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तमिलनाडु या तमिझगम? दक्षिण के इस राज्य में क्यों आया सियासी तूफान

तमिलनाडु के नाम को लेकर राज्य में सियासी तूफान खड़ा हो गया है. लेकिन इस सियासी तूफान के पीछे एक पुरानी कहानी है जो आजादी से पहले शुरू हुई थी. वो कहानी तमिलनाडु नाम को लेकर ही है. तब की है जब मद्रास को तमिलनाडु बनाने को लेकर आंदोलन चल रहा था.

सीएम एमके स्टालिन और राज्यपाल आरएन रवि सीएम एमके स्टालिन और राज्यपाल आरएन रवि
aajtak.in
  • चेन्नई,
  • 10 जनवरी 2023,
  • अपडेटेड 7:15 PM IST

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने राज भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में तमिलनाडु को तमिझगम कहकर संबोधित किया था. तर्क दिया गया कि तमिलनाडु का मतलब 'देश' होता है और वे उस विचारधारा से आते हैं जहां वन नेशन वन लैंग्वेज को बढ़ावा दिया जाता है. अब राज्यपाल ने तो बयान दे दिया, अपने विचार रख दिए, लेकिन इस एक शब्द ने राज्य की सियासत में ऐसा उबाल लाया कि कई अप्रत्याशित घटनाएं एक साथ होती दिख गईं. 9 जनवरी को सदन के सेशन के दौरान राज्यपाल ने अपने भाषण में द्राविडियन आंदोलन के कई नेताओं के नामों का जिक्र नहीं किया, सरकार ने जो टैक्स्ट पढ़ने को दिया, उसमें बदलाव दिखे. नाराज सीएम स्टालिन ने राज्यपाल के खिलाफ ही एक प्रस्ताव पारित करवा दिया. राज्यपाल बीच कार्यवाही सदन छोड़कर चले गए.

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तमिलनाडु की राजनीति समझना जरूरी

अब ये तो सारा ऑफटर इफेक्ट है, यानी कि वो घटनाएं जों तमिझगम शब्द के इस्तेमाल के बाद देखी गईं. लेकिन असल में ये विवाद सैकड़ों साल पुराना है. उतना ही पुराना ये तमिलनाडु नाम भी है. इस एक नाम को लेकर जिस प्रकार का संघर्ष किया गया है, जिन लोगों ने आवाज बुलंद की है, वो सब जानना जरूरी हो जाता है. वो इतिहास ही ये बताने को काफी है कि आज क्यों इस एक मुद्दे पर डीएमके और एडीएमके साथ खड़ी नजर आती है. तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है, जो अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को लेकर काफी संवेदनशील रहा है. द्राविडियन विचारधारा ने ऐसा जोर पकड़ा है कि यहां के लोगों के लिए उनकी भाषा ही सबकुछ है. अब राज्यपाल आरएन रवि ने उसी विचारधारा को चोट पहुंचा दी है.

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राज्यपाल को तमिलनाडु से क्या दिक्कत?

राज्य की सरकार तो पहले से ही आरएन रवि को बीजेपी सपोर्टर के तौर पर देखती है. कई मौकों पर देखा गया है कि उनकी तरफ से सीएम एमके स्टालिन के द्राविडियन मॉडल की आलोचना की गई है. राज्यपाल मानते हैं कि इसी मॉडल की वजह से तमिलनाडु कई मामलों में पीछे छूट गया है, राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत नहीं हो पाई है. लेकिन उनके विरोधी इसका एक दो टूक जवाब भी तैयार रखते हैं. उनका कहना है कि कई ऐसे पहलू हैं जहां पर तमिलनाडु उत्तर भारत के कई दूसरे राज्यों से बेहतर परफॉर्म करता है. असल में तमिलनाडु में 'राइट विंग' वाली राजनीति को कभी वो तवज्जो नहीं दी गई जो स्वीकृति द्राविडियन आंदोलन को मिली. इसी वजह से बीजेपी का कमल कई राज्यों में तो खिल रहा है, लेकिन तमिलनाडु में उसे अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है.

तमिलनाडु में क्यों नहीं चलती बीजेपी वाली राजनीति?

इसका एक बड़ा कारण ये है कि पार्टी तमिल राष्ट्रवाद को सही तरीके से नहीं समझ पा रही है. यहां ये जानना जरूरी है कि तमिल राष्ट्रवाद वहां की सांस्कृति भाषा, संस्कृति से जुड़ा हुआ है, वहीं द्राविडियन सामाजिक सुधार, आत्मसम्मान, ब्राह्मण विरोधी विचारधारा को बढ़ावा देता है. इन दोनों के मिलान के बाद ही तमिलनाडु की राजनीति को सही तरह से समझा जा सकता है. अब क्योंकि इस विचारधारा को ही आरएन रवि ने गलत बता दिया है, इसलिए ये सियासी लड़ाई राज्यपाल बनाम राज्य से ज्यादा दो अलग-अलग विचारधाराओं की बन गई है. एक वो विचारधारा है जो सालों से तमिलनाडु पर राज कर रही है तो दूसरी वो है जो जमीन पर खुद की उपस्थिति दर्ज करवाने की कवायद में लगी हुई है.

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मद्रास से तमिलनाडु वाला सफर

अब जिस तमिलनाडु के नाम पर इस समय राज्यपाल आपत्ति जाहिर कर रहे हैं, उस नाम को अर्जित करने में भी कई साल लगे, कई आंदोलन लगे, कई नेताओं की कुर्बानी लगी. 1950 से ही लगातार मांग उठने लगी थी कि मद्रास की जगह राज्य का नाम तमिलनाडु किया जाए. आजाद भारत में मद्रास के अंदर ही आंध्र प्रदेश, केरल भी आते थे. लेकिन जब बाद में केरल, आंध्र प्रदेश अलग राज्य बने, तमिलनाडु वाली मुहिम ने भी तेजी पकड़ी. सामाजिक नेता पेरियार ने तो 1930 में ही अपनी रचनाओं में तमिलनाडु का जिक्र करना शुरू कर दिया था. यानी कि तब भी इस शब्द के अपने मायने थे. लेकिन तमिलनाडु को लेकर आंदोलन 1956 में ज्यादा तेज हुआ जब कांग्रेस नेता K.P. Sankaralinganar अनशन पर चले गए. वे चाहते थे कि मद्रास का नाम बदल तमिलनाडु किया जाए. उनकी मांग तो पूरी नहीं हुई, लेकिन उससे पहले उनका निधन हो गया.

अन्नादुरई ने बताया था तमिलनाडु का मतलब

इसके बाद कांग्रेस सरकार के सामने इसे लेकर एक प्रस्ताव आया था. लेकिन तब मात्र 42 वोट ही समर्थन में पड़े और तमिलनाडु का सपना पूरा नहीं हो सका. ये साल 1961 था जब तमिलनाडु में कांग्रेस की ही सरकार थी. उस समय डीएमके नेता सीएन अन्नादुरई भी सक्रिय हो चुके थे. दक्षिण भारत के इस राज्य में उनकी सियासी पिच धीरे-धीरे मजबूत हो रही थी. उनके तर्क धारधार होते जा रहे थे. सदन में एक बार कार्यवाही के दौरान उन्होंने तमिलनाडु का महत्व बताते हुए कहा था कि पार्लियामेंट को भी लोकसभा किया गया था. ये समझना जरूरी है कि तमिलनाडु का तमिल लोगों के साथ भावनात्मक रिश्ता है. एक नाम बदल जाने से सदन के सदस्यों को क्या तकलीफ हो सकती है. 

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1967 में मद्रास बन गया तमिलनाडु

अब 1961 में जिस नाम बदलने वाले बिल को खारिज कर दिया गया था, इतिहास ने 1967 में फिर खुद को दोहराया. तब राज्य के मुख्यमंत्री अन्नादुरई बन चुके थे. उनकी विचारधारा पहले से स्पष्ट थी, संकल्प था कि राज्य को तोहफे के रूप में तमिलनाडु दिया जाए. उसी उदेश्य के साथ सदन में एक बार फिर नाम बदलने वाला बिल पेश किया गया. इस बार प्रस्ताव प्रचंड बहुमत के साथ पारित हुआ. जो कांग्रेस पहले इसका खुलकर विरोध कर रही थी, उसने भी स्वागत कर दिया. यानी कि मद्रास, अब तमिलनाडु बन चुका था और वहां पर एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत हुई थी. उस समय अन्नादुराई ने जोर देकर कहा था कि तमिलनाडु का मतलब अलग देश नहीं है, ये हमेशा ही भारत का अभिन्न अंग रहेगा.

तमिलनाडु और राज्यपालों की अपनी सियासत

अब जो तर्क अन्नादुराई ने इतने सालों पहले दिया था, उसी तर्क को चुनौती आज के राज्यपाल आरएन रवि दे रहे हैं. लेकिन ये कोई पहली बार नहीं है जब तमिलनाडु में राज्य सरकारों की राज्यपालों के साथ तकरार देखने को मिली हो. ये राज्य अपनी इन्हीं तकरारों के लिए जाना जाता है. जब जयललिता मुख्यमंत्री हुआ करती थीं, एक बार उन्होंने एक राज्यपाल पर बदसलूकी करने का आरोप लगा दिया था. इसी तरह एक दूसरे वाक्य में उन्होंने जब नए सदन का उद्घाटन किया, राज्यपाल को न्योता तक नहीं भेजा गया. ऐसे में राजनीति अपनी जगह है, लेकिन इतिहास भी अपनी ही जगह रखता है. तमिलनाडु शब्द से एक वर्ग को दिक्कत हो सकती है, लेकिन इसकी अपनी एक पुरानी कहानी है, एक भावनात्मक रिश्ता है जो शायद अभी खत्म नहीं होने वाला है.

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AR Meyyammai की रिपोर्ट


 

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