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यूक्रेन के बाद रूसी बोलने वाले बाकी देशों पर भी रहेगी मॉस्को की नजर, कौन से मुल्क सॉफ्ट टारगेट?

नब्बे के दशक में सोवियत संघ से टूटकर 15 देश बने थे, लेकिन मॉस्को लगातार यूक्रेन पर हमलावर रहा. बीते साढ़े तीन दशक में उसने न केवल इसके कई हिस्सों पर कब्जा कर लिया, बल्कि कई इलाकों में रूसी अलगाववाद को भी हवा दी. क्या रूस की आक्रामकता यूक्रेन को लेकर वाकई ज्यादा रही, या फिर ट्रंप के अमेरिका की तरह रूस भी खुद को ग्रेटर रशिया की तरह देख रहा है?

व्लादिमीर पुतिन सोवियत संघ के टूटने पर अक्सर दुख जताते रहे. (Photo- AP) व्लादिमीर पुतिन सोवियत संघ के टूटने पर अक्सर दुख जताते रहे. (Photo- AP)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 24 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 12:18 PM IST

ठीक तीन साल पहले जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था, तो दुनिया में कोहराम मच गया. तीसरे विश्व युद्ध की आशंकाएं जताई जाने लगीं. कुछ वक्त बाद ये डर तो मंदा पड़ा लेकिन ये खौफ सिर उठाने लगा कि कहीं यूक्रेन सरेंडर न कर दे. ये रूस के मुंह में खून लगने जैसा मामला हो सकता था. हालांकि दोनों में से किसी ने हार नहीं मानी.

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अब जाकर उनके बीच सीजफायर के बात चल रही है, वो भी अमेरिकी राष्ट्रपति की अगुवाई में. इसमें भी यूक्रेन नाराज है कि उसे पूछा नहीं जा रहा. इस सारी घालमेल के बीच ये सवाल आता है कि आखिर क्यों यूक्रेन को लेकर ही रूस ज्यादा एग्रेसिव रहा. 

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक बार कहा था कि सोवियत संघ के नाम पर दरअसल रूस को तोड़ा गया और इस तरह से उनके पूर्वजों की सैकड़ों सालों की मेहनत बर्बाद हो गई. बता दें कि दिसंबर 1991 में सोवियत के टूटने के बाद 15 आजाद देश बने थे- आर्मेनिया, अजरबैजान, बेलारूस, इस्टॉनिया, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, लातविया, लिथुआनिया, मोल्दोवा, रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान. रूस इसमें सबसे बड़ा और सबसे अहम हिस्सा था, जो खुद को यूएसएसआर के उत्तराधिकारी की तरह देखता. 

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हाल में दौलत लुटा चुके पुराने रईस की तर्ज पर पुतिन गाहे-बगाहे पुराने दौर को याद करते दिखते हैं. वे केवल बात ही नहीं करते, उनकी आक्रामकता सैन्य मामलों में भी दिखती रही. जैसे वे यूक्रेन को लेकर सीधे हमलावर रहे और उसके कई हिस्सों को मॉस्को से मिला लिया.

साल 2014 से इसकी शुरुआत हो चुकी. तब मॉस्को ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. साथ ही पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों को सपोर्ट किया. यह वो हिस्सा है, जहां रूसी बोलने वाले रहते हैं और खुद को रूस के करीब पाते हैं. पुतिन ने हालांकि इन इलाकों को अपने साथ मिलाने की बजाए इतनी सावधानी बरती कि उन्हें यूक्रेन से अलग मानने लगा. ये सतर्कता इसलिए कि इंटरनेशनल स्तर पर उस पर और पाबंदियां न लग जाएं. 

यूक्रेन अलग होकर भी रूस की नजरों से कभी हटा नहीं. इसकी वजह ये भी है कि यूएसएसआर से टूटे ये दोनों देश कल्चरली और ऐतिहासिक तौर पर भी ज्यादा करीब रहे. रूस मानता है कि उसकी सभ्यता की शुरुआत ही यूक्रेन से हुई थी. यही वजह है कि वो बार-बार इस देश को वापस पाने की कोशिश में रहा. 

हालांकि सांस्कृतिक वजह ही अकेली नहीं. यूक्रेन की यूरोप और NATO देशों से बढ़ती दोस्ती भी रूस को परेशान करने लगी. कीव दरअसल रूस से अलग हुए बाकी देशों से कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी रहा. उसकी भौगोलिक स्थिति भी उसे बाकियों से बेहतर पोजिशन में रखती है. साथ ही उसके पास लीथियम जैसे खनिज का भंडार है. ऐसे में यूरोप को भी उससे जुड़कर फायदा ही मिला.

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कीव अपनी कीमत जानता था. उसने इसका फायदा लेते हुए न केवल यूरोप, बल्कि अमेरिका से भी करीबी बढ़ाई. यहां तक कि वो अपनी नाटो सदस्यता के लिए एडवोकेसी करने लगा. यही बात रूस को सबसे ज्यादा खलने लगी. नाटो वही सैन्य संगठन है, जिसे बनाया ही इसलिए गया ताकि वो रूस की ताकत पर कंट्रोल कर सके. यूक्रेन अगर नाटो का स्थाई सदस्य बन जाए तो रूस का असर और सीमित हो जाएगा. साथ ही अमेरिका और पूरा यूरोप जब चाहे, उसकी भौगोलिक घेराबंदी कर सकता है. 

यही वजह है कि रूस पिछले एक दशक से कीव को धीरे-धीरे घेर रहा है. साल 2014 में उसने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. इसके साथ ही साथ वो रूसी भाषा बोलने वाले इलाकों में अलगाववाद को उकसाता रहा. यहां कई अलगाववादी गुट हैं, जो रूस के पक्ष में आंदोलन चलाए रखते हैं. डोनेट्स्क, जिसमें पोक्रोवस्क शहर भी आता है, के अलावा एक और इलाका लुहान्स्क भी रूस का समर्थन करने वाले अलगाववादियों से भरा हुआ है. यहां तक कि इन इलाकों के सेपरेटिस्ट्स ने अपने-आप को यूक्रेन से अलग करने की भी घोषणा कर दी थी. यूक्रेन इन्हे अपना क्षेत्र मानता है, जबकि रूस इनके विद्रोह को हवा देता रहा.

यहां एक जनमत संग्रह भी हुआ, जिसमें 80 फीसदी से ज्यादा आबादी ने अपने अलग रिपब्लिक की बात की. यूक्रेन समेत इंटरनेशनल मंच ने इसे खारिज कर दिया, वहीं रूस ने मौके को लपकते हुए डोनेट्स्क और लुहान्स्क को औपचारिक तौर पर यूक्रेन से अलग मान्यता दे दी. अब युद्ध के दौरान ये जरूरी इलाके और संवेदनशील हो चुके. रूस की सेना अगर यहां कंट्रोल पा जाए तो स्थानीय विरोध का तो सवाल ही नहीं उठता, बल्कि उनके जरिए वो आगे तक पहुंच सकेगी. 

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डोनेट्स्क और लुहान्स्क इलाकों पर रूस ने सीधा कब्जा नहीं किया क्योंकि ये कूटनीतिक लिहाज से सही गणित नहीं. याद दिला दें कि फरवरी 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र पर रूसी कब्जे के बाद मॉस्को को काफी मुश्किलें झेलनी पड़ीं. उसपर व्यापारिक और डिप्लोमेटिक पाबंदियां लग गईं. इंटरनेशनल स्तर पर भी इमेज में खोंच लगी. लिहाजा, अब वो संभलते हुए रणनीति बना रहा है. 

आगे किन देशों को बना सकता है निशाना

यूक्रेन से सटा मोल्दोवा आसान शिकार हो सकता है. यहां रूस के सपोर्ट में काम करने वाले अलगाववादी पहले से ही हैं. इसके बाद कजाकिस्तान का नंबर आ सकता है. इस देश की उत्तरी सीमा पर रूसी भाषा बोलने वालों की बड़ी आबादी है, जो अक्सर अपना असंतोष दिखाती रही. ये देश गरीब भी है. ऐसे में वहां आर्थिक या राजनैतिक अस्थिरता आए तो मॉस्को अपने नागरिकों की सेफ्टी के नाम पर दखल दे सकता है.

तीनों बाल्टिक देश यानी एस्टॉनिया, लातविया और लिथुआनिया नाटो के मेंबर हैं. ऐसे में मॉस्को किसी हाल में उनपर सीधा हमला नहीं करेगा. लेकिन वो हाइब्रिड वॉर जरूर कर सकता है, या फिर खुद ही अस्थिरता पैदा कर सकता है, जिसका फायदा उसे मिल सके. 

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