
यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया इधर विवादों में हैं. उन्होंने एक शो में पेरेंट्स को लेकर बेहद अश्लील मजाक कर डाला. इसके बाद से कई राज्यों में उनपर FIR हो चुकी. मामले रद्द कराने पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिमागी गंदगी की बात कह दी. सोच और मानसिकता वाली गंदगी से अलग भी ब्रेन में कई तरह की गंदगी जमा होती रहती है, जिसे एक खास सिस्टम के जरिए बाहर किया जाता है.
क्यों जमा होता है ब्रेन वेस्ट
हमारा दिमाग दिल्ली मेट्रो से अलग नहीं. लगातार लंबी दौड़ से उसपर भी धूल की मोटी परत जम जाती है, जिसे ब्रेन वेस्ट कहते हैं. ये बायोकेमिकल रिएक्शन से होती है. जैसे हमारा ब्रेन लगातार केमिकल रिएक्शन और मेटाबोलिक प्रोसेस में जुटा रहता है. इस दौरान काफी सारे टॉक्सिन्स बनते हैं जो ठीक से साफ न हों तो मस्तिष्क में गंदगी जमा हो सकती है. अगर हार्मोन असंतुलित हो जाएं, तब भी ब्रेन वेस्ट का लेवल बढ़ जाता है. ज्यादा शुगर और प्रोसेस्ड फूड खाने का असर भी ब्रेन वेस्ट के रूप में दिखता है.
हमारे आसपास की गंदगी भी ब्रेन में गंदगी की वजह बन सकती है. जैसे जहां एयर पॉल्यूशन ज्यादा हो, वहां दिमाग में सूजन आ सकती है. प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक भी मस्तिष्क के लिए बेहद खतरनाक हैं जो भीतर जाकर ब्रेन टॉक्सिन्स की वजह बनते हैं.
क्या होता है गंदगी के इस जमावड़े से
लगभग तीन पाउंड का मस्तिष्क अगर गंदगी को साफ न करे तो सालभर में पांच पाउंड वजन जितना प्लाक और टॉक्सिन्स उसे घेर सकते हैं. इसका सीधा असर याददाश्त, सोचने और फैसला लेने की क्षमता और सेहत पर होता है. ब्रेन क्लीनिंग सिस्टम अगर महीने भर भी काम न करे तो न्यूरोलॉजिकल बीमारियां हो सकती हैं, जैसे अल्जाइमर्स और डिमेंशिया. इसके अलावा, ब्रेन वेस्ट का जमाव मानसिक सेहत पर भी होता है और इससे टेंशन, एंग्जायटी, डिप्रेशन के लक्षण दिखने लगते हैं.
वेस्ट लगातार जमा होता रहे, तो दिमाग में सूजन आ जाती है, जिससे ब्रेन एजिंग तेज हो जाती है, यानी मस्तिष्क समय से काफी पहले बूढ़ा हो जाता है.
इस तरह होती है सफाई
यही वजह है कि डेढ़ किलो से कम वजन का ये अंग लगातार अपनी सफाई करके खुद को दुरुस्त करने में लगा रहता है. दिमाग की सफाई की एक प्रोसेस है, जिसे ग्लाइम्पैटिक सिस्टम कहते हैं. मजेदार बात ये है कि यह प्रक्रिया सिर्फ सोने के दौरान ही एक्टिव होती है. जैसे ही हम सोते हैं, वेस्ट क्लीयरेंस सिस्टम अपना काम शुरू कर देता है.
कैसे काम करता है ग्लाइम्पैटिक सिस्टम
- ब्रेन और स्पाइनल कॉर्ड के चारों ओर जमा सिरिब्रोस्पाइनल फ्लूइड टॉक्सिन्स को घोलकर बाहर निकालने में मदद करता है.
- ये ब्रेन वेस्ट को घोलकर पतला करता है ताकि वो बाहर निकलने लायक हो सकें.
- घुलने के बाद वेस्ट को लिम्फैटिक सिस्टम के जरिए ब्रेन से बाहर निकाल दिया जाता है और फिर बाकी गंदगी की तरह ये शरीर से भी हट जाता है.
सोते हुए 10 गुना ज्यादा सक्रिय
वैज्ञानिकों ने पाया कि जब हम गहरी नींद में होते हैं तो यह साफ-सफाई 10 गुना तेजी से होती है . साल 2013 में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ रोचेस्टर में एक स्टडी के दौरान पता लगा कि सोते हुए हमारे ब्रेन सेल्स 60 प्रतिशत तक सिकुड़ जाते हैं जिससे ग्लाइम्पैटिक सिस्टम को टॉक्सिन्स बाहर निकालने के लिए ज्यादा जगह मिलती है. वहीं नींद की कमी से दिमाग में गंदगी बढ़ जाती है. यही वजह है कि एक-दो रोज भी पूरी नींद न लेने पर ब्रेन फॉग जैसी दिक्कतें आने लगती हैं.
इन तरीकों से भी क्लीनिंग
प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में छपे अध्ययन में भी यही पता लगा कि नॉन-रैम स्लीप के दौरान असल में ब्रेन सबसे तगड़ी साफ-सफाई में जुटा रहता है. लेकिन बाकी दिनभर भी मस्तिष्क क्लीनिंग करता है. मसलन, जब हम कसरत करें तो ब्लड फ्लो बढ़ता है, जिससे दिमाग को ज्यादा ऑक्सीजन मिलती है, यह भी प्रोसेस का अहम हिस्सा है. पानी या जूस पीने से ब्रेन का फ्लूइड संतुलित रहता है और टॉक्सिन्स उसमें घुलकर बाहर फिल्टर होते रहते हैं.
उपवास भी ब्रेन वेस्ट को हटाने काम करता है. जब हम 12 से 16 घंटे तक व्रत करें तो ब्रेन पुरानी और बेकार सेल्स को हटा देता है. इस समय ग्लूटाथियोन नाम का एंटीऑक्सिडेंट बढ़ता है, जो गंदगी को हटाता है. मेडिटेशन, योगा और डीप ब्रीदिंग जैसे तरीके, जिनसे बाकी शरीर की सेहत बनती है, ब्रेन को भी उससे काफी फायदा होता है.
क्या खराब सोच भी साफ हो सकती है
अब आते हैं रणवीर पर कोर्ट के बयान यानी मानसिकता वाली गंदगी की बात पर. तो ब्रेन क्लीनिंग में सिर्फ फिजिकल टॉक्सिन्स ही नहीं, निगेटिव सोच भी साफ होती है. यह काम यह काम न्यूरोप्लास्टिसिटी, न्यूरोट्रांसमीटर बैलेंस और ब्रेन नेटवर्क पर तय करता है. न्यूरोप्लास्टिसिटी का मतलब है कि दिमाग खुद को री-वायर कर सकता है.
अगर कोई लंबे समय तक निगेटिव सोच रखे तो मस्तिष्क उसे ही सच मानते हुए वैसा ही पैटर्न अपना लेता है. वहीं अगर कोई पॉजिटिव सोचने की आदत डालना चाहे तो धीरे-धीरे ही सही, मस्तिष्क नए न्यूरल पाथवे बनाता है और पुराना पैटर्न खत्म हो जाता है. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की कोविड से ऐन पहले की स्टडी में साफ हुआ कि लोग अगर 6 से 8 हफ्ते भी पॉजिटिव थिंकिंग की कोशिश करें तो ब्रेन में नए न्यूकर पाथवे तैयार हो जाते हैं.