
वाइट हाउस आने से पहले ही डोनाल्ड ट्रंप कई विवादित बयान दे रहे हैं. पहले उन्होंने पनामा नहर पर अमेरिकी हक की बात की. अब वे एक पूरे के पूरे देश ग्रीनलैंड पर नजर गड़ाए हुए हैं. वे पहले राष्ट्रपति नहीं, जो ऐसा चाहते हैं. उनसे पहले भी कई अमेरिकी नेता यही मंशा जाहिर कर चुके थे लेकिन किसी को सफलता नहीं मिली. लगभग 80 फीसदी बर्फ से ढंका ये द्वीप सुपरपावर के लिए क्यों इतना महत्व रखता है? अमेरिका इसे खरीदना चाहता है, लेकिन आखिरी बार उसने कब कोई लैंड खरीदा था? ग्रीनलैंड खरीदने के लिए अब तक उस समेत और किन देशों ने जोर लगाया?
कहां है ये देश और क्या है राजनैतिक स्थिति
आर्कटिक और नॉर्थ अटलांटिक महासागरों के बीच बसे इस द्वीप की खोज 10वीं सदी में हुई थी, जिसके बाद यहां यूरोपीय कॉलोनी बसाने की कोशिश की गई, लेकिन वहां के हालात इतने मुश्किल थे कि कब्जा छोड़ दिया गया. बाद में लगभग 14वीं सदी के आसपास यहां डेनमार्क और नॉर्वे का एक संघ बना, जो इसपर संयुक्त रूप से राज करने लगा.
कौन रहता है ग्रीनलैंड में
विस्तार के मामले में दुनिया के 12वें सबसे बड़े देश की आबादी लगभग 60 हजार है. इनमें स्थानीय आबादी को इनूएट कहते हैं, जो डेनिश भाषा ही बोलते हैं, लेकिन इनका कल्चर डेनमार्क से अलग है. बर्फ और चट्टानों से भरे इस देश में आय का खास जरिया नहीं, सिवाय सैलानियों के. इनूएट दुकानदार लोकल केक, बर्फीली मछलियां और रेंडियर की सींग से बने शो-पीस बेचकर पैसे कमाते हैं. मंगोलों से ताल्लुक रखती ये जनजाति एस्किमो भी कहलाती है, जो बेहद ठंडे मौसम में कच्चा मांस खाकर भी जी पाती है.
19वीं सदी में इसपर डेनमार्क का कंट्रोल हो गया. अब भी ये व्यवस्था कुछ हद तक ऐसी ही है. ग्रीनलैंड फिलहाल एक स्वायत्त देश है, जो डेनमार्क के अधीन आता है. वहां अपनी सरकार तो है लेकिन बड़े मुद्दे, फॉरेन पॉलिसी जैसी बातों को डेनिश सरकार देखती है.
अमेरिका क्यों चाहता है कब्जा
शीत युद्ध के दौरान इसका रणनीतिक महत्व एकदम से उभरकर सामने आया. अमेरिका ने तब यहां अपना एयर बेस बना लिया ताकि पड़ोसियों पर नजर रखने में आसानी हो. बता दें कि ग्रीनलैंड जहां बसा है, वहां से यूएस रूस, चीन और यहां तक कि उत्तर कोरिया से आ रही किसी भी मिसाइल एक्टिविटी पर न केवल नजर रख सकता है, बल्कि उसे रोक भी सकता है. इसी तरह से वो यहां से एशिया या यूरोप में मिसाइलें भेज भी सकता है.
दूसरी वजह ये है कि ग्रीनलैंड मिनरल-रिच देश है
ग्लोबल वार्मिंग के कारण जैसे-जैसे आर्कटिक की बर्फ पिघलती जा रही है, वैसे-वैसे यहां के खनिज और एनर्जी रिसोर्स की माइनिंग भी बढ़ रही है. यहां वे सारे खनिज हैं, जो मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ हथियारों में इस्तेमाल होते हैं. फिलहाल चीन इन मिनरल्स का बड़ा सप्लायर है. अमेरिका इस कतार में आगे रहना चाहता है.
नए जलमार्ग बन सकते हैं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते वैसे तो दुनिया में हजारों दिक्कतें खड़ी हो रही हैं, लेकिन दूसरी तरफ इसके कई फायदे भी दिख रहे हैं. जैसे ग्रीनलैंड के आसपास बर्फ पिघलने से आर्कटिक में पानी के नए रास्ते बन सकते हैं. यही वजह है कि अमेरिका ही क्या, दुनिया के तमाम महत्वाकांक्षी देश यहां आने की होड़ में हैं. चीन ने भी यहां कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू करने चाहे, लेकिन अमेरिका ने डेनमार्क को इससे दूर कर दिया. अब चीन खनन की बजाए वहां फिशिंग के काम में जुटा हुआ है.
पहले भी अमेरिका कर चुका ग्रीनलैंड पर कब्जे की कोशिश
पिछले टर्म में ट्रंप ने ग्रीनलैंड को खरीदना चाहा और इसे लार्ज रियल एस्टेट डील तक कह दिया. लेकिन डेनिश सरकार इसपर नाराज हो गई. यहां तक कि ट्रंप को अपनी प्लान्ड यात्रा रोकनी पड़ गई.
उनसे पहले साल 1946 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने डेनमार्क को ग्रीनलैंड बेचने के लिए सौ मिलियन डॉलर ऑफर किए थे. यहां तक कि इसके लिए वे अलास्का राज्य का कुछ हिस्सा भी देने को राजी थे लेकिन बात नहीं बनी.
अमेरिकी की आखिरी बड़ी लैंड डील कौन सी
इसका सबसे बड़ा उदाहरण अलास्का की खरीदी थी. यूएस के तत्कालीन राष्ट्रपति ने साल 1867 में डील की थी. इस खरीद-फरोख्त को नाम मिला- ट्रीटी ऑफ सेशन. रूस को इसके बदले में 7.2 मिलियन डॉलर की वैल्यू जितना गोल्ड मिला, जो उस समय उसके लिए जरूरी था. जमीन का आकार यूरोप का एक तिहाई है. इस लिहाज से देखें तो यहां का एक एकड़ 50 पैसे की कीमत पर खरीदा गया. बाद में यहां गोल्ड और पेट्रोलियम की खदानें मिलीं, जिससे अमेरिका और अमीर होता चला गया.
क्या जरूरत पड़ने पर देश अपनी जमीन बेच सकते हैं?
इसकी कोई मनाही नहीं है. अगर कोई देश कर्ज में भारी डूबा हुआ है तो वो ऐसा कर सकता है, अगर अच्छा खरीदार मिले. हालांकि इसमें काफी सारे तकनीकी पेच हैं. जमीन के एक हिस्से को बेचना, यानी उस जगह की आबादी को भी दूसरे देश के हाथ सौंप देना. ये ह्यूमन राइट्स का हनन है. स्थानीय लोग इससे भारी भड़क जाएंगे और तख्तापलट जैसे हालात भी बन सकते हैं.
फॉरेन पॉलिसी भी बनती है रोड़ा
कई बार बेचने वाला और खरीदार राजी हों तो पड़ोसी देश अड़ंगा लगा सकते हैं क्योंकि इससे उनकी फॉरेन पॉलिसी पर असर पड़ेगा. भौगोलिक दृष्टि से भी अब हर देश का अलग महत्व है. अपने ही हिस्से को दूसरे देश को बेचना यानी पूरे देश को असुरक्षित कर देना. ऐसी कई बातें हैं, जिनके चलते देश जमीनें बेच नहीं सकते. इसकी बजाए लीज पर देते हैं. या इंटरनेशनल संस्थाओं से कर्ज लेते हैं.