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तमिलनाडु में हिंदी के विरोध की क्या है कहानी? आजादी से भी पुराना है ये विवाद

तमिलनाडु में एक बार फिर से हिंदी को लेकर विरोध शुरू हो गया है. तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में हिंदी के खिलाफ एक प्रस्ताव पास किया है. ये प्रस्ताव राजभाषा समिति की उन सिफारिशों के खिलाफ किया गया है, जिसमें समिति ने हिंदी का इस्तेमाल करने और अंग्रेजी को हटाने की सिफारिश की थी.

तमिलनाडु में 1965 में हिंदी के खिलाफ प्रदर्शन. (फाइल फोटो) तमिलनाडु में 1965 में हिंदी के खिलाफ प्रदर्शन. (फाइल फोटो)
Priyank Dwivedi
  • नई दिल्ली,
  • 19 अक्टूबर 2022,
  • अपडेटेड 6:25 PM IST

हिंदी भाषा को लेकर विवाद जारी है. अब ये विवाद और बढ़ने के आसार हैं. वजह है तमिलनाडु की विधानसभा का एक प्रस्ताव. ये प्रस्ताव मंगलवार को मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पास किया. ये प्रस्ताव राज्य में हिंदी भाषा को लागू करने के खिलाफ है.

इस प्रस्ताव को विधानसभा में पेश करते हुए सीएम स्टालिन ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति को 9 सितंबर को कमेटी ने जो सिफारिश दी थी, वो न सिर्फ तमिल सहित राज्य की दूसरी भाषाओं के खिलाफ है, बल्कि उन भाषाओं को बोलने वालों के खिलाफ भी है.

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मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा कि बीजेपी अंग्रेजी को प्रशासन से पूरी तरह हटाना चाहती है. उनका दिल तो सिर्फ हिंदी के लिए धड़कता है. प्रतियोगी परीक्षाओं से अंग्रेजी भाषा को हटाकर गैर-हिंदी भाषियों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जा रही है. उन्होंने कहा कि हमारा प्रदेश ड्युअल लैंग्वेज पॉलिसी (अंग्रेजी और तमिल) पर चल रहा है. स्टालिन ने ये भी आरोप लगाया कि बीजेपी गैर-हिंदी भाषियों को अलग-थलग कर रही है.

प्रस्ताव लाया क्यों गया?

इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. संसदीय राजभाषा समिति ने 9 सितंबर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक रिपोर्ट सौंपी. गृह मंत्री अमित शाह इस समिति के अध्यक्ष हैं.

इस समिति ने प्रशासनिक और शैक्षणिक कामकाज में हिंदी भाषा के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए कई सिफारिशें कीं. 

समिति ने सिफारिश की कि मंत्रालयों और विभागों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी काम करना अनिवार्य हो. पाठ्यक्रम हिंदी भाषा में भी तैयार हो. उच्च शिक्षा में भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में पढ़ाई हो.

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इसी तरह समिति ने केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए आयोजित परीक्षाओं में हिंदी का इस्तेमाल करने और अंग्रेजी को हटाने की सिफारिश की थी.

संसदीय समिति की कई सारी सिफारिशों को राष्ट्रपति मुर्मू ने मान लिया है. तो कुछ सिफारिशों पर विचार हो रहा है. तो वहीं कुछ सिफारिशों को लागू करने का जिम्मा राजभाषा विभाग को ही दिया गया है.

कहां-कहां हुआ विरोध?

राजभाषा संसदीय समिति की सिफारिशें सामने आते ही तमिलनाडु और केरल में इसका विरोध शुरू हो गया है. दोनों ही राज्यों ने इसे गैर-हिंदी भाषाई लोगों के अपमान से जोड़ा.

केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने कहा कि सरकार को संविधान की सातवीं अनुसूची में बताईं गईं सभी 22 भाषाओं के बराबर बर्ताव करना चाहिए.

तमिलनाडु के सीएम स्टालिन ने भी कहा कि जैसे हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाया जा रहा है, क्या सरकार वैसे सभी 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए तैयार है?

तमिलनाडु सरकार का प्रस्ताव क्या है?

तमिलनाडु सरकार ने मंगलवार को हिंदी भाषा के खिलाफ प्रस्ताव पास किया. इस प्रस्ताव के जरिए संसदीय समिति की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों को लागू नहीं करने का केंद्र सरकार से अनुरोध किया.

इस प्रस्ताव को पास करते हुए सीएम स्टालिन ने कहा कि ये सिफारिशें तमिल सहित राज्य भाषाओं के खिलाफ है और इन्हें बोलने वाले लोगों के हितों के खिलाफ है.

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प्रस्ताव में कहा गया है कि कि संसदीय समिति ने जो सिफारिशें की हैं, वो दो भाषा नीति के खिलाफ है जिसे पूर्व सीएम पेरारिग्नार अन्ना ने लागू किया था. इसके अलावा ये सिफारिशें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की ओर से गैर-हिंदी भाषा राज्यों से किए गए वादों के उलट है.

प्रस्ताव में ये भी कहा गया है कि ये सिफारिशें आधिकारिक भाषा पर 1968 और 1976 में पारित प्रस्तावों के जरिए आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल करने के खिलाफ भी हैं.

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध क्यों?

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध नया नहीं है. राज्य में हिंदी को लेकर विरोध पहली बार आजादी से पहले अगस्त 1937 में हुआ था. तब सी. राजागोपालाचारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला लिया था. 

राजागोपालाचारी के इस फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया था. ये आंदोलन लगभग तीन साल तक चला था.

इसके बाद दूसरे विश्व युद्ध में भारत को भी शामिल करने के ब्रिटिश सरकार के फैसले के खिलाफ राजागोपालाचारी ने इस्तीफा दे दिया था. बाद में सरकार ने हिंदी को अनिवार्य बनाने वाले फैसले को वापस ले लिया था.

आजादी के बाद 1950 में सरकार ने एक और फैसला लिया. ये फैसला स्कूलों में हिंदी को वापस लाने और 15 साल बाद अंग्रेजी को खत्म करने का था. इससे एक बार फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हो गया. हालांकि, बाद में एक समझौते के तहत हिंदी को वैकल्पिक विषय बनाने का फैसला कर विरोध को शांत कराया गया.

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हिंदी का विरोध बढ़ता ही जा रहा था. इस बीच 1959 में उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद में भरोसा दिलाया कि गैर-हिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी का इस्तेमाल करना जारी रख सकेंगे. नेहरू के आश्वासन के बाद विरोध तो थम गया, लेकिन 1963 में राजभाषा अधिनियम आने के बाद विरोध फिर होने लगा.

केंद्र के दो मंत्रियों ने भी दे दिया था इस्तीफा

जनवरी 1965 में केंद्र सरकार ने एक फैसला लिया. ये फैसला हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने का था. इससे तमिलनाडु में विरोध की ऐसी आग भड़की कि लोगों ने हिंदी बोर्डों को आग लगा दी. तमिलनाडु के सीएम एम. अन्नादुरई ने 25 जनवरी 1965 को 'शोक दिवस' के तौर पर मनाने का ऐलान किया. 

तमिलनाडु के विरोध का असर केंद्र की राजनीति पर दिखा. तब लाल बहादुर शास्त्री की सरकार के दो मंत्री सी. सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने इस्तीफा दे दिया. उसके बाद केंद्र सरकार ने प्रतियोगी और सिविल परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा जारी रखने का फैसला लिया.

1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजभाषा अधिनियम में संशोधन किया. इस संशोधन से 1959 में जवाहर लाल नेहरू की ओर से दिए गए आश्वासन को और मजबूती मिली. 

 

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