
जम्मू-कश्मीर के पुंछ में गुरुवार को हुए आतंकी हमले का बदला लेने की तैयारी शुरू हो गई है. ड्रोन, हेलिकॉप्टर और स्निफर डॉग्स की मदद से आसपास के इलाकों की तलाशी ली जा रही है.
खुफिया सूत्रों का कहना है कि इस आतंकी हमले को पांच आतंकियों ने अंजाम दिया था. इनमें से तीन विदेशी और दो स्थानीय आतंकी थे. ये बात भी सामने आई है कि इस हमले का मकसद जी-20 की बैठक से पहले खौफ पैदा करना था.
इस हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन पीपुल्स एंटी फासिस्ट फ्रंट (PAFF) ने ली है. इस संगठन पर गृह मंत्रालय ने इसी साल जनवरी में प्रतिबंध लगाया था.
आतंकियों ने ये हमला उस वक्त किया जब सेना का ट्रक भिंबर गली और पुंछ के बीच था. बारिश और लो विजिबिलिटी का फायदा उठाकर आतंकियों ने घात लगाकर हमला किया. इस हमले में पांच जवान शहीद हो गए. ये जवान जम्मू-कश्मीर में तैनात एंटी-टेररिस्ट ऑपरेशन के लिए तैनात राष्ट्रीय राइफल्स के थे. बीते कुछ सालों से कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ 'ऑपरेशन ऑलआउट' चल रहा है, जिसे राष्ट्रीय राइफल्स ही चला रही है.
बहरहाल, आतंकियों की इस कायराना हरकत का बदला तो सेना ले ही लेगी. क्योंकि आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि एक जवान की शहादत का बदला सेना छह आतंकियों को ढेर कर लेती है.
इसे ऐसे समझिए
पिछले साल आतंकी हमलों में 31 जवान शहीद हुए थे. जबकि, सेना और सुरक्षाबलों ने 172 आतंकियों को मार गिराया था. इस हिसाब से हर एक जवान की शहादत पर औसतन 6 आतंकी को ढेर कर दिया जाता है.
एक जवान के बदले में चार से पांच आतंकियों को मौत के घाट उतार देने का ट्रेंड जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद ज्यादा बढ़ गया है. 2019 में आतंकी हमलों में 80 जवान शहीद हुए थे, जबकि सुरक्षाबलों ने 157 आतंकियों को ढेर कर दिया था. यानी, एक जवान की शहादत के बदले दो आतंकी.
जबकि, 2020 में 62 जवान शहीद हुए थे और सुरक्षाबलों ने 221 आतंकियों की जान ले ली थी. इस हिसाब से एक जवान की शहादत के बदले में तीन से ज्यादा आतंकी. इसी तरह 2021 में 43 जवानों की शहादत के बदले सुरक्षाबलों ने 182 आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया था. यानी, एक जवान की शहादत का बदला सुरक्षाबलों ने चार से ज्यादा आतंकियों को मारकर लिया था.
अब कम भी हो रहीं आतंकी घटनाएं
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का दौर 1990 से ही शुरू हो गया था. इसके बाद से ही हर साल हजारों आतंकी हमले होते थे. लेकिन 2008 के बाद से ही आतंकी घटनाओं की संख्या में गिरावट आने लगी है.
2008 से पहले आतंकी घटनाओं की संख्या चार डिजिट में होती थी, लेकिन इसके बाद से तीन डिजिट में.
देखा जाए तो 2013 से 2022 के बीच दस सालों में 3,187 आतंकी हमले हुए थे. जबकि, इससे 10 साल पहले और यानी 2003 से 2012 के बीच आतंकी हमलों की संख्या 12,970 थी. और 10 साल पीछे जाएं यानी 1993 से 2002 के बीच तो उस समय 43 हजार से ज्यादा आतंकी हमले हुए थे.
कुल मिलाकर देखें तो 1990 से 2022 के बीच जम्मू-कश्मीर में 71,982 आतंकी हमले हुए हैं. इन हमलों में 13,885 आम नागरिकों की भी मौत हुई है. जबकि, सुरक्षाबलों के 5,433 जवान शहीद हुए हैं. इसी दौरान सुरक्षाबलों ने 25,487 आतंकियों को मार गिराया है. अगर 30 साल का औसत निकाला जाए तो एक जवान की शहादत के बदले में सुरक्षाबलों ने पांच आतंकियों को ढेर कर दिया.
तीन प्रधानमंत्री, क्या रहा आतंकवाद का ट्रेंड?
मई 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला. नतीजा ये हुआ कि 1996 से मार्च 1998 तक देश में तीन प्रधानमंत्री आए. पहले थे अटल बिहारी वाजपेयी, फिर एचडी देवेगौड़ा और फिर इंद्र कुमार गुजराल.
केंद्र में चल रही राजनीतिक अस्थिरता का खामियाजा कश्मीर में आम लोगों को भुगतना पड़ गया. 1996 में घाटी में आतंकियों ने 1,336 आम नागरिकों की जान ले ली. उस साल 184 जवान शहीद हुए थे.
1999 के चुनाव के बाद जब केंद्र में बीजेपी की सरकार आई और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो हालात थोड़े सुधरे. अटल के कार्यकाल में 4,300 से ज्यादा आम नागरिकों की जान गई, लेकिन इसी दौरान 9 हजार से ज्यादा आतंकी भी मारे गए. अटल सरकार में दो हजार से ज्यादा जवान शहीद हुए थे.
वहीं, मनमोहन सरकार में करीब दो हजार आम नागरिक मारे गए और चार हजार से ज्यादा आतंकी ढेर हुए. जबकि, मोदी सरकार में 2022 तक आतंकी हमलों में सुरक्षाबलों के 555 जवान शहीद हुए हैं, जबकि डेढ़ हजार से ज्यादा आतंकी मारे गए हैं.
जम्मू-कश्मीर में कैसे पनपा आतंकवाद?
7 मार्च 1986 को केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर की गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया. उसके एक साल मार्च 1987 में विधानसभा चुनाव हुए और घाटी में सबकुछ बदल गया.
1987 के चुनाव से पहले जमात-ए-इस्लामी और इत्तेहाद-उल-मुस्लमीन जैसी अलगाववादी पार्टियां एक हुईं और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट बनाया. इस फ्रंट ने कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ चुनाव लड़ा.
मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट की रैलियों में जमकर भीड़ आती थी. चुनाव में इस फ्रंट की जीत लगभग तय मानी जा रही थी. लेकिन जब नतीजे आए तो जीत कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन की हुई. आरोप लगे कि चुनाव में धांधली हुई और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उम्मीदवारों को जीतने से रोका गया.
ये चुनाव इसलिए टर्निंग पॉइंट कहे जाते हैं क्योंकि इसके बाद कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद की शुरुआत हुई. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट की ओर से लड़े ज्यादातर उम्मीदवार बाद में आतंकवादी बन गए. सैयद सलाहुद्दीन हिज्बुल मुजाहिदीन का कमांडर बना, जो अब पाकिस्तान में रहता है.
1990 का दौर आते-आते यहां आतंकवाद चरम पर था. गैर-मुस्लिमों खासकर कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाया जाने लगा. जो घाटी छोड़कर नहीं गए, उन्हें मार डाला गया.