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इस साल चुनावी खर्च पिछली लोकसभा से दोगुना, कितनी कीमत है आपके एक वोट की, कहां से आते हैं पैसे?

आजाद भारत का पहला चुनाव 68 चरणों में हुआ, और उसका खर्च था लगभग साढ़े 10 करोड़ रुपए. साल 2019 में बढ़कर ये 50 हजार करोड़ रुपए से ऊपर हो गया. इस सारे चुनावी खर्च में एक-एक वोट की कीमत अच्छी-खासी है, जो हर इलेक्शन से साथ बढ़ती जा रही है. समझिए, आपके एक वोट पर लगभग कितने रुपए खर्च हो रहे हैं.

इस बार का चुनाव पिछले इलेक्शन से दोगुना खर्च वाला है. (Photo- Getty Images) इस बार का चुनाव पिछले इलेक्शन से दोगुना खर्च वाला है. (Photo- Getty Images)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 03 मई 2024,
  • अपडेटेड 12:59 PM IST

लोकसभा चुनाव 2024 के दो चरण बीत चुके, जबकि 5 और फेज बाकी हैं. भारत की सरकार बनाने वाले ये इलेक्शन कई टुकड़ों में होते हैं ताकि व्यवस्था बनी रहे. इस दौरान चुनाव में ढेर साले कर्मी-अधिकारी लगे होते हैं. इनका काम ये देखना होता है कि चुनाव पारदर्शिता से हो, और जनता जिसे चाहती है, वही चुनकर आए. ये सारी कवायद अच्छी-खासी खर्चीली है, और इसमें बड़ा हिस्सा हमारे-आपके वोट का भी है. यहां तक कि अधिकतर चुनावकर्मियों को एक दिन की ड्यूटी का जो मेहनताना मिलता है, उससे ज्यादा कीमत का हमारा एक वोट है. 

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सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) काफी समय से चुनाव में होने वाले खर्चों को ट्रैक कर रहा है. ये कहता है कि हर इलेक्शन अपने पहले के चुनावों को खर्च के मामले में पीछे छोड़ रहा है. सीएमएस इस कैलकुलेशन में लगभग सभी डायरेक्ट और न दिखने वाले खर्चों को भी रखता है.

किन चीजों में लगता है पैसा

इनमें इलेक्शन कमीशन का खर्च, पार्टियों के अपने खर्च, लोगों की सुविधा पर खर्च, कुल मिलाकर सारी चीजें शामिल हैं, जो किसी भी देश में इलेक्शन में लगती हैं. देश में इस बार 96.8 करोड़ वोटर हैं, जो लंबी-चौड़ी दूरी पर, रिमोट इलाकों में भी रहते हैं. हर जगह पोलिंग कंडक्ट कराने में चुनावकर्मियों के आने-जाने, रहने-खाने का खर्च भी इसमें शामिल है. EVM पर काफी पैसे खर्च होते रहे. इसके अलावा मतदाता परिचय पत्र बनाने में भी पैसे खर्च होते हैं. वोटिंग में लगने वाली इंक भी खर्च का हिस्सा है.  

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एडमिनिस्ट्रेटिव कॉस्ट भी बड़ा हिस्सा है 

ईसी अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को हर रोज के हिसाब से पैसे देता है. अगर वे दूर जा रहे हों तो वहां ट्रांसपोर्ट, रुकने और खाने का खर्च भी इसमें शामिल है. ईसी ने खुद बताया कि उसके प्रिसाइडिंग अफसर को साढ़े 3 सौ रुपए मिलते हैं, जबकि पोलिंग अफसर को ढाई सौ रुपए दिए जाते हैं. इसमें खाने की रकम अलग है, जो एक टाइम के हिसाब से डेढ़ सौ या कुछ कम-ज्यादा हो सकती है.

अब क्या बड़ा खर्च हो रहा है
 

इस बारे में ठीक-ठाक कहा नहीं जा सकता. वोटरों की संख्या तो लगातार बढ़ ही रही है, साथ ही अब सोशल मीडिया भी आ चुका. एक बड़ा खर्च अनुमानित तौर पर सोशल मीडिया पर होने लगा है.  इसमें जागरुकता अभियान पर भी पैसे लगते हैं ताकि मतदाता अपना फर्ज पूरा करें, और वोट जरूर दें. यानी अगर वे वोट नहीं देते हैं तो सरकार का सारा किया-कराया बेकार है. 

कब, कितना हुआ व्यय

साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री चुने गए, लोकसभा चुनाव में 3870 करोड़ रुपए व्यय हुए थे. सीएमएस की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 में ये कॉस्ट बढ़कर 50 हजार करोड़ चली गई. अब आते हैं, इस चुनाव पर. माना जा रहा है कि ये पिछले इलेक्शन से लगभग दोगुना होगा, यानी 1 लाख करोड़ रुपए. ये चुनाव 7 चरणों में 45 दिनों तक चलेगा. 4 जून को नतीजे आएंगे. तब तक चुनावी महकमा पूरी तरह अलर्ट रहेगा. 

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क्यों बढ़ रहा है खर्च

इलेक्शन में बढ़ता व्यय ज्यादा हैरान करने वाला नहीं. पहले चुनाव में 53 पार्टियों से 18 सौ से ज्यादा कैंडिडेट थे. इनके लिए लगभग 2 लाख पोलिंग बूथ की जरूरत पड़ी. साल 2019 में सैकड़ों पार्टियों के हजारों उम्मीदवार हो गए. इनके लिए करीब साढ़े 10 लाख पोलिंग बूथ्स की जरूरत पड़ी.

चुनाव में कितना व्यय हो रहा है, ये इसपर भी निर्भर करता है कि चुनावी प्रोसेस कितनी लंबी है. कम चरणों में, जो कम दिनों के भीतर हो जाए, उस इलेक्शन में खर्च कम होता है. लेकिन भारत की लंबाई-चौड़ाई और कई दूसरी जटिलताएं देखते हुए ये उतना आसान नहीं. 

एक वोट पर कितने पैसे लगते हैं

आपके-हमारे वोट पर अलग से कुछ खर्च नहीं होता, लेकिन सारी कवायद ही इसी एक वोट के लिए है. ऐसे में कुल खर्च और वोटर्स को देखने पर मोटा-मोटा अनुमान लग जाता है. हमारे यहां इस समय 96.8 करोड़ वोटर हैं. ऐसे में कुल चुनावी खर्च को देखें तो एक वोट की कीमत हजार रुपए से कुछ ही कम होगी. यानी चुनाव अधिकारियों को एक दिन में जो पैसे मिल रहे हैं, ये भी हमारे वोट पर खर्च होने वाले पैसों से कुछ कम मान सकते हैं. वैसे शुरुआती चुनावों में एक वोट पर एक रुपए से भी कम खर्च हो रहा था. 

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कहां से आते हैं ये पैसे

मिनिस्ट्री ऑफ लॉ एंड ऑर्डर ने अक्टूबर 1979 में एक गाइडलाइन निकाली थी. ये कहती है कि लोकसभा के चुनावी व्यय का जिम्मा पूरी तरह से सेंटर पर है. इसी तरह से राज्य सभा इलेक्शन का खर्च स्टेट सरकार उठाती है. अगर दोनों चुनाव साथ हो रहे हों तो दोनों मिलकर खर्च बांटते हैं. जैसे इस बार 13 मई को 4 राज्यों में भी पोल्स होंगे. इसमें केंद्र और राज्य दोनों ही हिस्सेदारी करेंगे. 

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