
रूस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. हाल ही में उसने अपनी ही प्राइवेट आर्मी की बगावत देखी. यहां तक कि पुतिन का आसन तक हिलता दिखने लगा था. यूक्रेन लगभग डेढ़ सालों बाद भी अपनी जगह जमा हुआ है. इस बीच सीरिया भी ने सिर उठाना शुरू कर दिया. करीब एक सप्ताह पहले इस देश के बागियों ने रूस पर ड्रोन अटैक किया था. सीरियाई लोगों में रूस के खिलाफ गुस्सा है, जिसकी वजह है पुतिन की आर्मी, जो उनके यहां सालों से जमी हुई है.
सबसे पहले ताजा मामला देखते चलें
इसी रविवार को रूस ने उत्तर पश्चिमी सीरिया के विद्रोहियों के कब्जे वाले इलाके में एयर स्ट्राइक की. हमले में 10 से ज्यादा मौतें हुईं, जबकि बहुत से लोग घायल हो गए. सीरिया में बगावत करने वालों ने हमले को नरसंहार माना, जबकि वहां की सरकार ने इसपर कोई ऑफिशियल बयान नहीं दिया. रूस सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद का सपोर्ट करता है और उन्हें तख्तापलट से बचाने के लिए सालों से वहां सेना जमा कर रखी है.
कैसे शुरू हुआ सीरिया में वॉर
साल 2011 की शुरुआत थी, जब सीरिया में गृहयुद्ध छिड़ गया. यहां के लोग मौजूदा सत्ता से चिढ़े हुए थे. देश में भारी महंगाई और करप्शन था. वे चाहते थे कि सत्ता पलटे और उनकी पसंद की सरकार बने. राष्ट्रपति बशर असद से पहले पद छोड़ने की मांग हुई और फिर मामला सड़कों तक आ गया. असद को ये असहमति पसंद नहीं आई और उन्होंने लोगों को दबाना शुरू कर दिया. यहीं से प्रदर्शन हिंसा में बदला और देश सिविल वॉर की चपेट में आ गया.
शक्तिशाली मुल्क बीच में कूद पड़े
मामला यहीं तक रहता तो भी शायद ठीक था. लेकिन जैसा कि दस्तूर है, ये मौका ताकतवर देशों के लिए अपनी जोर-आजमाइश का था. वे भी लड़ाई में कूद पड़े. कोई इस, तो कोई उस पाले का सपोर्ट करने लगा. अमेरिका यहां था इसलिए जाहिर है कि रूस भी होगा. सितंबर 2015 में रशियन फेडरेशन ने फॉर्मल तरीके से सीरियाई वॉर में दखल दिया और असद का समर्थन करने लगा. दूसरे देश हथियारों और पैसों से मदद कर रहे थे, जबकि रूस ने सीधे अपनी सेना ही वहां तैनात कर दी.
क्यों जरूरी है रूस के लिए सीरिया
बात सिर्फ ताकत दिखाने की नहीं थी. असद का तख्तापलट रूस के लिए एक और दोस्त खोने जैसा है. रूस पहले से ही अमेरिका और यूरोप की पाबंदियां झेल रहा है. बहुत थोड़े से मुल्क उसके मित्र हैं. ये वे देश हैं, जो अमेरिका के, या अमेरिका जिनके खिलाफ रहा. सीरियाई राष्ट्रपति के साथ भी यही मामला है. अमेरिकी सरकार उसे गिराना चाहती है ताकि रूस और कमजोर हो जाए. इधर रूस इस सत्ता को पलटने से बचाने के लिए सालों से पूरा जोर लगाए हुए है.
रूस ने अपनी सेना भेजने के लिए पीछे दलील दी कि वो आतंकी ताकतों को खत्म करके अपने दोस्त देश को राहत देना चाहता है. रशियन सेना के साथ-साथ सीरियाई सरकार भी विद्रोहियों को कुचलने लगी. यहां तक कि बहुत से हिस्सों में विद्रोह को दबा दिया गया.
रूस को इससे क्या फायदा हुआ
रशियन आर्मी ने जिस तरह से पूरे मामले को संभाला, उससे मिडिल ईस्ट के कई देश प्रभावित हो गए. वे मानने लगे कि मॉस्को से उन्हें अपने रिश्ते बहुत बढ़िया नहीं, तो ठीक-ठाक जरूर रखने चाहिए ताकि मौका-बेमौका मदद मिल सके. सऊदी अरब, कतर, इजिप्ट के साथ-साथ इजरायल ने भी क्रेमलिन में आनाजाना शुरू किया. रूस के लिए ये बदलाव वेलकमिंग था, लेकिन अमेरिका के लिए खतरे की घंटी.
देखादेखी अमेरिका ने भी बढ़ाया दखल
मिडिल ईस्ट जैसी ताकतवर जगह पर अगर रूस का डंका बजने लगे तो अमेरिका पर भारी असर हो सकता है. यही देखते हुए पहले सीरियाई सिविल वॉर को हल्के में ले रहे अमेरिका ने वहां अपना दखल बढ़ा दिया. अमेरिकी मिलिट्री उत्तरी सीरिया में बढ़ने लगी. ये रिसोर्स से भरपूर हिस्सा है, जिसपर कब्जा काफी अहम बात रही.
इधर असद को अपनी सत्ता बचाने से मतलब है. उन्होंने जब देखा कि रूस का कंट्रोल कमजोर और अमेरिका का ज्यादा है तो वे रूस से बचने लगे. ऐसा सीधे-सीधे तो नहीं हुआ, लेकिन पहले बात-बात पर मॉस्को का हवाला देते इस सीरियाई राष्ट्रपति ने राजधानी दमिश्क की बागडोर खुद संभाल ली. इधर रूस भी फायदा कम और नुकसान ज्यादा देखते हुए धीरे-धीरे सीरिया से अपनी सेना घटा रहा है.
रूस कितने फायदे या नुकसान में है
पहले 6 महीनों में रूस ने सीरिया पर साढ़े 4 सौ मिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च किए. बाद में वो सीरिया से इसकी वसूली करने लगा. युद्ध की आग में जलते इस देश को वो हथियारों की सप्लाई करने लगा. साथ ही दमिश्क के बहुत से तेल और गैस खदानों पर उसका कब्जा हो गया. हालांकि ये फायदा उतना नहीं है, जितना अमेरिका को ईराक से हुआ, जब उसने शांति के नाम पर अपनी सेना वहां भेजी.
सीरियाई आबादी को नहीं चाहिए रूसी सेना
अब रूस वहां से अपनी सेना हटाने को बेताब है. क्रेमलिन ने कई बार ये इशारा दिया कि सीरिया को अब उसकी जरूरत नहीं और वो अपनी आर्मी वापस बुला लेगा. साल 2016 और 17 के दौरान पुतिन ने खुद ऐसा एलान किया, लेकिन सेनाएं अब भी इस देश में हैं. यहां तक कि सीरिया की जनता भी अपने यहां तनाव के लिए रूस की सेना को जिम्मेदार मानने लगी है.
रशियन सोशियोलॉजिकल रिसर्च संस्थान लवादा सेंटर ने कोरोना से पहले दमिश्क में एक सर्वे कराया. इसमें 55 प्रतिशत सीरियाई आबादी ने माना कि रूस को अब उनके देश से हट जाना चाहिए.