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मस्जिदों पर मेड-इन-चाइना की छाप और मुस्लिमों पर ड्रैगन का दबाव... चीन में क्यों मचा बवाल?

चीन में मस्जिदों से गुबंद और मीनारें हटाई जा रही हैं, जबकि कई शहरों में इन्हें पूरी तरह से गिरा दिया गया. एक डेटा के मुताबिक, कुछ ही सालों के भीतर चीन में 16 हजार मस्जिदों के स्ट्रक्चर से छेड़छाड़ हुई. मौजूदा सरकार का मानना है कि देश की हर चीज पर चाइनीज-स्टाइल की छाप होनी चाहिए. इसे सिनिसाइजेशन कहते हैं यानी चीनीकरण करना.

चीन छाप वाली मस्जिदें अलग तरह की होती हैं. सांकेतिक फोटो (unsplash) चीन छाप वाली मस्जिदें अलग तरह की होती हैं. सांकेतिक फोटो (unsplash)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 02 जून 2023,
  • अपडेटेड 3:04 PM IST

फिलहाल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना का काफी ध्यान इस्लाम के चीनीकरण पर है. वो लगातार इस धर्म से जुड़े प्रतीकों में बदलाव कर रही है ताकि वे चीन का ही हिस्सा लगने लगें. इसकी शुरुआत साल 2018 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की एक स्पीच से हुई. शी ने कहा कि वे चाहते हैं कि देश में रहने वाले हर मजहब के लोग चीन से खुद को जुड़ा महसूस करें, इसके लिए उन्हें चीनी प्रतीकों और तरीकों को अपनाना होगा. इसके बाद से बदलाव शुरू हो गया.

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इस्लाम के चीनीकरण की कोशिश 

न्यूज मीडिया रेडियो फ्री एशिया की एक रिपोर्ट इस बारे में बात करती है. उसके मुताबिक चीनी प्रशासन ने पांच सालों का प्रोग्राम बनाया, जिसमें इस्लाम का सिनिसाइजेशन हो जाना चाहिए. यानी इस धर्म को मानने वाले अपनी धार्मिक पहचान को छोड़ दें, जैसे लंबी दाढ़ी रखना, अलग कपड़े पहनना, या मस्जिदों में बार-बार जाना.

कितने मुसलमान हैं चीन में?

बता दें कि चीन में मुस्लिमों के दो समुदाय उइगर और हुई मुसलमान चीन के तीसरे और चौथे नंबर की एथनिक माइनोरिटी हैं. इसके अलावा भी इनके कई समुदाय हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 26 मिलियन है. हुई मुस्लिम इनमें सबसे पुराने हैं, जो लगभग 13 सालों से चीन में रहते आए. वे हाल तक अपनी मजहबी पहचान को अलग रखने में कामयाब रहे थे, लेकिन अब ये भी चपेट में हैं. 

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चीन की पुरानी मस्जिदों पर इस तरह की छत होती है. सांकेतिक फोटो (unsplash)

चीन ने इसके लिए बीजिंग, शंघाई, हुनान, युन्नान समेत 8 राज्यों से मुस्लिम प्रतिनिधि बुलाए और उनसे प्लान शेयर किया. मस्जिदों में कहा गया कि वो ज्यादा से ज्यादा चीनी बातों का प्रचार-प्रसार करें, जिससे मुसलमान अपनी मजहबी पहचान में उतने कट्टर न रहें. 

सबसे ज्यादा फर्क मस्जिदों पर पड़ा

उससे गुंबद और मीनारें हटाई जाने लगीं. साल 2014 में वहां लगभग 38 हजार मस्जिदें थीं. इन्हें गिराने या स्ट्रक्चर को चीनी बनाने का काम चलने लगा. फिलहाल कितनी मस्जिदें ढहाई या बदली जा चुकी हैं, इसका निश्चित डेटा नहीं. लेकिन ऑस्ट्रेलियन स्ट्रेटजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ASPI) का मानना है कि 16 हजार मस्जिदों को नुकसान पहुंचाया गया. इसमें से साढ़े 8 हजार को पूरी तरह से गिरा दिया गया. ASPI ने ये डेटा सैटेलाइट के जरिए निकाला था. 

अरब स्टाइल नहीं, चीनी शैली दिखे

मस्जिदों को बदलने के पीछे एक तर्क ये भी दिया गया कि वे अरब स्टाइल में बनी हुई हैं. असल में नब्बे के दशक में चीन ने अपने दरवाजे दूसरे देशों से व्यापार के लिए पूरी तरह से खोल दिए थे. राजनीति में भी ये बदलाव हुआ. लोकल लीडर सऊदी अरब, कुवैत और बाकी खाड़ी देशों के साथ व्यापार को बढ़ावा देने लगे.

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अरब देशों से पढ़कर आने वाले युवाओं ने चीन में मस्जिदों को उसी शैली का बनवाया. सांकेतिक फोटो (AFP)

चीन में रहते मुस्लिम स्टूडेंट पढ़ाई के लिए इन देशों में जाने लगे. लौटते हुए वे अपने साथ तरह-तरह के आइडिया लेकर आते. इन्हीं  में से एक आइडिया मस्जिदों को अरेबियन तरीके से बनाने का था. यानी इसपर गुंबद भी होंगी, मीनारें भी. अंदर का स्ट्रक्चर और प्रेयर हॉल भी खास नक्काशी लिए होगा. 

कैसे होते थे पुराने चीनी मस्जिद?

इसके बाद हजारों की संख्या में नई मस्जिदें बनीं, जो कथित अरब-स्टाइल की थीं. इससे पहले जो मस्जिदें थीं, उनपर चीनी स्टाइल का ठप्पा लगा हुआ था. इस्लामिक  चाइनीज वास्तुकला में गुंबद या मीनार नहीं होती. ये बाहर से बुद्धिस्ट मंदिर की तरह दिखते हैं. छत की कई लेयर होती हैं, जैसे चीन, जापान या तिब्बत के बौद्ध मंदिरों में होती हैं. इसे पगोड़ा कहते हैं. चाइनीज स्टाइल मस्जिद की इमारत पूरी तरह से घिरी या बंद नहीं होती, बल्कि खुली-खुली हुआ करता. 

अब इसी का सिनिसाइजेशन हो रहा है

ये टर्म अंग्रेजी की है, जिसका मतलब है चीनीकरण या चीनी अंदाज में ढालना. जो कोई भी चीन या उसके अधीन कहलाते देशों की सीमा में रहेगा, उसे चीनी बनकर ही रहना होगा. वही भाषा बोलनी होगी. यहां तक कि ऐसे कपड़ों तक पर मनाही हो रही है, जो किसी खास धर्म की पहचान हों.

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चीन में लगभग 26 मिलियन मुसलमान रहते हैं. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

इस्लामिक किताबें भी चीनी भाषा में लिखने पर जोर

इस नई पॉलिसी का सबसे ज्यादा असर मुस्लिमों पर हो रहा है क्योंकि उनके धार्मिक प्रतीक चीन से काफी अलग हैं. इनपर दबाव है कि वे इस्लाम के बारे में लिखते हुए अरबी-फारसी जैसी भाषाओं का इस्तेमाल न करें, बल्कि चीन की भाषा मेंडेरिन में लिखें ताकि इस्लाम को मानने वाले मजबूरी में ही सही चीनी भाषा से जुड़ें. इसका एक मकसद ये भी है कि चीन में रहते मुस्लिम क्या लिख रहे हैं, इसपर पार्टी नजर रख सके. 

हालांकि दूसरी माइनोरिटी भी इसकी चपेट में हैं. वहां रहते तिब्बत या हांगकांग के लोग भी अगर अलग भाषा बोलें, या खुद को मेनलैंड चाइना से अलग बताएं तो लोकल प्रशासन तुरंत सख्त हो जाता है. 

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