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आतंकियों पर भी हो रहा क्लाइमेट चेंज का असर, एक्सट्रीम मौसम से जूझते ये देश बने टैररिज्म का नया ठिकाना

मौसम में एक्सट्रीम बदलाव का असर आतंकवाद पर भी हो रहा है. एक स्टडी में पता लगा कि क्लाइमेट चेंज की वजह से जिस तरह बेहद तेज गर्मी या ठंड पड़ने लगी है, उसी के अनुसार टैररिस्ट अपने ठिकाने भी यहां से वहां कर रहे हैं. या उनकी गतिविधियां किसी खास जगह पर कम या ज्यादा हो रही हैं.

एक्सट्रीम मौसम आतंकवाद के पैटर्न पर भी असर डाल रहा है. (Photo- Pixabay) एक्सट्रीम मौसम आतंकवाद के पैटर्न पर भी असर डाल रहा है. (Photo- Pixabay)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 19 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 7:37 PM IST

जलवायु परिवर्तन अब केवल कंपीटिशन में लिखने या संयुक्त राष्ट्र के मंच पर बोलने का टॉपिक नहीं रहा. इसका असर हर घर पर हो रहा है. यहां तक कि आतंकवाद भी इससे बचा हुआ नहीं. ऑस्ट्रेलिया की रटगर्स यूनिवर्सिटी के एक शोध में माना गया कि मौसम के मिजाज में जिस तरह का बदलाव आ रहा है, वो भारत में आतंकवादी गतिविधियों की जगहों पर भी असर डाल रहा है. मतलब, वो पहले जिस राज्य में एक्टिव रहे हों, एक्सट्रीम मौसम में वे अपना हेडक्वार्टर बदल भी सकते हैं. या फिर उसका उल्टा भी हो सकता है. 

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ग्लोबल टैररिज्म में ये पैटर्न दिखता है. जैसे दुनिया के वे देश आतंक का नया एपिसेंटर बन चुके हैं, जहां हालात काफी विपरीत हों. एक्सट्रीम मौसम वाले इन देशों में नौकरियां कम हैं, साथ ही खेती-किसानी भी मुश्किल हैं. इसका फायदा आतंकी लेते और युवाओं को बरगलाते हैं. 

क्या कहती है स्टडी

जर्नल ऑफ एप्लाइड सिक्योरिटी रिसर्च में अध्ययन- मॉनसून मॉरौडर्स एंड समर वायलेंस नाम से प्रकाशित हुआ. इसमें दावा किया गया कि क्लाइमेट से जुड़े फैक्टर, जैसे तापमान, बारिश और ऊंचाई देश में आतंकवादी एक्टिविटीज पर असर डालते हैं. शोधकर्ताओं ने साल 1998 से 2017 के बीच जितनी आतंकी घटनाएं हुईं, उन सबको ट्रैक करते हुए पैटर्न को देखा. 

इसमें पाया गया कि अच्छे मौसम वाली जगहों पर आबादी तेजी से बढ़ी. हालांकि आतंकवादी उन जगहों पर पनाह लेते रहे, जहां आबादी कम हो. लेकिन वहां का तापमान एक्सट्रीम होने पर वे दूसरे इलाकों की तरफ रुख कर रहे हैं. 

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लगभग 20 सालों के दौरान देश के किन-किन इलाकों में कितनी आतंकी गतिविधियां हुईं, इसे देखने पर पता लगता है कि उत्तर और पूर्वी इलाकों में बार-बार टैररिस्ट एक्टिविटीज होती रहीं. टैररिज्म का ये आंकड़ा ग्लोबल टैररिज्म डेटाबेस से लिया गया था. इन दो दशकों में लगभग 9,096 घटनाएं दर्ज हुईं. ये छोटी-बड़ी दोनों तरह की थीं. शोध के अनुसार, इस अवधि के दौरान भारत का औसत तापमान भी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया. 

किन राज्यों में हिंसा ज्यादा

उत्तर और पूर्वी इलाकें आतंकवाद का हॉटस्पॉट रहे. इसमें जम्मू और कश्मीर, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, और केरल शामिल हैं.

ऐसे बदलता है पैटर्न

शोध के मुताबिक, जैसे-जैसे क्लाइमेट एक्सट्रीम हो रहा है, आतंकवादी अपने प्रशिक्षण या दूसरी गतिविधियों के ठिकाने भी बदल रहे हैं. जैसे ठंड के मौसम में ज्यादा सर्दी पड़ने वाले राज्यों को छोड़कर आतंकी मॉडरेट तापमान वाले इलाकों की तरफ आ जाते हैं. या फिर बारिश में ऐसी जगहों पर गतिविधियां कम हो जाती हैं जो पहाड़ी इलाके हों. ऐसे में महीना-दर-महीना मौसम के साथ टैररिस्ट गतिविधियां भी अलग-अलग जगहों पर दिखती हैं. 

रिसर्च में माना गया कि क्लाइमेट चेंज से टैररिज्म का ये संबंध सरकारों को यह तय करने में मदद कर सकता है कि नेशनल सिक्योरिटी में क्या नई रणनीति अपनाई जाए. 

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इन देशों में टैरर का एपिसेंटर

यूनाइटेड नेशन्स ने भी साल 2021 में ही माना था कि क्लाइमेट चेंज से जूझते लोगों और देश पर आतंकवाद का डर सबसे ज्यादा रहता है. यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने उन 15 देशों का जिक्र किया, जो ग्लोबल वार्मिंग से बुरी तरह प्रभावित हैं. यहां लगातार आतंकवादी गतिविधियों का संचालन दिख रहा है. जैसे इराक और सीरिया पानी की कमी से प्रभावित हैं. इसका असर लोगों के रुटीन पर ही नहीं होता, बल्कि नौकरियों और लाइफस्टाइल पर भी होता है. बेरोजगारी बढ़ जाती है. इसका फायदा टैररिस्ट उठाते हैं. वे युवाओं को मिलिटेंट्स की तरह रिक्रूट करने लगते हैं. 

यूएन के अनुसार, सहेल पट्टी फिलहाल टैररिज्म का केंद्र हो चुका है. अटलांटिक महासागर से लेकर लाल सागर तक फैला ये एरिया बीते कुछ सालों में बहुत तेजी से आतंकियों को अपनी ओर खींचने लगा. सहेल में सेनेगल, गाम्बिया, मॉरिटानिया, गिनी, माली, बुर्किना फासो, नाइजर, चड, कैमरून और नाइजीरिया शामिल हैं. 

ग्लोबल टैररिज्म इंडेक्स का डेटा यह साफ कर देता है. साल 2007 में इन देशों में आतंक की वजह से 7 प्रतिशत मौतें हुईं, जबकि अगले 15 ही सालों के भीतर ये बढ़कर 43 प्रतिशत हो गई. खासकर बुर्किना फासो, नाइजर और माली में सबसे ज्यादा चरमपंथी संगठन तैयार हो रहे हैं. 

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सहेल पट्टी में ग्लोबल वार्मिंग का असर दुनिया के बाकी हिस्सों से काफी ज्यादा

रेगिस्तानी इलाके ज्यादा होने की वजह से यहां के लोग पूरी तरह से रेनफॉल पर निर्भर हैं. अगर बारिश कम हो तो इसका सीधा असर खेती पर होता है. सहेल के पास पैसों की कमी के चलते आर्टिफिशियल साधन भी कम हैं कि वो कुदरती अभाव को पाट सके. सूखाग्रस्त इन देशों की युवा आबादी 60 प्रतिशत के करीब है, जो चरमपंथियों की तरफ आकर्षित हो चुकी. 

आतंकवाद से क्लाइमेंट चेंज के कनेक्शन को देखते हुए यूएन के कई देश इसपर ओपन डिस्कशन की भी मांग कर चुके. 

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