कर लिया गया है. उसे फांसी देने की मांग हो रही है. इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रेप के मामलों में फांसी की सजा देने के लिए एक नया बिल पास कर दिया है. बिल में रेप के दोषियों को फांसी की सजा देने का प्रावधान है.
रेप के दोषियों को फांसी की सजा का प्रावधान पहले से ही कानून में है. हर साल रेप के कई मामलों में दोषियों को फांसी की सजा सुनाई भी जाती है. लेकिन बीते 20 साल में रेप और मर्डर के मामले में पांच दोषियों को ही फांसी की सजा मिली है.
क्या फांसी की सजा ही विकल्प है?
दोषियों को मौत की सजा देने का विरोध भी होता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में माना है कि मौत की सजा केवल 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' मामलों ही दी जानी चाहिए. 1980 में बचन सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि उम्रकैद नियम है, जबकि सजा-ए-मौत अपवाद है.
1983 में मच्छी सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पांच ऐसी परिस्थितियां तय की थीं, जिनमें अदालतें दोषी को फांसी की सजा दे सकती थीं. ये परिस्थितियां थीं- हत्या करने का तरीका, हत्या का मकसद, अपराध की असमाजिक या घृणित प्रकृति, अपराध की भयावहता और पीड़ित का व्यक्तित्व. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अदालतों को अपने फैसले में ये भी साफ करना होगा कि क्यों दोषी को आजीवन कारावास की सजा देना नाकाफी था और मौत की सजा देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था.
मई 2009 में संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' की व्याख्या की थी. तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी दोषी को फांसी की सजा तब तक नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि आजीवन कारावास का विकल्प न बचे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मौत की सजा सुनाते समय अदालतों को दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए. पहला कि कोई मामला 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' है या नहीं और दूसरा कि आजीवन कारावास का विकल्प है या नहीं.
इसी तरह अगस्त 2019 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 2:1 से दोषी की फांसी की सजा को बरकरार रखा था. हालांकि, जस्टिस संजीव खन्ना ने इससे असहमति जताई थी और कहा था कि पिछले फैसलों में सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि फांसी की सजा तभी होनी चाहिए, जब आजीवन कारावास का विकल्प न बचे. जस्टिस खन्ना ने कहा था कि आरोपी ने बिना किसी दबाव के मजिस्ट्रेट के सामने अपना गुनाह कबूल कर लिया था, इसलिए उसे आजीवन कारावास की सजा देना सही होगी. आरोपी को एक नाबालिग का रेप कर उसकी हत्या करने और उसके नाबालिग भाई की हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी.
क्या 10 दिन में फांसी की सजा देना मुमकिन है?
महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को रोकने के लिए समय-समय पर कानून बदले गए हैं. 2012 के निर्भया कांड के बाद कानून में अहम बदलाव किया गया था. इसके बाद रेप के मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान किया गया था.
अब पश्चिम बंगाल की ममता सरकार के नए बिल में प्रावधान है कि रेप और मर्डर के मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी की जाएगी. कहा जा रहा है कि रेपिस्टों को 10 दिन के भीतर फांसी की सजा सुना दी जाएगी, लेकिन बिल में इसका जिक्र नहीं है. ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में होगी.
आंकड़े बताते हैं कि हर साल जिन मामलों में दोषियों को फांसी होती है, उनमें से ज्यादातर रेप और मर्डर के अपराधी होते हैं. दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में सेशन कोर्ट ने 120 मामलों में फांसी की सुनाई थी. इनमें से 64 यानी 53% मामले रेप और मर्डर से जुड़े थे.
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हालांकि, अगर सेशन कोर्ट से फांसी की सजा मिली है, तो उस पर हाईकोर्ट की मुहर लगनी जरूरी है. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 22(2) के तहत, सेशन कोर्ट अगर फांसी की सुनाती है, तो हाईकोर्ट में जाना जरूरी है. हाईकोर्ट की मुहर लगने के बाद ही दोषी की फांसी की सजा मुकर्रर होती है.
प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में हाईकोर्ट्स के पास फांसी की सजा से जुड़े 80 मामले गए थे. इनमें से सिर्फ एक मामले में ही हाईकोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखा था. 36 दोषियों की फांसी की सजा को कम कर दिया था जबकि, 36 दोषियों को बरी कर दिया गया था. कर्नाटक हाईकोर्ट ने हत्या के दोषी बैलूरी थिपैया की फांसी की सजा को ही बरकरार रखा था.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा के पाए 11 कैदियों के मामलों पर सुनवाई पूरी की. इसमें से 3 दोषियों की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने कम कर दिया. 5 मामलों में 6 दोषियों को बरी कर दिया. जबकि, 2 दोषियों के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से हाईकोर्ट के पास विचार करने के लिए भेज दिया.
प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर 2023 तक देशभर की जेलों में 561 कैदी ऐसे थे, जिन्हें फांसी की सजा मिली थी. ये संख्या 19 साल में सबसे ज्यादा है. इससे पहले 2004 में ऐसे कैदियों की संख्या 563 थी.
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अब तक कितने रेपिस्टों को फांसी?
पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो रेप और मर्डर के पांच दोषियों को ही फांसी हुई है. 14 अगस्त 2004 को धनंजय चटर्जी को फांसी पर चढ़ाया गया था. उसे 1990 में 14 साल की बच्ची से दुष्कर्म और उसके बाद हत्या के मामले में फांसी की सजा मिली थी.
उसके बाद 20 मार्च 2020 को निर्भया के चार दोषियों को फांसी मिली थी. 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ दुष्कर्म हुआ था. बाद में उसकी मौत हो गई. उसे निर्भया नाम दिया गया. निर्भया कांड के 6 दोषी थे, जिनमें एक नाबालिग था. नाबालिग 3 साल की सजा काटकर छूट गया. एक दोषी ने आत्महत्या कर ली. बाकी 4 दोषी मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और पवन गुप्ता ने अपनी फांसी रुकवाने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं, लेकिन टाल नहीं सके. मार्च 2020 में चारों को तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया.
सजा मिलने के बाद भी कहां अटक जाती है बात?
आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में दोषियों को फांसी की सजा सुना तो दी जाती है, लेकिन उसे अमल में नहीं लाया जाता. आमतौर पर माना जाता है कि निचली अदालतें स्थानीय भावनाओं के आधार पर फैसला लेते हुए जल्दबाजी में दोषी को फांसी की सजा सुना देती हैं. लेकिन जब मामला हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाता है, तो फैसला पलट दिया जाता है.
मई 2022 में मनोज कुमार बनाम मध्य प्रदेश सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की ओर से फांसी की सजा सुनाए जाने पर चिंता जताई थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि फांसी की सजा सुनाने से पहले ट्रायल कोर्ट को दोषी से जुड़े सारे सबूतों पर अच्छे से विचार करना चाहिए. साथ ही फांसी की सजा के मामले में सरकारों को दोषी से जुड़ी सारी जानकारी और सबूत ट्रायल कोर्ट को देना होगा, जिसमें आरोपी की उम्र, फैमिली बैकग्राउंड, पढ़ाई का स्तर, कमाई का स्तर और उसका मनोवैज्ञानिक स्तर भी शामिल है.
पिछले साल अप्रैल में ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर दूसरा पक्ष फांसी की सजा की मांग करता है, तो उसे ट्रायल कोर्ट में आरोपी के बैकग्राउंड की सारी जानकारी अदालत में देनी होगी.
हालांकि, कानूनन अगर ट्रायल कोर्ट से फांसी की सजा मिल भी जाती है, तब भी उस पर हाईकोर्ट की मुहर जरूरी है.
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा को बरकरार रखता है तो दोषी के पास सुप्रीम कोर्ट के पास जाने का विकल्प है. सुप्रीम कोर्ट से भी फांसी की सजा मिलने पर रिव्यू पिटीशन और फिर क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प होता है. सारे कानूनी रास्ते खत्म होने के बाद दोषी के पास राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दाखिल करने का विकल्प भी होता है.
अगर राष्ट्रपति भी दया याचिका खारिज कर देते हैं तो कई बार दोषी दोबारा सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. मसलन, 1993 के दिल्ली ब्लास्ट मामले में दोषी देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की दया याचिका खारिज हो गई थी, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में इस आधार पर बदल दिया क्योंकि उसकी दया याचिका खारिज होने में 8 साल का वक्त लग गया था.
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रेप के मामलों में फांसी की सजा कब?
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 65 में प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म का दोषी पाया जाता है तो उसे 20 साल की जेल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इसमें भी उम्रकैद की सजा तब तक रहेगी, जब तक दोषी जिंदा रहेगा. ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर मौत की सजा का प्रावधान भी है. इसके अलावा जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है.
गैंगरेप के मामलों में दोषी पाए जाने पर 20 साल से लेकर उम्रकैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान है. बीएनएस की धारा 70(2) के तहत, नाबालिग के साथ गैंगरेप का दोषी पाए जाने पर कम से कम उम्रकैद की सजा तो होगी ही, साथ ही मौत की सजा भी सकती है. ऐसे मामलों में जुर्माने का भी प्रावधान है.
बीएनएस की धारा 66 के तहत, अगर रेप के मामले में महिला की मौत हो जाती है या फिर वो कोमा जैसी स्थिति में पहुंच जाती है तो दोषी को कम से कम 20 साल की सजा होगी. इस सजा को बढ़ाकर आजीवन कारावास या फिर मौत की सजा में भी बदला जा सकता है.
इसके अलावा, नाबालिगों के साथ होने वाले यौन अपराध को रोकने के लिए 2012 में POCSO एक्ट लागू किया गया था. कानून में पहले मौत की सजा नहीं थी, लेकिन 2019 में इसमें संशोधन कर मौत की सजा का भी प्रावधान कर दिया. इस कानून के तहत उम्रकैद की सजा मिली है तो दोषी को जीवन भर जेल में ही बिताने होंगे. इसका मतलब हुआ कि दोषी जेल से जिंदा बाहर नहीं आ सकता.