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क्या NCP और पार्टी सिंबल अजित को मिल जाएगा? जानें शरद पवार ने क्यों कही ये बात

डेढ़ महीने पहले चाचा और भतीजे में बंट चुकी एनसीपी में अब कब्जे की जंग शुरू हो गई है. अजित पवार गुट ने एनसीपी और उसके चुनाव चिह्न 'घड़ी' पर दावा ठोक दिया है. इस बीच शरद पवार का भी कहना है कि उनकी पार्टी के चुनाव चिह्न पर खतरा हो गया है. शरद पवार ने ऐसा क्यों कहा? और पार्टियों का बॉस कैसे तय होता? जानते हैं...

अजित पवार और शरद पवार में एनसीपी के कब्जे को लेकर जंग शुरू हो गई है. (फाइल फोटो) अजित पवार और शरद पवार में एनसीपी के कब्जे को लेकर जंग शुरू हो गई है. (फाइल फोटो)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 17 अगस्त 2023,
  • अपडेटेड 10:28 PM IST

चाचा और भतीजे में बंट चुकी एनसीपी पर अब कब्जे की 'असली' लड़ाई शुरू हो चुकी है. एनसीपी का नाम और चुनाव चिह्न किसका होगा? इसे लेकर अजित पवार गुट पहले ही अपना जवाब चुनाव आयोग को भेज चुका है. और अब शरद पवार गुट को 13 सितंबर से पहले अपना जवाब देना है. 

अजित पवार गुट ने चुनाव आयोग को बताया था कि पार्टी का अध्यक्ष बदल गया है और अब असली एनसीपी वहीं है. गुट का कहना था कि एनसीपी के अध्यक्ष अजित पवार हैं, जबकि प्रफुल्ल पटेल कार्यकारी अध्यक्ष बने रहेंगे.

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इस बीच शरद पवार का कहना है कि उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न अजित गुट के पास जा सकता है. उन्होंने कहा, 'मैंने चुनाव आयोग के नोटिस पर अपना जवाब भेज दिया है. शिवसेना को लेकर जो फैसला आया था, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि हमारा चुनाव चिह्न खतरे में है. लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है. क्योंकि मैंने बैलगाड़ी, गाय और बछड़ा जैसे चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा है और जीता है.'

ऐसे में अब 'असली' एनसीपी कौनसी है? इसका फैसला चुनाव आयोग करेगा. दोनों गुटों के सबूतों के आधार पर चुनाव आयोग फैसला करेगा कि एनसीपी का चुनाव चिह्न 'घड़ी' किसे मिलेगा. 

क्या हैं नियम?

- किसी राजनीतिक पार्टी पर किसका अधिकार होगा? इसका फैसला चुनाव आयोग करता है. चुनाव आयोग से ही पार्टी का चुनाव चिह्न मिलता है और वही तय करता है कि किस गुट को पार्टी माना जाए.

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- जब एक ही पार्टी में दो अलग-अलग गुट दावा करते हैं, तो चुनाव आयोग दोनों पक्षों को बुलाता है. इसमें सुनवाई करता है. देखा जाता है कि बहुमत किस गुट के पास है? पार्टी के पदाधिकारी किसके पास हैं? इसके बाद बहुमत जिस तरफ होता है, उसे पार्टी माना जाता है.

- अक्टूबर 1967 में जब एसपी सेन वर्मा मुख्य चुनाव आयुक्त बने, तो उन्होंने एक चुनाव चिह्न आदेश बनाया, जिसे 'सिम्बल ऑर्डर 1968' कहा जाता है. इसके पैरा 15 में लिखा है कि किसी राजनीतिक पार्टी में विवाद या विलय की स्थिति में फैसला लेने का अधिकार सिर्फ चुनाव आयोग के पास है.

- सुप्रीम कोर्ट ने भी पैरा 15 की वैधता को बरकरार रखा है. इसे चुनौती दी गई थी. 1971 में सादिक अली बनाम चुनाव आयोग मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पैरा 15 को वैध माना था.

कैसे तय होता है पार्टी का असली 'बॉस' कौन?

- किसी पार्टी का असली 'बॉस' कौन होगा? इसका फैसला मुख्य रूप से तीन चीजों पर होता है. पहला- चुने हुए प्रतिनिधि किस गुट के पास ज्यादा हैं? दूसरा- ऑफिस के पदाधिकारी किसके पास ज्यादा हैं? और तीसरा- संपत्तियां किस तरफ हैं?

- लेकिन किस धड़े को पार्टी माना जाएगा? इसका फैसला आमतौर पर चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर होता है. मसलन, जिस गुट के पास ज्यादा सांसद-विधायक होंगे, उसे ही पार्टी माना जाएगा.

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- यही वजह है कि शिवसेना में टूट के बाद चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को ही असली पार्टी माना था. और शिवसेना का चुनाव चिह्न 'धनुष-बाण' भी शिंदे गुट को दे दिया था.

शिंदे गुट को क्यों माना था असली शिवसेना?

- पिछले साल जून में एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी थी. इसके बाद शिवसेना में दो गुट बन गए. पहला गुट- एकनाथ शिंदे का और दूसरा- उद्धव ठाकरे का. 

- पार्टी से बगावत करने के बाद शिंदे गुट ने चुनाव आयोग में दावा कर दिया कि 'असली शिवसेना' वही हैं. इस पर इसी साल फरवरी में चुनाव आयोग ने 77 पन्नों का फैसला दिया था.

- फैसले में आयोग ने बताया था कि शिंदे गुट के पास शिवसेना के 55 में से 40 विधायक और लोकसभा के 18 में से 13 सांसदों का समर्थन है.

- आयोग के मुताबिक, शिंदे गुट के समर्थन वाले 40 विधायकों को 2019 के विधानसभा चुनाव में 76 फीसदी वोट मिले थे, जबकि उद्धव ठाकरे के समर्थन में 15 विधायकों को 23.5 फीसदी वोट मिले थे.

- इसी तरह से शिंदे गुट का समर्थन करने वाले 13 लोकसभा सांसदों को 2019 के चुनाव में 73 फीसदी और उद्धव ठाकरे के समर्थन के पांच सांसदों को 27 फीसदी मिले थे.

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एनसीपी का क्या हो सकता है?

- एनसीपी पर फिलहाल अजित पवार गुट का दबदबा दिख रहा है. इसी कारण शरद पवार ने भी कहा कि एनसीपी का चुनाव चिह्न अजित पवार गुट के पास जा सकता है.

- महाराष्ट्र विधानसभा में एनसीपी के 53 विधायक हैं. अजित गुट का दावा है कि उनके पास 40 विधायकों का समर्थन है.

- हालांकि, शरद पवार का गुट इस दावे को खारिज करता है. जुलाई में हुई शरद पवार गुट की मीटिंग में 13 विधायक पहुंचे थे.

- ज्यादातर विधायक भले ही अजित गुट के पास हों. लेकिन एनसीपी लोकसभा के पांचों सांसद अभी भी शरद पवार के साथ हैं. 

अगर भविष्य में साथ आए तो फिर?

- इस समय एनसीपी दो गुटों में बंट चुकी है. अजित गुट तो बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की सरकार में शामिल हो गया है. अजित पवार डिप्टी सीएम भी बन गए हैं. वहीं, शरद पवार का गुट विपक्ष में बैठा है. फिलहाल तो दोनों के फिर से साथ आने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है. 

- लेकिन भविष्य में अगर दोनों गुट फिर साथ आना चाहें तो क्या होगा? इस पर भी फैसला चुनाव आयोग ही करेगा. दोनों गुटों को आयोग के पास जाना होगा और बताना होगा कि अब हम साथ हैं और इसे ही पार्टी के तौर पर मान्यता दी जाए.

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पहले भी टूट चुकी हैं पार्टियां?

- ये पहला मौका नहीं है, जब किसी राजनीतिक पार्टी में दावे को लेकर दो धड़ों में जंग छिड़ गई हो. इससे पहले समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव बनाम शिवपाल यादव, आंध्र प्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडू, अपना दल में अनुप्रिया पटेल बनाम कृष्णा पटेल में जंग हो चुकी है. पिछले साल लोक जनशक्ति पार्टी में चिराग पासवान बनाम पशुपति कुमार पारस के बीच भी बंटवारा हो गया था.

- दो साल पहले जब लोक जनशक्ति पार्टी में जंग हुई तो पशुपति कुमार पारस ने खुद को पार्टी का अध्यक्ष घोषित कर दिया था. बाद में मामला लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला के पास गया, तो उन्होंने पशुपति कुमार पारस को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय दल का नेता चुन लिया था. एलजेपी के लोकसभा में 6 सांसद हैं, जिनमें से 5 सांसद पशुपति पारस के साथ चले गए थे. बाद में चिराग पासवान ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती भी दी, लेकिन अदालत ये याचिका खारिज हो गई थी.

- इससे पहले अपना दल में बगावत हुई थी. 2009 में सोनेलाल के निधन के बाद उनकी पत्नी कृष्णा पटेल ने पार्टी की कमान संभाल ली. 2014 में मिर्जापुर से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने बगावत कर दी. बाद में अनुप्रिया और उनके पति आशीष सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. दिसंबर 2016 में अनुप्रिया पटेल ने अपना दल (सोनेलाल) के नाम से नई पार्टी बना ली.

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- 2017 में समाजवादी पार्टी में टूट पड़ गई थी. तब अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह को हटा दिया था और खुद अध्यक्ष बन गए थे. बाद में शिवपाल यादव भी इस जंग में कूद गए थे. आखिर में मामला चुनाव आयोग के पास पहुंचा और चूंकि ज्यादातर चुने हुए प्रतिनिधि अखिलेश के साथ थे, इसलिए आयोग ने चुनाव चिह्न उन्हें ही सौंपा. बाद में शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी.

 

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