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क्यों आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की मांग होती रही है, क्या बदलेगा इससे?

चुनाव आने के साथ-साथ पुराने मुद्दे एक बार फिर गरमा रहे हैं. इसी में एक ये विवाद भी है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं, और उनके लिए नया धर्म कोड लागू होना चाहिए. कई राज्यों के आदिवासी लीडर लंबे समय से सरना धर्म कोड की मांग करते रहे. तो क्या हिंदू देवी-देवताओं को पूजने वाले आदिवासी वाकई अलग हैं? जानिए, क्या है पूरा विवाद.

5 राज्यों के आदिवासी जनगणना में अलग से धर्म कोड की मांग करते रहे हैं. सांकेतिक फोटो (Pixabay) 5 राज्यों के आदिवासी जनगणना में अलग से धर्म कोड की मांग करते रहे हैं. सांकेतिक फोटो (Pixabay)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 16 नवंबर 2023,
  • अपडेटेड 11:52 AM IST

आदिवासी का मतलब है, जो आदिकाल से या पुराने समय से किसी जगह का रहने वाला हो. इसका ताल्लुक धर्म से नहीं, बल्कि मूल निवासी होने से है. हालांकि काफी समय से आदिवासियों को अलग-अलग धर्म में बांटा जाता रहा. अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हिंदू पूजा पद्धति को मानने वाले आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया. बहुत से आदिवासी मुस्लिम हो गए. लेकिन इसके बाद भी चर्चा होती रही कि उनका मूल धर्म सरना है, और उसे मान्यता मिलनी चाहिए. 

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पांच राज्यों के लोग सरना धर्म की अलग कैटेगरी की मांग कर रहे हैं- झारखंड, उड़ीसा, असम, बंगाल और बिहार. 

कैसे अलग हैं बाकी धर्मों से

सरना वे लोग हैं, जो प्रकृति, जैसे पहाड़ों, नदी, चांद, सूरज. पशुओं और जंगलों की पूजा करते हैं. उनके त्योहारों का अलग कैलेंडर होता है. वे मूर्ति पूजा भी कम करते हैं. उनमें जन्म-मृत्यु, शादी-ब्याह जैसे मौकों पर अलग रस्में होती हैं. मृत्यु के बाद पिंड दान करने की बजाए बहुत से आदिवासी मृतक को अपने ही घर के पास दफना देते हैं. लेकिन ऐसे बहुत कम लोग बाकी हैं. ज्यादातर आबादी किसी न किसी धर्म को अपना चुकी और उसकी परंपराएं फॉलो करने लगी है. 

हिंदुओं से क्या समानता है

वे सदियों से शिवलिंग की पूजा करते हैं. शिव और भैरव इनके मुख्य देवता हैं. शिव को आदिदेव कहा जाता है. माना जाता है कि इन्हीं के नाम पर आदिवासियों का भी नाम पड़ा होगा. शिव और भैरव की पूजा हिंदुओं में भी होती है. इसके अलावा कई पर्व-त्योहारों पर दोनों में ही प्रकृति पूजन भी होता है. 

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क्या है देश के संविधान में

संविधान में अनुसूचित जनजातियों यानी आदिवासियों को हिंदू माना जाता है. लेकिन बहुत से कानून ऐसे हैं, जो इन पर लागू नहीं होते. हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 2(2) और हिन्दू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम 1956 की धारा 3(2) अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होती. इसकी वजह ये है कि सैकड़ों जनजातियों और उप-जनजातियों के शादी, तलाक और उत्तराधिकार को लेकर अलग रीति-रिवाज हैं.

फिर ये सरना धर्म कोड क्या है

जनगणना के दौरान हर धर्म का अलग कोड होता है. ऐसे ही झारखंड समेत 4 और राज्यों के आदिवासी सरना कोड की डिमांड कर रहे हैं. अगर सेंटर इसे अप्रूवल दे दे तो सरना भी एक अलग धर्म हो जाएगा, जैसे हिंदू, मुस्लिम या बाकी धर्म होते हैं. 

क्यों बताई जा रही है जरूरत

आजाद भारत में जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा. और जनगणना में 'अन्य' नाम से धर्म की कैटेगरी बना दी गई. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अनुसूचित जनजातियों की आबादी करीब साढ़े 10 करोड़ है. सेंसस के दौरान 79 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे, जिन्होंने धर्म के कॉलम में 'अन्य' भरा था, लेकिन साढ़े 49 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे जिन्होंने खुद को 'सरना' लिखा था. इनमें से 40 लाख से ज्यादा लोग झारखंड से थे.

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सरना कोड की मांग करने वालों का तर्क है कि जब 45 लाख की आबादी वाले जैन धर्म के लिए अलग कोड है, तो फिर उससे ज्यादा संख्या वालों के लिए सरना कोड लागू होना ही चाहिए. वहीं सरना धर्म कोड की मांग में तकरीबन एक-एक करोड़ की आबादी वाले गोंड और भील आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि वे खुद को अलग मानते हैं.

कहां- कहां मिली मंजूरी

नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल्ड ट्राइब्स (NCST) ने भी सरना धर्म को अलग श्रेणी देने की बात की. झारखंड विधानसभा में इस प्रस्ताव को पहले ही मंजूरी मिल चुकी है. अब केवल केंद्र की सहमति का इंतजार है. वहीं बहुत से लोग इसका विरोध कर रहे हैं. यहां तक कि बहुत से आदिवासी भी खुद को हिंदू धर्म के करीब पाते हैं. ऐसे में नया धर्म बनना उन्हें दो-फांक कर सकता है. 

क्या है सेंटर का रवैया

झारखंड समेत 4 राज्यों के आदिवासियों को जनगणना में अलग से धर्म कोड देने की बात पर सेंटर कोई सीधा रुख नहीं दिखा रहा. माना जा रहा है कि अलग धर्म कोड बनाना प्रैक्टिकल नहीं. इससे पूरे देश में सभी लोग अलग-अलग धर्म कोड मांगने लगेंगे और अस्थिरता आ सकती है. वहीं अलग से धर्म दिखने पर धर्मांतरण पर जोर देने वाली संस्थाओं के लिए उनपर फोकस करना आसान हो सकता है. 

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