
रूस अपने काला सागर अनाज समझौता से पीछे हट गया है, जिससे दुनिया में अनाज की भारी कमी आ सकती है. ये वो समझौता था, जिसके जरिए यूक्रेन सागर से होते हुए अपना अनाज बाकी जगहों को सप्लाई कर पा रहा था. लड़ाई छिड़ने पर रूस ने साफ किया कि वो आपसी झगड़े में बाकी लोगों का नुकसान नहीं करेगा. वो यूक्रेनी मालवाहक जहाजों को सुरक्षित रास्ता देता रहा.
रूस रोक रहा है समुद्र से अन्न का निर्यात
हाल में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने साफ कर दिया कि वे अब काला सागर को यूक्रेन के लिए खुला नहीं छोड़ेगें. इससे न तो यूक्रेन अपना गेहूं और मक्का बाहर भेज पाएगा और न ही उसके निर्यात पर निर्भर देशों को ये अनाज आसानी से मिलेगा. माना जा रहा है कि इस एक फैसले से लाखों लोग भुखमरी का शिकार हो सकते हैं. वैसे अनाज की कमी का जिम्मेदार अकेला रूस नहीं, बल्कि इसकी किस्मों का तेजी से गायब होना भी है.
वैसे तो हम जीव-जंतुओं के विलुप्त होने के बारे में सुनते आ रहे हैं, लेकिन क्या कभी सोचा है कि पेड़-पौधे, और उसपर भी अनाज विलुप्त हो सकता है! ऐसा हो रहा है और इतनी तेजी से हो रहा कि वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में अनाज की इक्का-दुक्का किस्में बाकी रह जाएंगी. इसे एग्रोबायोडायवर्सिटी कहते हैं.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
FAO का कहना है कि 100 सालों के भीतर फसल की 90 फीसदी से ज्यादा किस्में गायब हो गईं. इसमें चावल, तिलहन, दाल और मिलेट्स की भी कई वराइटी शामिल हैं. लेकिन चिंता यहीं खत्म नहीं होती. FAO के मुताबिक, आज जो फसलें हम खा रहे हैं, साल 2050 तक उनमें से भी एक-तिहाई खत्म हो जाएंगी.
फिलहाल जितनी फसलें बाकी हैं, उनमें से भी चावल, गेहूं और मक्का जैसे कुछ ही अनाज दुनिया का पेट भर रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा पैदावार के लिए इनमें इतनी बार बदलाव हुआ, इतनी हाइब्रिड किस्में बनीं कि अब फसल भले ही ज्यादा होती दिखती है लेकिन उसमें पोषण बहुत कम रहता है.
क्यों गायब हुई फसलें?
ये सबकुछ 20वीं सदी से बढ़ा. दुनिया में आबादी तो बढ़ ही रही थी, साथ ही ग्रीन रिवॉल्यूशन भी हो रहा था. इसके नाम पर फसलों की संकर किस्में बनाई जाने लगीं. यहां तक कि खेती-किसानी में काम आने वाले पशुओं को भी जेनेटिकली मॉडिफाई किया जाने लगा. एक्सपर्ट्स ने सारा ध्यान कुछ ही फसलों पर दिया, जिससे बाकी किस्में रखरखाव की कमी से खत्म होती चली गईं.
पेटेंट की वजह से भी गड़बड़ी
इसी समय इंडस्ट्रियल पेटेंट भी शुरू हुआ. संकर किस्में बनाकर बड़ी कंपनियां उसे पेटेंट करने और बाकी देशों को सप्लाई करने लगीं. ये अनाज कम कीमत पर दिया जाता था. इससे आयात करने वाले देश भी अपने यहां की फसलों को छोड़कर सस्ते में आते विदेशी अनाज पर निर्भर हो गए.
लोकल वराइटी की जगह एग्जॉटिक स्पीशीज ने ले ली
जैसे मिलेट्स की कई किस्मों की जगह लोग लंबे चावल या बारीक गेहूं खाने लगे. ये एक तरह की यूनिफॉर्मिटी थी, जैसे पिज्जा या बर्गर में दिखती है. दुनिया के किसी भी देश में जाएं, एक आउटलेट के पिज्जा-बर्गर का स्वाद एक सा होता है. यही हाल फसल का हुआ. स्थानीय मोटा अनाज और साग-पात गायब होते गए. रंगीन पत्तागोभी और संकर खीरा उनकी जगह एग्जॉटिक फूड में गिना जाने लगा.
क्या असर होगा इससे?
ग्लोबल क्रॉप डायवर्सिटी ट्रस्ट के अनुसार, होमोजीनस यानी एक तरह की फसलों के बाकी होने से सबसे बड़ा डर भुखमरी का है. जमीन पर बार-बार एक ही तरह की फसलें उगती रहीं तो वो बंजर होती जाएगी. साथ ही टिड्डी हमला जैसी घटनाएं भी बढ़ सकती हैं. कई दूसरे तरह के कीड़े-मकोड़े हैं जो फसलों को चट कर सकते हैं. ऐसे में हमारे पास बचने का जरिया नहीं रहेगा. अगर एक भी फसल बुरी तरह से फेल हुई तो बचे हुए अनाज की कीमत काफी बढ़ जाएगी. इसके बाद मामला भुखमरी तक ही नहीं रहेगा, बल्कि देशों में जंग भी छिड़ सकती है.
फिलहाल भारत से क्या गायब हो रहा है?
- कर्नाटक में पैदा होने वाली मोठ बीन, जिसे मटकी दाल भी कहते थे, तेजी से खत्म हो रही है. लोग इसकी जगह अरहर दाल खाने लगे, जिसके चलते किसानों ने इसे उपजाना कम कर दिया.
- कर्हानी चावल छत्तीसगढ़ में पैदा होता था. अब सरकार इन काले चावलों की जगह हाइब्रिड चावल पर जोर दे रही है.
- महेर धान- ये भी काले चावल की एक किस्म है, जो दंतेवाड़ा में मिलता था. अब सफेद हाइब्रिड चावलों के आगे इसका मार्केट खत्म हो चुका.
- उड़ीसा के रायगढ़ा और कालाहांडी में जौ-बाजरा के कई प्रकार मिला करते थे, जो तेजी से गायब हुए. अब वहां लोग अदरक, हल्दी और अनानास लगा रहे हैं.
- मेघालय में एक तरह का लाल, कुछ चिपचिपा चावल होता था. इसकी जगह भी संकर चावल आ चुका. अब सिर्फ शादियों या बड़े मौकों के लिए किसान इसे उपजाते हैं.