
इन दिनों कई देश आपस में लड़-भिड़ रहे हैं. ताजा मामला ईरान और पाकिस्तान का है, जो एक-दूसरे पर एयरस्ट्राइक कर रहे हैं. इसकी बड़ी वजह उनके चरमपंथी गुट हैं. दोनों ही देश दावा कर रहे हैं कि उन्होंने आम जनता नहीं, बल्कि आतंकियों के ठिकानों पर हमला किया. इस उथलपुथल का तो सबको अंदाजा है, लेकिन दुनिया की नाक के नीचे एक और हिस्सा टैरर का सबसे बड़ा गढ़ बन चुका है.
अफ्रीका का ये भाग चपेट में
ये सहेल पट्टी है, यानी 10 अफ्रीकी देशों का समूह. यूनाइटेड नेशन्स इंटीग्रेटेड स्ट्रेटजी फॉर द सहेल के अनुसार अफ्रीकी पट्टी में सेनेगल, गाम्बिया, मॉरिटानिया, गिनी, माली, बुर्किना फासो, नाइजर, चड, कैमरून और नाइजीरिया शामिल हैं. वैसे सहेल 12 देशों से मिलकर बना है, लेकिन भौगोलिक स्थिति के आधार पर संस्थाएं इसे कम-ज्यादा करती हैं. अटलांटिक महासागर से लेकर लाल सागर तक फैला ये एरिया बीते कुछ सालों में बहुत तेजी से आतंकियों को अपनी ओर खींचने लगा.
तीन सालों के भीतर बढ़ा आतंकवाद
ग्लोबल टैररिज्म इंडेक्स का डेटा यह साफ कर देता है. साल 2007 में इन देशों में आतंक की वजह से 7 प्रतिशत मौतें हुईं, जबकि अगले 15 ही सालों के भीतर ये बढ़कर 43 प्रतिशत हो गई. खासकर बुर्किना फासो, नाइजर और माली में सबसे ज्यादा चरमपंथी संगठन तैयार हो रहे हैं.
इसकी एक वजह है सिविल वॉर
सहेल के वेस्टर्न हिस्से में लगातार कोई न कोई अंदरुनी लड़ाई चलती रही. यहां मोटे तौर पर तीन एथनिक समूह हैं, बर्बर, होसा और योरुबा. इसमें भी कई सब-डिवीजन हैं. खानपान और पूजा-पाठ से लेकर बोली के आधार पर लोग खुद को अलग मानते हैं. तो होता ये है कि अक्सर सत्ता में बदलाव के दौरान लोकल समूह एक-दूसरे से लड़ने लगते हैं.
सभी चाहते हैं कि उनके लोगों के पास ज्यादा ताकत आए. बड़े स्तर पर इसे धार्मिक रंग भी दिया जाता है, जैसे मुस्लिमों में शिया-सुन्नी के बीच का भेद. चूंकि अफ्रीका में युवा आबादी बहुत ज्यादा है, लिहाजा लड़ाइयां भी वहां खुलकर होती हैं.
लंबाई और हालात भी बाधा
ये 4 हजार किलोमीटर से ज्यादा इलाके में फैला हुआ है. भौगोलिक तौर पर काफी दुर्गम है, जहां जाना आसान नहीं. ये चीज पेट्रोलिंग में रुकावट डालती है. इसलिए इंटरनेशनल पीस एजेंसियां भी यहां खास काम नहीं कर पातीं.
क्लाइमेट चेंज से बेहाल है यहां के देश
सहेल में ग्लोबल वार्मिंग का असर दुनिया के बाकी हिस्सों से कई गुना ज्यादा दिखता है. रेगिस्तानी इलाके ज्यादा होने की वजह से यहां के लोग पूरी तरह से रेनफॉल पर निर्भर हैं. अगर बारिश कम हो तो इसका सीधा असर खेती पर होता है. सहेल के पास पैसों की कमी के चलते आर्टिफिशियल साधन भी कम हैं कि वो कुदरती अभाव को पाट सके.
राजनैतिक अस्थिरता का असर लोगों के मन पर
फ्रैजाइल स्टेट इंडेक्स के अनुसार, सहेल में 2022 से अगले दो ही सालों के भीतर 13 बार तख्तापलट की कोशिशें हुई, जिनमें से 7 कामयाब भी रहीं. ये सारी उठापटक माली, बुर्किना फासो, नाइजर और चड में हुई. यहां सरकारें इतनी कमजोर हैं कि इसका असर पूरे देश पर गरीबी और भुखमरी के रूप में दिखता है. इससे जूझते युवा तुरंत आतंक की तरफ आकर्षित हो जाते हैं अगर उससे पेट भरा रहे और जीने का मकसद भी दिखे.
बढ़ रहा इस्लामिक स्टेट का दखल
बुर्किना फासो की बात करें तो उसे इस्लामिक स्टेट ने लंबे समय तक अपना गढ़ बनाए रखा. वो गरीबी से जूझते यहां के युवाओं को जेहादी बनने की ट्रेनिंग देता, उन्हें हथियार मुहैया कराता और अपने साथ आतंकी बना डालता. कई इंटरनेशनल एजेंसियों आगाह करती रहीं कि इस्लामिक स्टेट सीमा-पार नशे के व्यापार और मानव तस्करी में भी इन लोगों का इस्तेमाल कर रहा है. ये सारी बातें भी सहेल को कमजोर बनाए हुए हैं. यही स्थिति माली और चड में भी है.
लोकल चरमपंथियों के साथ मिलकर काम
इस्लामिक स्टेट के अलावा यहां अलकायदा भी तेजी से पैर पसार रहा है. ये वहां छोटे चरमपंथी संगठनों से साठगांठ कर लेते हैं, और उनके जरिए बढ़ते हैं. फिलहाल सहेल में जेएनआईएम, इस्लामिक स्टेट सहेल प्रोविंस जैसे मिलिटेंट गुट हैं, जो आतंक को पनाह दे रहे हैं.
क्या साजिश के चलते अस्थिर है अफ्रीका
अफ्रीकी मामलों के जानकार ये भी संदेह जताते हैं कि महाद्वीप पर दिखता अंदरुनी संघर्ष असल में इंटरनेशनल स्तर की साजिश है ताकि वहां के कच्चे माल और मैनपावर का पूरा फायदा पश्चिम ले सके. जर्नल ऑफ मॉडर्न अफ्रीकन स्टडीज के आर्टिकल में सिलसिलेवार ढंग से ये दावा किया गया कि अफ्रीका में चल रही सिर्फ 30% लड़ाई ही आपसी है, जबकि बाकी 70% इंटरनेशनल देन है. इसी अस्थिरता का फायदा आतंकी संगठन भी उठा रहे हैं. ये वैसा ही है, जैसे ट्रेन हादसे के बाद मची अफरातफरी में चोर एक्टिव हो जाते हैं.