
मुंबई के मलाड में रोडरेज की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. इसमें कुछ लोग एक युवक को लात-घूंसों से मार रहे हैं. परिवार उसे बचाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है, जबकि आसपास भीड़ तमाशा देख रही है. साथ ही साथ वीडियो भी बना रही है. ये पहला मामला नहीं, पिछले साल दिल्ली में भी चलती सड़क पर एक युवक ने नाबालिग लड़की की चाकू से गोदकर हत्या कर दी थी. मर्डर के बाद वो उसका सिर भी कुचलता रहा. वहीं आसपास से लोग गुजर रहे थे. लेकिन कोई रोकने नहीं आया. साइकोलॉजी में ये बाईस्टैंडर इफेक्ट है.
बाईस्टैंडर इफैक्ट कैसे काम करता है, ये समझने से पहले एक घटना को जानते चलें.
साल 1964 में अमेरिका के न्यूयॉर्क में एक लड़की थी- किटी गेनोवीज. 13 मार्च की रात किटी काम से लौटकर अपने फ्लैट का ताला खोल रही थीं, जब उनपर एक शख्स ने हमला किया. चाकू से हुए हमले के दौरान युवती चीखती रही, जिसे अपार्टमेंट में रहते लगभग 40 और लोगों ने सुना, लेकिन किसी ने भी मदद नहीं की, न ही पुलिस को फोन किया. कुछ देर बाद हमलावर मौके से चला गया लेकिन थोड़ी देर बाद फिर लौट आया. उसने किटी को फिर से चाकू मारा, उन पर और ज्यादा हमला किया, और फिर यौन शोषण भी किया. गहरी चोटों और तुरंत मदद न मिलने के चलते किटी की मौत हो गई.
अकेले लोग ज्यादा मददगार हो सकते हैं
लगभग आधे घंटे बाद जब पुलिस को पहला कॉल गया और वो पहुंची, युवती की मौत हो चुकी थी. इस घटना को मनोविज्ञान में पहली स्टडी की तरह माना जाता है, जो भीड़ के डर पर हुई. इसे बाईस्टैंडर इफैक्ट माना गया. साइकोलॉजी की ये थ्योरी कहती है कि जब कोई क्राइम या घटना पब्लिक प्लेस पर होती है, और बहुत से लोग उसे देख रहे हों तो कोई भी इसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेने से बचता है और मदद की संभावना बहुत कम हो जाती है. वहीं अकेला इंसान किसी को मुसीबत में देखे तो काफी चांसेज हैं कि वो पीड़ित की मदद करेगा.
किटी के मामले को मीडिया ने खूब उछाला. लोगों को लताड़ लगाते हुए डरे हुए लोगों की बीमारी को गेनोवीज सिंड्रोम नाम दे दिया, जो मृतका का सरनेम था. न्यूयॉर्क पुलिस खुद लोगों को क्राइम रोकने में मदद करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी. लेकिन बदला कुछ भी नहीं.
भीड़ करती रहती है दूसरों से उम्मीद
चार साल बाद मनोवैज्ञानिकों ने गेनोवीज सिंड्रोम पर पहला प्रयोग किया. इसमें कुछ लोगों को एक कमरे में बिठाकर इंतजार करने को कहा गया. थोड़ी देर बाद वहां धुआं भरने लगा. लोग खांसने लगे, लेकिन 38% के अलावा किसी ने भी शिकायत नहीं की कि कमरे में कोई दिक्कत है. सब सोचते रहे कि जब बाकी लोग चुप हैं तो बोलकर हम क्यों मजाक बनें. इसी प्रयोग के दूसरे हिस्से में लोगों को कमरे में अकेला रखते हुए धुआं छोड़ा गया. इस दौरान 75% लोगों ने धुएं की शिकायत की.
भीड़ होती है कमजोर और डरपोक
इसके बाद एक एक्सपेरिमेंट में एक महिला को खतरे में दिखाया गया. इस दौरान दिखा कि जब भी कोई घटना होती है, और भीड़ जमा हो जाए, तब हेल्प मिलने की संभावना 60 प्रतिशत तक कम हो जाती है. केवल 40 प्रतिशत लोग ही होते हैं, जो मदद ऑफर करें. भीड़ जितनी बड़ी होगी, मदद की संभावना उतनी ही घटती चली जाएगी. वहीं अगर अकेला इंसान किसी को मुसीबत में देखे तो वो अक्सर वो बहुत बहादुरी से मदद के लिए चला आता है. या सीधी मदद न भी कर पाए तो कुछ न कुछ ऐसा करता है, जिससे हमलावर रुके या डरे.
क्यों होता है ऐसा?
इसकी सबसे पहली वजह ये है कि भीड़ में कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता. भीड़ हमेशा किसी दूसरे से उम्मीद करती है कि वो हादसे या हमले पर पहला रिएक्शन दे. ऐसे में सब एक-दूसरे का मुंह ही ताकते रह जाते हैं.
दूसरी वजह ये है कि लोग खुद को ज्यादा सोशल और सभ्य दिखाना चाहते हैं. मान लो, सड़क पर कोई किसी पर हमला कर रहा हो और आप भी वहां पहुंच जाएं, तो बहुत मुमकिन है कि आप बाकी भीड़ के मुताबिक खुद भी चुपचाप तमाशा देखते रहें.
कई बार सड़क पर हो रहे हमले को लोग निजी मामला मानकर देखते रहते हैं. न्यूयॉर्क की केटी नाम की युवती के रेप और हत्या को देख चुके लोगों ने यही बयान दिया. उनका कहना था कि उन्होंने इसे प्रेमियों के बीच का मसला माना, और अपनी-अपनी खिड़कियों से देखते रहे.
फिर मॉब वायलेंस क्या है
बाईस्टैंडर इफैक्ट से बिल्कुल उलट एक और थ्योरी है, जो बताती है कि भीड़ बेहद हिंसक हो सकती है. इसे मॉब वायलेंस कहते हैं जब भीड़ किसी बात पर आक्रामक रिएक्शन देती है. जैसा मुंबई वाले मामले में दिखा, जब रोडरेज में भीड़ ने युवक को पीट-पीटकर मार डाला. मॉब वायलेंस में अलग तरह का मनोवैज्ञानिक काम करता है.
- डिइंडिविज़ुएशन यानी भीड़ में किसी को अलग से पहचाने जाने का डर या खतरा नहीं लगता. लोग नैतिकता को पीछे छोड़कर एक काम करते हैं.
- सोशल कंटेजन भी यहां लागू होता है, यानी लोगों पर एक-दूसरे की इमोशन्स बीमारी की तरह असर करती हैं. ऐसे में एक शख्स हिंसक हो तो सब हिंसा पर तुल आते हैं.