
अमेरिका में सत्ता पलट के साथ रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर उम्मीद बंधी थी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार जंग रोकने पर बयान दे रहे थे. हालांकि ये तय हो चुका कि इसमें नेगोशिएशन में रूस का पलड़ा भारी रहेगा. अब ट्रंप ने यूक्रेन में मौजूद न्यूक्लियर प्लांट्स पर मालिकाना हक पाने की भी कोशिश शुरू कर दी है. नब्बे के दशक में यूक्रेन अगर अपने हथियार सरेंडर न करता तो दुनिया की तीसरी बड़ी परमाणु ताकत हो सकता था.
रूस और यूक्रेन में मध्यस्थता करते हुए हाल में ट्रंप ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की से बात की और इसी दौरान एक बेहद अजीब सा आइडिया दिया. उन्होंने कहा कि यूएस अगर वहां बने न्यूक्लियर प्लांट्स को टेकओवर कर ले तो इससे यूक्रेन के ऊर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर को ज्यादा फायदा हो सकेगा. एकदम अचानक आए इस प्रस्ताव को जेलेंस्की ठुकरा चुके. न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, प्लांट देश के हैं और उनका निजीकरण नहीं हो सकता, यही कहते हुए जेलेंस्की ने फिलहाल इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया.
यूक्रेन में स्थित जापोरिझिझिया न्यूक्लियर प्लांट पर लड़ाई शुरू होने के बाद से रूस का कब्जा है. जेलेंस्की ने यह इशारा भी दिया कि ट्रंप शायद इसी की बात कर रहे हों. अगर ऐसा है तो यूक्रेन का उससे खास लेना-देना नहीं होगा. बात चाहे जो हो, ये पक्का है कि अमेरिका की यूक्रेन में, खासकर उसके परमाणु प्लांट्स में खासी दिलचस्पी है. यूक्रेन को साल 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा न्यूक्लियर आर्सेनल विरासत में मिला था. अमेरिका और रूस के बाद वो टॉप पर था, हालांकि उसे सारे हथियार सरेंडर करने पड़े.
क्या यूक्रेन को मजबूर किया गया था
तकनीकी रूप से हां. दरअसल, कीव के पास हथियार तो थे, लेकिन सभी सोवियत यूनियन के बनाए हुए थे. इनका लॉन्च कोड और कंट्रोल सिस्टम मॉस्को के पास था. यानी यूक्रेन के पास वेपन थे तो लेकिन वो चाहने पर भी उन्हें अपनी मर्जी से ऑपरेट नहीं कर सकता था. यह वैसा ही था जैसे किसी के पास गाड़ी तो हो, लेकिन चाबी किसी और के पास.
इन हथियारों की मेंटेनेंस बेहद महंगी थी. बता दें कि न्यूक्लियर वेपन्स को संभालने और सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर रिसोर्स की जरूरत होती है. बाकी दोनों देशों के पास पैसे से लेकर साइंटिस्ट्स की टीम थी लेकिन यूक्रेन के पास ये नहीं था. जो टेक्निकल इंफ्रास्ट्रक्चर था भी, वो कमजोर हाल था.
रूस समेत अमेरिका भी नहीं चाहता था कि नए देशों के पास परमाणु ताकत आए. दोनों वैसे तो दुश्मन थे लेकिन मिलकर यूक्रेन पर दबाव बनाया कि वो हथियार छोड़ दे. बदले में उसे सुरक्षा मिलेगी. यूएस ने एक कदम आगे निकलते हुए कहा कि अगर कीव इससे मना करेगा तो उसपर कई पाबंदियां लग सकती हैं.
आखिरकार आजादी के तीन सालों बाद कीव ने एक समझौता किया, जिसमें उसने अपने सारे न्यूक्लियर हथियार छोड़ने पर हामी भर दी. इसे बुडापेस्ट मेमोरेंडम के नाम से जाना जाता है. उसने ज्यादातर हथियार रूस को दे दिए, या फिर नष्ट कर दिए. वहीं न्यूक्लियर पावर प्लांट्स चालू रहे जिससे कीव को एनर्जी मिलती रही.
यूक्रेन को भी लगा कि अगर सीमाएं सुरक्षित हैं तो हथियारों की क्या जरूरत. लेकिन साल 2024 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और साल 2022 में युद्ध छेड़ दिया. इसके बाद से सवाल उठ रहा है कि क्या न्यूक्लियर हथियार छोड़कर कीव से कोई गलती हो गई!
जापोरिझिझिया न्यूक्लियर प्लांट साल 2022 से रूस के कब्जे में है. रूसी सेना ने मार्च में इस प्लांट पर कब्जा कर लिया था. उसके बाद से, रूस की राज्य परमाणु ऊर्जा कंपनी रोसाटॉम इस प्लांट को चला रही है. जेलेंस्की ने इसका जिक्र जरूर किया लेकिन अमेरिका अगर केवल इसी प्लांट को भी खरीदना चाहे तो इसके लिए यूक्रेन की मंजूरी जरूरी होगी क्योंकि असल में यह उसी की संपत्ति है.
यह विवादित प्लांट रूस और अमेरिका के सुधर रहे रिश्तों को भी बिगाड़ सकता है. अगर रूस इसे पूरी तरह से अपने एनर्जी सिस्टम से जोड़ना चाहे तो यूएस नाराज हो जाएगा, और अगर अमेरिका इसपर कब्जा चाहे तो रूस भड़क सकता है. यूक्रेन अभी कमजोर पड़ा हुआ है. ऐसे में अमेरिका अगर वहां मौजूद बाकी पावर प्लांट्स को मदद करना चाहे तो मॉस्को भी इसे अपने खिलाफ कार्रवाई मान सकता है. कुल मिलाकर, न्यूक्लियर प्लांट्स नए-नए रिश्ते में गांठ डाल सकते हैं.