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दुनिया की महाशक्तियां भी नहीं रोक पा रहीं मध्य पूर्व में पसरती जंग को, क्यों अमेरिका भी दिख रहा लाचार?

लेबनान में इजरायली डिफेंस फोर्स और आतंकी संगठन हिजबुल्लाह के बीच संघर्ष फुल-स्विंग पर है. साल 2006 के बाद ये पहला मौका है, जब इजरायली सेना लेबनान में दाखिल हुई. इस बीच हिजबुल्लाह के शीर्ष नेताओं की मौत से बौखलाया हुआ ईरान तेल अवीव को धमकी दे रहा है. कुल मिलाकर स्थिति जंग की तरफ जाती दिख रही है. बड़े देश भी इसपर ठंडा पानी डालने में नाकामयाब दिख रहे हैं.

लेबनान में इजरायली सेना ने तबाही मचाई हुई है. (Photo- Reuters) लेबनान में इजरायली सेना ने तबाही मचाई हुई है. (Photo- Reuters)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 01 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 3:34 PM IST

पिछले साल 7 अक्टूबर को फिलिस्तीन के चरमपंथी संगठन हमास ने बड़ा हमला करते हुए हजारों इजरायली नागरिकों को मार दिया, साथ ही सैकड़ों लोग बंधक बना लिए गए. इसके बाद से इजरायल और मध्य-पूर्व में लगभग युद्ध छिड़ा हुआ है. अमेरिका और यूरोप समेत कई अरब देशों ने भी इसमें मध्यस्थता करनी चाही, लेकिन हालात काबू से बाहर ही दिख रहे हैं. 

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फिलहाल क्या स्थिति है

इजरायल की सेना लेबनान में दाखिल हो चुकी. वो सोमवार रात से ही देश के दक्षिणी हिस्से में हिजबुल्लाह के ठिकानों को खत्म करने पर तुली हुई है. इधर हिजबुल्लाह को फंड करने वाला ईरान लगातार इजरायल पर नाराजगी जता रहा है. बता दें कि हिजबुल्लाह का तीन दशक से ज्यादा समय तक लीडर रह चुका नसरल्लाह हवाई हमले में मारा जा चुका. इसके बाद से उसे फंड कर रहा ईरान भड़का हुआ है. वहीं कई और मध्यपूर्वी देशों से संवेदना या नाराजगी भरे बयान आ चुके. तो मामला कुछ ऐसा है कि दो लोगों की लड़ाई में तमाशाई भी गुत्थमगुत्था हैं. 

कहां खड़ा है अमेरिका

अमेरिका ने शुरुआत से ही इसमें मध्यस्थता की कोशिश की. हमास और इजरायल के बीच जंग छिड़ने के बाद से जो बाइडेन सरकार ने कई बार दावा किया कि वे बीच-बचाव के आखिरी चरण में हैं और सबकुछ ठीक हो जाएगा. यहां तक कि इसमें साम-दाम-दंड की नीति अपनाने हुए अमेरिका कई आतंकी गुटों पर बरसा भी. लेकिन नसरल्लाह की मौत के साथ बीच-बचाव की अमेरिकी कोशिश ठंडे बस्ते में जाती दिख रही हैं. 

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इससे पहले इजरायल और अरब में सुलह का अमेरिकी रिकॉर्ड बढ़िया रह चुका.

- उसने साल 1978 के कैंप डेविड समझौते का नेतृत्व किया, जो इजरायल और मिस्र के बीच था.

- साल 1994 में इजरायल-जॉर्डन शांति समझौते में भी अमेरिकी हाथ था.

- लगभग तीन दशक पहले तत्कालीन इजरायली पीएम यित्जहाक रॉबिन और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के अध्यक्ष यासिर अराफात ने वाइट हाउस में हाथ मिलाते हुए शांति का वादा किया था. दो कट्टर दुश्मनों को एक मंच के नीचे लाना भी बड़ी बात थी, लेकिन अमेरिकी अगुवाई में ये मुमकिन हो गया. हालांकि वो अलग समय था. अब काफी कुछ बदल चुका. 

क्या कमजोर हो रही अमेरिकी पकड़

अमेरिका का अरब पर अब उतना दबदबा नहीं रहा. खासकर ईरान पर. 70 के दशक के आखिर तक ईरान और अमेरिका के अच्छे संबंध थे, लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद समीकरण तेजी से बदले. ईरान अमेरिकी पहल को हस्तक्षेप की तरह देखने लगा. बदले में अमेरिका ने भी उसपर पाबंदियां लगानी शुरू कर दीं. ताबूत पर आखिरी कील लगी, ईरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर के लीडर जनरल कासिम सुलेनामी की हत्या के साथ, जिसमें कथित तौर अमेरिकी हाथ था. इसके बाद से संबंध बेहद खराब हो चुके हैं. मध्यस्थता में एक रोड़ा ये भी है कि इजरायल को लेकर अमेरिका का झुकाव रहा. ये बात भी अरब देशों को परेशान करती है. 

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रूस की नीयत पर नहीं दिखता भरोसा

दूसरी महाशक्ति रूस की बात करें तो उसने भी कई बार मीडिएटर का काम करना चाहा. जैसे सत्तर के दशक में शुरू हुए संघर्ष में उसने कई बार बीच में आना चाहा लेकिन बात नहीं बनी. साल 1991 में उसने ओस्लो शांति समझौते में हिस्सा लिया जो इजरायल और फिलिस्तीन के बीच बातचीत को बढ़ावा देने के लिए था. लेकिन इस समझौते के बाद झगड़े और बढ़े ही. रूस ने सीरियाई गृह युद्ध में भी दखल देने की कोशिश की. लेकिन कोशिशें बेकार रहीं. अरब देश रूस को अमेरिका की तरह ताकतवर नहीं मानते, साथ ही शांति बनाने की उसकी मंशा को भी शक से देखा जाता रहा. वे ये मानते हैं कि रूस किसी की मदद इसलिए ही करता है ताकि वो उस क्षेत्र में अपना दबदबा बना सके और अमेरिका के मुकाबले ज्यादा साथी बना सके. 

क्या कर रहे हैं बाकी देश

इसके अलावा ज्यादातर देशों की भूमिका बाहरी से ज्यादा नहीं. मसलन, चीन को देखें तो वो ईरान से भारी मात्रा में तेल आयात करता रहा तो इस लिहाज से उसकी बात मायने भी रखेगी. हालांकि चीन के पास मध्य-पूर्व में कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं, जैसा रूस या अमेरिका का चला् आ रहा है. साथ ही उसकी भूमिका अब भी आउटसाइडर की तरह है, जिससे मिडिल ईस्टर्न देशों का रिश्ता व्यापार तक सीमित रहा. 

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यूरोपियन यूनियन ने भी इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष में मध्यस्थता की कोशिश की, खासकर हाल में शुरू हुई लड़ाई के बाद. हालांकि वक्त के साथ इसकी बात का वजन उतना नहीं रहा. अरब देश जैसे कतर, जॉर्डन और मिस्र भी लगातार गाजा और इजरायल के बीच आते रहे लेकिन फिलहाल जिस तरह की खींचतान मची है, इसमें शांति की कोशिशें बेकार हो रही हैं, यहां तक कि शांति की बात करने वाले देश अप्रत्यक्ष तौर पर खुद ही लड़ाई में शामिल होते दिख रहे हैं. 

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