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पशुओं की तरह क्या इंसानों का भी क्लोन तैयार हो सकता है, क्यों साइंटिस्ट इसे लेकर डरे रहते हैं?

लगभग 3 दशक पहले 22 फरवरी को दुनिया का पहला क्लोन तैयार हुआ. डॉली नाम की इस भेड़ के बनने के बाद माना जाने लगा कि जल्द ही इंसानों का भी क्लोन बन जाएगा. कई बार ऐसे दावे हुए. इस बीच ज्यादातर देशों ने ह्यूमन क्लोनिंग पर बैन लगा दिया. इसके बाद भी डर बना हुआ है कि कहीं न कहीं इंसानी कार्बन कॉपी बनाने की तैयारी हो रही है.

ह्यूमन क्लोनिंग पर लगभग तीन दशक से बहस हो रही है. सांकेतिक फोटो (Getty Images) ह्यूमन क्लोनिंग पर लगभग तीन दशक से बहस हो रही है. सांकेतिक फोटो (Getty Images)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 20 फरवरी 2023,
  • अपडेटेड 6:32 PM IST

विज्ञान लगातार एक के बाद एक अजूबे कर रहा है. जानलेवा समझी जाने वाली कई बीमारियों का इलाज होने लगा है. ऑर्गन ट्रांसप्लांट अब कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन एक जगह साइंस अब भी कमाल नहीं कर सका, वो है इंसानों का क्लोन तैयार कर पाना. लगभग 28 साल पहले जब दुनिया का पहला क्लोन तैयार हुआ था, तब भी मामला आसान नहीं था.

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साइंटिस्ट बहुत बार फेल हो चुके थे. आखिर में न्यूक्लियस ट्रांसफर की तकनीक अपनाई गई. इसमें एक भेड़ का जेनेटिक मटेरियल लेकर दूसरे भेड़ के अनफर्टिलाइज्ड अंडे में डाल दिया गया. इसी प्रक्रिया से डॉली का जन्म हुआ. 

हरदम लैब में रखी गई ये भेड़ वैसे ठीक-ठाक सेहत वाली थी और उससे 6 मेमने भी हुए. कुछ सालों बाद लंग कैंसर के चलते डॉली काफी बीमार हुई और साल 2002 में दवाओं के ओवरडोज से उसे खत्म कर दिया गया. इस बात को भी पूरे 2 दशक हो चुके हैं, लेकिन अब तक ह्यूमन क्लोन की कोई आहट नहीं. 

फेक दावे होते रहे
साल 2002 में ही फ्रेंच वैज्ञानिक ब्रिगेट बॉइसेलिअर ने दावा किया था कि उसने दुनिया का पहला ह्यूमन क्लोन बना लिया है. उसे इव नाम दिया गया. दुनिया में अफरातफरी मच गई कि अगर ये सच है तो बहुत खतरनाक होगा. हालांकि बाद में इस बात में कोई सच्चाई नहीं मिली. बाद में ताइवान के कुछ वैज्ञानिकों ने भी ऐसी हवा बनाई कि उन्होंने एक नहीं, कई इंसानी क्लोन बना लिए हैं, लेकिन इसमें भी कोई दम नहीं निकला. अब अमर होने पर काम कर रहे वैज्ञानिक भी क्लोन की बात पर चुप लगा जाते हैं. क्यों है ऐसा?

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लंग कैंसर से जूझती डॉली भेड़ को दया-मृत्यु दी गई. (Getty Images)

पहले समझते हैं कि क्लोनिंग आखिर है क्या
अमेरिका के नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट (NHGRI) के अनुसार क्लोनिंग के कई तरीके, कई अप्रोच हो सकते हैं, लेकिन आखिर में इसका मकसद है किसी भी जीव-जंतु की आइडेंटिकल कॉपी तैयार करना. यानी ह्यूमन क्लोन बन सका तो एक से दिखते दो या कई लोगों से आप मिल सकते हैं. 

लगभग एक जैसे दिखने के बाद भी क्लोन और ओरिजिनल एक जैसे नहीं होंगे. उनमें कहीं न कहीं अंतर होगा. उनके फिंगरप्रिंट और आंखों में भी फर्क होगा. 

कैसे तैयार हो सकता है ह्यूमन क्लोन
इंसानी क्लोन तैयार करना बहुत ज्यादा मुश्किल है लेकिन अगर ऐसा किया ही जाए तो प्रोसेस लगभग एक सी होगी. इसमें मैच्योर सोमेटिक सेल को लिया जाएगा. ये स्किन सेल भी हो सकती है. इससे डीएनए लेकर उसे डोनर के एग में डाल दिया जाएगा. इसके पहले उस एग से वो सारी चीजें हटा ली जाएंगी, जिनमें डीएनए होते हैं. अंडा कुछ समय के लिए टेस्ट ट्यूब में विकसित होगा, जिसके बाद इसे सरोगेट मां के भीतर डाल दिया जाएगा. ये प्रक्रिया रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग कहलाती है. 

जानवरों में भी नहीं है 100 फीसदी कामयाब
जल्द ही वैज्ञानिकों ने भेड़, बकरी, खरगोश और यहां तक कि बिल्लियों तक के क्लोन बना डाले, लेकिन इंसानों की पारी अब तक नहीं आ सकी. इसकी कई वजहों में से एक है, क्लोनिंग में मिलती नाकामयाबी. पहली भेड़ के बनने के बाद से अब तक कई पशुओं के क्लोन बने, लेकिन बहुत बार फेल होने के बाद. क्लोनिंग की हर कामयाबी के पीछे लगभग 99 असफलताएं हैं. कुछ एंब्रियो आईवीएफ डिश में खत्म हो जाते हैं, कुछ सरोगेट मांओं के भीतर और जिनका जन्म होता भी है, वे अक्सर किसी जेनेटिक बीमारी से जूझ रहे होते हैं. 

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ह्यूमन क्लोनिंग को कोई भी देश खुले में सहमति नहीं देता है. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

जेनेटिक बीमारियां भी हैं कारण
क्लोनिंग एंब्रियो के पास एक ही पेरेंट होता है. उसमें एक ही तरह के डीएनए होते हैं. इससे इनमें इम्प्रिंटिंग की प्रोसेस नहीं हो पाती. एंब्रियो के विकास के दौरान होने वाली ये वो प्रक्रिया है, जिसमें कुछ ऐसे जीन्स कमजोर पड़ जाते हैं, जो बीमार हों. इससे भ्रूण का विकास और सेहत पक्की होती है. इम्प्रिंटिंग से बचे हुए ये क्लोन ज्यादा बीमार होते हैं और जल्द मौत का डर रहता है. 

नैतिक तर्क भी दिए जाते रहे
क्लोनिंग न करने के पीछे एक तर्क ये भी है कि इससे किसी भले या मजबूत इंसान की कार्बन कॉपी नहीं बनती, बल्कि ये दोनों सिर्फ जेनेटिक कॉपीज होते हैं. ये दिखेंगे भले एक से, लेकिन आदतें, सोच और दिमाग भी अलग होगा. एक ही जैसे दिखने वाले ये लोग काफी मुश्किलें भी पैदा कर सकते हैं. यही देखते हुए खुद वैज्ञानिक भी ह्यूमन क्लोन पर प्रयोग से बच रहे हैं. 

रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग को माना गया गैरकानूनी
ह्यूमन क्लोनिंग के फायदों की बजाए खतरों को देखते हुए कई देश इसपर प्रयोग पर बैन लगा चुके. इनमें जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और कनाडा जैसे देश शामिल हैं. भारत में क्लोनिंग को बैन करने के लिए अलग से कोई नियम नहीं, लेकिन कई गाइडलाइन्स हैं, जो ह्यूमन या रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग पर प्रयोग को गैरकानूनी मानती हैं. हमारे यहां सिर्फ थैरेप्यूटिक क्लोनिंग की जा सकती है ताकि शोध हो सके. साथ ही यहां असिस्टेड ह्यूमन रिप्रोडक्शन एक्ट के तहत ऐसे किसी भी प्रयोग को सहमति नहीं है, जिसमें स्पर्म और एग के मेल से भ्रूण न बने.  इसके बाद भी ह्यूमन क्लोनिंग का डर बना हुआ है. 

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चीन ने किया था पालतू जानवर तैयार करने का दावा
कोरोना से ठीक पहले चीन के कुछ वैज्ञानिकों ने कहा था कि उनके पास जानवरों का क्लोन बनवाने के लिए काफी लोग आ रहे हैं. साइनोजीन नाम की इस कंपनी ने कहा कि ज्यादातर लोग अपने मरे हुए पेट्स की कॉपी चाहते थे. कंपनी ने ये दावा भी किया था कि जल्द ही वे जीन एडिटिंग भी करने लगेंगे ताकि एक जानवर की कमियां या बीमारियां उसके क्लोन में न आएं.

अक्सर अपने अजीब और सीक्रेट प्रयोगों के लिए कुख्यात चीन के इस दावे के बाद से ये कयास भी लगने लगे कि कहीं न कहीं ह्यूमन क्लोनिंग की कोशिश भी हो रही होगी. बीच में ऐसी भी बातें आईं कि कई पेरेंट्स अपने खो चुके बच्चों का क्लोन बनाने पर चाहे जितने पैसे खर्च करने को तैयार हैं, लेकिन किसी साइंटिस्ट ने खुले तौर पर इसको हां नहीं की. 

 

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