
कांगो से होते हुए Mpox बाकी अफ्रीकी मुल्कों समेत दुनिया के कई और देशों तक पहुंच चुका. डब्ल्यूएचओ ने इसे इंटरनेशनल पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया. मंकीपॉक्स वायरस अफ्रीका में पैदा हुआ. बहुत सी दूसरी संक्रामक बीमारियां भी यहीं से फैलती रहीं. लेकिन अफ्रीकी देश अपनी कुल जरूरत का 2 फीसदी से भी कम वैक्सीन बना पाते हैं. जानें, क्यों है ऐसा.
इसी महीने से आ रही हैं दवाएं
लगभग सौ मिलियन आबादी वाले कांगो में कुछ ही दिनों पहले Mpox वैक्सीन की पहली खेप पहुंची, जिसे वो उन इलाकों में देने जा रहा है, जहां बीमारी सबसे भयावह ढंग से फैली हुई है. जापान और डेनमार्क इस बीमारी की वैक्सीन के अकेले मैन्युफैक्चरर हैं. जापान ने अगस्त में वादा किया था कि वो वैक्सीन डोनेट करेगा लेकिन प्रशासनिक कारणों से ऐसा हो नहीं सका. इसी महीने यूरोपियन यूनियन ने कांगो को वैक्सीन की 99 हजार, जबकि अमेरिका ने 50 हजार खुराकें वहां भिजवाईं. ये सारी ही दवाएं डेनमार्क की एक फार्मा कंपनी में तैयार हुईं.
कोविड के समय भी यही हुआ था
इस बीच कांगो में सात सौ से ज्यादा लोगों की संक्रमण से मौत हो गई. ऐसा पहली बार नहीं हुई. कोविड के दौरान जब दुनिया के बहुत से देश अपनी वैक्सीन बना चुके थे, या खरीदने के क्रम में थे, तब भी कांगो समेत लगभग सारा अफ्रीका डोनेशन के इंतजार में था. अलजजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सब्सिडी पर पहुंचे इन शिपमेंट के पहुंचने में इतना वक्त लगा कि तब तक वहां संक्रमण काफी फैल चुका था.
क्या कहता है डेटा
अफ्रीका में ज्यादातर संक्रामक बीमारिया पैदा होती और फैली रहीं. तब कायदे से तो यह होना था कि इस महाद्वीप पर फार्मा कंपनियों की बाढ़ आ जाए लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बल्कि WHO का कहना है कि जितनी जरूरत है, अफ्रीका में उसका 2 प्रतिशत या इससे भी कम वैक्सीन उत्पादन होता है.
महाद्वीप के कुल 54 देशों में से 40 देश वैक्सीन के लिए पूरी तरह से बाहरी मदद पर निर्भर हैं. साल 2021 में पूरे कॉन्टिनेंट पर 10 से भी कम वैक्सीन मैन्युफैक्चरर थे, जो सेनेगल, इजिप्ट, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका और ट्यूनीशिया तक सीमित थे. इनकी भी क्षमता बहुत कम है और सालभर में सौ मिलियन से भी कम वैक्सीन बन पाती हैं, जो आबादी के हिसाब से काफी कम है.
क्यों नहीं बन पा रही वैक्सीन
इसके पीछे आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी, ये सारी ही वजहें शामिल हैं. दवा तैयार करना बहुत महंगा और वक्त लेने वाला काम है. महाद्वीप के ज्यादातर देश बेहद गरीबी में जी रहे हैं. इसपर कोढ़ में खाज की तरह वहां राजनैतिक अस्थिरता भी रही. देशों के भीतर आएदिन सत्ता को लेकर झगड़े-फसाद होते रहते हैं. ऐसे में एक सरकार अगर थोड़ी हिम्मत जुटा भी ले तो सत्ता बदलते ही वो फैसला भी बदल सकता है.
इसके प्रोडक्शन के लिए बुनियादी स्ट्रक्चर, जैसे सड़क, बिजली जैसी सुविधाएं भी यहां दुरुस्त नहीं. वैक्सीन को स्टोर करने के लिए बेहद कम तापमान के स्टोरेज हाउज चाहिए होते हैं. ये भी यहां नहीं. यहां तक कि कोविड के दौरान जो खेपें जा रही थीं, उसे लेकर भी यहां डर था कि वैक्सीन लगने से पहले ही स्टोरेज की कमी से खराब न हो जाएं.
वैक्सीन के लिए काफी कड़े मानक होते हैं, जिनपर उन्हें खरा उतरना ही चाहिए. ये नियम ग्लोबल स्तर पर तय होते हैं. फिलहाल, बहुत से अफ्रीकी देशों में किसी भी मैन्युफेक्चरर के पास वो रेगुलेटरी प्रोसेस नहीं, जो स्टैंडर्ड वैक्सीन बना सके.
अब तक कैसी आती रहीं वैक्सीन
अफ्रीकी देश इसके लिए यूएन और डब्ल्यूएचओ पर निर्भर हैं. इसके अलावा उनकी सरकारें प्राइवेट स्टेकहोल्डर्स से पार्टनरशिप करती रहीं. इससे वैक्सीन तो मिल जाती है, लेकिन पहुंचने में काफी समय लग जाता है. साथ ही ये जरूरत से काफी कम होती हैं. कोविड के दौरान यहां दवाओं की खेप एक साल तक देर से पहुंची, जब तक ज्यादातर देश दोनों डोज लेकर अपने कामधाम में लग चुके थे.