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सफेद दस्ताने वाले लोग, जिनका काम ट्रेन में भीड़ को धक्का लगाना है, लंबे-चौड़े लोगों को ही मिलती है नौकरी

हाथों में झकाझक सफेद दस्ताने पहले लंब-तड़ंग लोग स्टेशन पर खड़े होंगे. जैसे ही ट्रेन आएगी, वे तुरंत दरवाजे के दोनों तरफ पहुंच जाएंगे और लोगों को धक्का लगाने लगेंगे. ये प्रोफेशनल पुशर हैं, जिनका काम यात्रियों को धकियाकर डिब्बे के अंदर एडजस्ट करना है ताकि कोई भी प्लेटफॉर्म पर छूटने न पाए. कई और देश भी भारी भीड़ वाली ट्रेनों में पुशर रख रहे हैं.

ट्रेन में भीड़ को एडजस्ट करने के लिए प्रोफेशनल पुशर की तैनाती अमेरिका से शुरू हुई थी. सांकेतिक फोटो ट्रेन में भीड़ को एडजस्ट करने के लिए प्रोफेशनल पुशर की तैनाती अमेरिका से शुरू हुई थी. सांकेतिक फोटो
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 20 दिसंबर 2022,
  • अपडेटेड 7:04 AM IST

कुछ समय पहले जापान की सुकुबा एक्सप्रेस लाइन ने एक माफीनामा क्या निकाला, Twitter पर मीम्स चल पड़े. असल में हुआ ये कि सुकुबा से टोक्यो जाने वाली ट्रेन अपने तय समय से 20 सेकंड पहले चल पड़ी थी. इसपर रेल अधिकारियों ने अंदाजा लगाया कि कुछ सेकंड्स के हेरफेर से शायद कुछ यात्री ट्रेन में न बैठ सके हों. इसके बाद से लोग अपने-अपने देश के दुखड़े गाने लगे कि कैसे घंटों देरी के बाद भी किसी को फर्क नहीं पड़ता. ये तो हुई बाकी दुनिया की बात- लेकिन जापान अलग है. 

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काम की सनक से आया कॉन्सेप्ट

सत्तर के दशक में जापान में एक शब्द आया- करोशी, जिसका मतलब है ज्यादा काम करने से मौत. काम को लेकर जापानियों का जुनून ऐसा था कि वहां की सरकार को इसपर काबू पाने एक नियम लाना पड़ा ताकि लोगों को जबरन छुट्टी पर भेजा जा सके. अब काम है तो वक्त पर दफ्तर भी पहुंचना होगा. तो इसके लिए वहां एक जॉब निकली. ट्रेन में धक्का देकर ए़डजस्ट करने वालों की. जैसे मर्तबान में अचार को फिट करने के लिए उसे हिलाया-डुलाया जाता है, कुछ-कुछ वैसी ही. नाम मिला- प्रोफेशनल पुशर. 

ऐसे करते काम

लोग दफ्तर या स्कूल-कॉलेज सही समय पर पहुंच सके, इसके लिए वहां ओशिया या पुशर काम करने लगे. हाथों में सफेद दस्ताने और खास ड्रेस पहने इन लोगों का काम होता, भीड़ को हल्के हाथों से धकियाते हुए इस तरह एडजस्ट करना कि ट्रेन में ज्यादा से ज्यादा लोग आ सकें और कोई भी दरवाजे के बीच न फंसे. 

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टोक्यो सबवे के अलावा अमेरिकी, चीनी ट्रेन्स भी दुनिया की व्यस्ततम ट्रेनों में शुमार हैं. सांकेतिक फोटो 

क्षमता से 2 सौ गुना यात्री

साल 1964 समर ओलिंपिक के दौरान टोक्यो में देश-विदेश के खिलाड़ी और सैलानी जमा थे. इन्हीं में न्यूजीलैंड का एक फोटोग्राफर ब्रायन ब्रेक भी था. उसने टोक्यो सबवे में कुछ तस्वीरें खींचीं. जब वो तस्वीरें छपकर आईं तो ओलिंपिक की जगह ओशिया पर बात होने लगी. सबको ट्रेन में फिट करने के लिए धक्का लगाने वाले लोग! कई जगहों पर दावा है कि नब्बे की शुरुआत तक जापान की ट्रेनों में क्षमता से 221 गुना ज्यादा लोग होते.

दबे-कुचले हुए ही करना पड़ता था सफर

ये इतने ज्यादा थे कि अधिकतर के पैर ट्रेन के फर्श को छू नहीं पाते थे, यानी वे भीड़ के बीच फंसकर हवा में ही टंगे-टंगे यात्रा करते. खिड़कियों के पास खड़े लोगों के चेहरे ग्लास से लगकर पिचके हुए दिखते. किसी की नाक दब जाती तो किसी के गाल. लेकिन उन्हें उसी हाल में सफर करना होता.  

तस्वीरों में दिखती है मजबूरी

मशहूर जर्मन फोटोग्राफर माइकल वोल्फ ने टोक्यो में ट्रेन या सबवे के सफर को दुनिया का सबसे मुश्किल सफर कहा था. बता दें कि वोल्फ यूरोप और एशियाई देशों में घूम-घूमकर लोगों के सफर की तस्वीरें लिया करते. इसी दौरान उन्होंने ‘टोक्यो कंप्रेशन’ नाम से तस्वीरों की पूरी सीरीज निकाली. इसमें पहले से ही भरे डिब्बों में समाते लोग और खिड़की से उनके भाव दिखते हैं. वे तकलीफ में हैं, लेकिन वक्त पर ऑफिस पहुंचना भी जरूरी है.

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'टोक्यो कंप्रेशन' नाम से फोटोग्राफ्स की सीरीज है, जो दिखाती है कि यहां लोग किन हालातों में यात्रा करते हैं. सांकेतिक फोटो

ओशिया का काम यही पक्का करना कि किसी का काम न छूटे

इसकी खास टेक्नीक होती. वे उस जगह खड़े होते, जहां हर कोच का दरवाजा हो. ट्रेन रुकते ही जैसे ही भीड़ उतरना या चढ़ना शुरू करती, ओशिया उन्हें तरतीब से धक्का लगाते. इसके लिए दोनों हथेलियां खुली होतीं ताकि किसी को अंगुली न चुभे. नाखून हमेशा ठीक से कटे हों. हाथों में सफेद दस्ताने जरूरी थे ताकि किसी को किसी भी तरह का इंफेक्शन न हो. महिलाओं के लिए अलग डिब्बा भी होता, जिसके लिए पुशर नहीं होते थे, लेकिन अगर वे भी कॉमन डिब्बे में चढ़ें तो उन्हें भी धक्का झेलना होता.

वक्त के साथ घटे पुशर

अब टोक्यो की कुछ ही लाइनों पर प्रोफेशनल पुशर होते हैं. ये काम भी किसी प्रोफेशनल रेलवे स्टाफ की बजाए ऐसे लोगों को मिलता है, जो कॉलेज में पढ़ रहे हों, या पार्ट टाइम नौकरी की तलाश में हों. लेकिन साफ-सुथरा और अच्छी कद-काठी का होना जरूरी है ताकि भीड़ के रेले के साथ वो खुद भी न बह जाए. 

क्राउड कंट्रोल के लिए साइकोलॉजी की मदद

भीड़ पर कंट्रोल के लिए जापानी रेलवे स्टेशनों ने साइकोलॉजी की भी मदद ली. इसे नज थ्योरी कहते हैं. जैसे कुहनी से टहोका लगाकर कुछ याद दिलाया, या फिर ध्यान भटकाया जाए. इसके लिए जापान स्टेशन्स पर कई ऐसी चीजें लगी होती हैं, जो लोगों को एंगेज कर सकें, भले ही कुछ सेकंड्स के लिए. इससे होता ये है कि भारी भीड़ वाली ट्रेन में और भीड़ घुसने से रुक जाती है और पुशर को थोड़ा आराम मिल जाता है. 

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पुशर यानी क्राउड मैनेजमेंट स्टाफ ऊंचा-तगड़ा हो, ये अलिखित नियम है. सांकेतिक फोटो

वैसे ट्रेन पुशर का कंसेप्ट जापानी नहीं, अमेरिकी है

20वीं सदी की शुरुआत थी, जब न्यूयॉर्क ट्रॉम्स में कंडक्टर चीख-चीखकर लोगों को जल्दी पैर बढ़ाने और दरवाजों से दूर रहने को कहते. इसी दौरान रेलवे प्लटेफॉर्म्स पर हादसे बढ़ने लगे. तेजी से आगे जाने की कोशिश में लोग एक-दूसरे को धक्का लगाते और भगदड़ मच जाती. हादसों के लिए वहां का कानून रेलवे को जिम्मेदार ठहराता. इसी गड़बड़ को ठीक करने के लिए न्यूयॉर्क सिटी सबवे ने प्रोफेशनल पुशर तैनात करने शुरू कर दिए. कुछ ही सालों में अमेरिकी पुशर्स को दुनिया जानने लगी. साल 1941 में आई फिल्म सर्जेंट यॉर्क में हीरो पुशर का ही काम करता था. 

स्पेन में पैसेंजर हैंडलर होते हैं 

हाल के सालों में यूरोप के कई देशों ने अपने यहां इसकी शुरुआत की. साल 2017 में स्पेन के मैड्रिड में कई ट्रेन लाइनें खराब होने के कारण ट्रांसपोर्ट पर बोझ बढ़ गया. तभी स्पेनिश सरकार ने पैसेंजर हैंडलर रखने शुरू किए. वे यात्रियों को धक्का देने से पहले अलर्ट करते हैं ताकि वे संभलकर खड़े हो जाएं और भगदड़ न मचे. 

जर्मनी में पीक-टाइम में ऐसे लोग दिखेंगे

जर्मनी के कई हिस्सों में भी बीते कुछ सालों में पुशर रखे जाने लगे, लेकिन चूंकि धक्का देना यूरोपियन कल्चर में बुरा माना जाता है, इसलिए वे सीधे-सीधे धक्का लगाने की बजाए ट्रेन के दरवाजों के पास खड़े होकर देखते हैं कि कोच ठीक से भरे, और भरी हुई कोच में कोई जबर्दस्ती न घुसे. इन्हें बोर्डिंग गाइड्स भी कहा जाता है. 

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जापान की खचाखच ट्रेनों के बारे में किताबें-फिल्में तक आ चुकी हैं. 

अब वापस जापान की बात...

मिनिस्ट्री ऑफ लैंड इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रांसपोर्ट और टूरिज्म ने बताया था कि सिर्फ टोक्यो लाइन पर रोज 40 मिलियन से ज्यादा यात्री सफर करते हैं. इसके अलावा भी कई डेटा देते हुए मिनिस्ट्री ने बताया कि किन-किन वजहों से ट्रेन कितने मिनट लेट हो जाती है. इसमें सबसे बड़ी वजह खुदकुशी को बताया गया. यहां बता दें कि जापान में ट्रेन के आगे कूदकर खुदकुशी करने वालों की संख्या काफी ज्यादा रही. 

ट्रेन सुसाइड का ट्रेंड

टोक्यो के कई स्टेशनों के नाम चेक कीजिए, और धड़ाधड़ आर्टिकल खुलेंगे, जो इन जगहों को खुदकुशी के लिए सही स्पॉट बताते हैं. रेलवे ने माना कि 43.6 प्रतिशत मामलों में आत्महत्या करने वालों की वजह से ट्रेन लेट होती रही. 

टोक्यो में ट्रेन के आगे कूदने वाले युवाओं की संख्या बीते कुछ सालों में तेजी से बढ़ी. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

ट्रेन सुसाइड रोकने के लिए वहां कई कोशिशें

चारों ओर बैरियर लगे हुए हैं. हेल्पलाइन नंबर हैं. साथ में इमरजेंसी बटन भी हैं. जैसे अगर कोई खुदकुशी के लिए आगे बढ़ता लगे तो बटन दबाने पर अधिकारी एक्टिव हो जाएंगे और तुरंत मदद मिलेगी. जगह-जगह बड़ी-बड़ी स्क्रीन्स पर नीला समंदर और डॉल्फिनें खेलती हुई दिखेंगी ताकि आंखों को आराम मिल सके. ये भी नज थ्योरी में शामिल है. 

डिले सर्टिफिकेट भी मिल रहा

दफ्तर के लिए निकलें और ट्रैफिक में फंस जाएं तो आप क्या करते हैं? बॉस या किसी साथी को फोन करके अपडेट कर देते हैं. लेकिन जापान में इसकी जरूरत नहीं. ट्रेन 5 मिनट भी लेट हो तो रेलवे एक्टिव हो जाता है. हर स्टेशन पर उतरने वाले यात्रियों को वे एक सर्टिफिकेट देते हैं, जिसे ट्रेन डिले सर्टिफिकेट कहते हैं. ये ऑनलाइन भी मिलेगा, जिसपर तारीख के साथ ये दर्ज होगा कि ट्रेन किस स्टेशन पर कितनी देर से पहुंची. ये एक तरह का माफीनामा है, जो रेलवे आपके बॉस से मांगेगा. 

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