
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप यात्रा की तस्वीरें डालते हुए वहां टूरिज्म को प्रमोट किया. इसपर मालदीव के कुछ मंत्रियों ने रेसिस्ट कमेंट्स कर डालीं. इसके बाद से ये द्वीप समूह ट्रेंड कर रहा है, जिसकी इकनॉमी का ज्यादातर हिस्सा भारतीय टूरिस्टों से आता है. पूरी तरह से टूरिज्म पर निर्भर इस द्वीप के पास जगह की भारी कमी है. ऐसे में वेस्ट मैनेजमेंट के लिए इसके एक द्वीप को ही डंपिंग यार्ड बना दिया गया. थिलाफुशी नाम का ये आइलैंड आर्टिफिशियल है, जिसे ट्रैश आइलैंड भी कहा जाता है.
लग्जरी होटलों से पैदा हो रहा कितना कूड़ा
मालदीव का 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा समुद्र से केवल 1 मीटर ही ऊंचा है. वहीं द्वीप देश का अकेला हिस्सा जो पानी में सबसे ऊंचा है, थिलाफुशी है. यानी कचरों का द्वीप. नब्बे के दशक में मालदीव में पर्यटन तेजी से बढ़ा. यहां भारत समेत चीन और कई देशों से सैलानी आ रहे थे. इन्हें फाइव स्टार सुविधा दी जाती. लेकिन इस दौरान जो कचरा पैदा होता था, द्वीप के सामने समस्या थी कि उसे कहां फेंका जाए. छोटे से द्वीप के एक हिस्से पर कूड़ाघर बनाते तो जगह और कम हो जाती. इसका सीधा असर वहां की इकनॉमी पर होता. तो इसका नया रास्ता खोजा गया.
क्या कहता है डेटा
- वर्ल्ड बैंक के मुताबिक मालदीव से रोज 860 मैट्रिक टन कचरा पैदा होता है.
- सी गोइंग ग्रीन एनजीओ के मुताबिक, हर पर्यटक की वजह से रोज करीब साढ़े 3 किलो कूड़ा आता है.
- इसमें ज्यादा हिस्सा प्लास्टिक का होता है, जो दबा या जला दिया जाता है.
- अकेले कचरा जलाने के कारण इस द्वीप पर 14 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन एमिशन हो रहा है.
नकली द्वीप तैयार किया
मालदीव मे लैगून को ही द्वीप बना डाला. ये समुद्र या नदी के करीब की उथली जगह थी, जो राजधानी माले से कुछ ही किलोमीटर दूर थी. चूंकि माले से ही होते हुए टूरिस्ट बाकी जगहों पर जाते हैं इसलिए सबसे ज्यादा कूड़ा भी यहीं पैदा होता है. तो इस तरह से लैगून को द्वीप बना दिया गया, जहां कचरा जमा होने लगा. लेकिन करीब 124 एकड़ में फैले इस नकली द्वीप का एक और सच भी है.
शरणार्थी कर रहे इस द्वीप पर
यहां वेस्ट मैनेजमेंट का काम बांग्लादेशी रिफ्यूजियों को दिया गया है. पूरे देश से कूड़ा इस द्वीप पर लाया जाता है. इसे या तो जमीन के भीतर दबा दिया जाता है, या फिर जला देते हैं. बहुत कम ही चीजें रीसाइकिल की जाती हैं. लंबे समय से पर्यावरणविद आरोप लगाते रहे कि यहां पर्यावरण के साथ मानवाधिकारों का भी उल्लंघन होता रहा.
कचरा संभालने वाले बांग्लादेशी नरक जैसे हालातों में रहते हैं. वेस्ट मैनेजमेंट के लिए उनके पास ग्लव्स और मास्क जैसी बेसिक चीजें भी कम ही होती हैं. ये लोग यहीं रहते भी हैं. टूरिस्ट्स की आवाजाही से या देश में इनकॉमिक बूम का इनपर कोई असर नहीं होता.
समंदर में जा रहा बहुत सा कूड़ा
माले के केवल आधे घंटे के बोट का सफर थिलाफुशी आइलैंड पहुंचा देता है. इस रास्ते में कई बार कचरा समुद्र में गिरा दिया जाता है ताकि काम कम हो सके. खुद माले के पर्यावरणविदों ने आरोप लगाया कि समुद्र में जहरीली चीजें फेंकी जा रही हैं. इसमें सामान्य बायोडिग्रेडेबल कचरे से लेकर खतरनाक किस्म का कचरा भी शामिल है, जैसे सीरिंज, खराब इलेक्ट्रॉनिक सामान और खराब दवाएं. इनका सही निपटारा जरूरी है ताकि वे धरती या जीव-जंतुओं को नुकसान न पहुंचाएं.
साल 2020 में ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी के शोध में माना गया कि इसी द्वीप पर नहीं, बल्कि पूरे के पूरे मालदीव पर माइक्रोप्लास्टिक का स्तर खतरनाक से बहुत ज्यादा है.
क्या दूसरे देशों तक जा रहा वेस्ट
मालदीव अपने कचरे से हिंद महासागर को ही गंदा नहीं कर रहा, बल्कि भारत या उन सभी देशों पर खतरा मंडरा है, जो इस द्वीप देश तक कुछ न कुछ एक्सपोर्ट करते हैं. माले स्थित एनजीओ ब्लूपीस ने दावा किया कि पहले दक्षिण भारत से सब्जियां लेकर माले पहुंचने वाली शिप्स खाली जाया करती थीं, लेकिन बाद में इनमें टूटी हुई बोलतें, मेटल और कार्डबोर्ड भरे रहने लगे. यानी शायद रास्ते में जहाज से कचरा समुद्र में फेंक दिया जाता हो.
अमीर देश कूड़ा दूसरे देशों में छोड़ते रहे
बहुत से बड़े देशों पर आरोप लगता रहा कि वे वेस्ट मैनेजमेंट पर पैसे लगाने की बजाए उसे विदेशी धरती या समुद्र के किनारे पटक आते हैं. जैसे कुछ समय पहले पोलैंड ने यूरोपियन यूनियन ऑफ जस्टिस से कहा था कि जर्मनी ने उसके देश में कई जगहों पर कूड़ा जमा कर दिया है. उसका आरोप है कि जर्मनी ने उसके यहां की नदी में भी जहरीले केमिकल छोड़ दिए.
दोनों देशों के बीच बहने वाली ओडर नदी में उस सीमा पर पॉल्यूटेंट्स डाले गए, जहां से पोलैंड का बॉर्डर सटता है. इससे हजारों टन मछलियां मर गईं.
इंटरनेशनल स्तर पर नियम भी बन चुका
ताकतवर देश अपना कचरा गरीब देशों में न छोड़ने लगें, इसके लिए एक इंटरनेशनल ट्रीटी साइन की गई, जिसे बेसल कन्वेंशन नाम मिला. साल 1989 से लेकर अब तक इसपर 188 देशों ने हामी भरी. इसमें कचरे की तस्करी रोकने के अलावा, कचरे का निपटान और कंट्रोल भी शामिल है. हालांकि इस ट्रीटी से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. माना जा रहा है कि ज्यादातर कूड़ा अफ्रीकी देशों तक भेजा जा रहा है.