दुनिया में एक नई जिंदगी को लाने वाली मां के लिए इससे सुखद अनुभव कोई नहीं होता. बच्चे की खुशियों में जुटी मां हर तरह से दिन रात बच्चे के लिए एक कर देती है. लेकिन यही वो वक्त होता है जब मां बनने के बाद महिलाएं पोस्टपार्टम ब्लूज या एंजाइटी को फेस कर रही होती हैं. तनाव, उदासी, दुख, नकारात्मकता और घबराहट जैसे लक्षण उसे घेर लेते हैं. ऐसे में सबसे जरूरी होता है कि वो मनोचिकित्सक से मिले, लेकिन फीडिंग मदर को दवाओं से दूर रखने की भी कोशिश होती है, क्योंकि कई दवाएं फीडिंग मदर से बच्चे को नुकसान पहुंचा सकती हैं. ऐसे में इस एंजाइटी से जूझने की क्या स्ट्रेटजी हो सकती हैं, आइए जानें.
क्यों होता है पोस्टपार्टम डिप्रेशन
सरोजनी नायडू मेडिकल कॉलेज आगरा में स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ प्रो. डॉ. निधि गुप्ता कहती हैं कि प्रेग्नेंसी के दौरान महिलाओं में एस्ट्रोजन, प्रोजेस्ट्रोन, टेस्टोस्टेरोन जैसे हैप्पी हार्मोन्स बनते हैं. फिर प्रसव के बाद महिलाओं के हार्मोन्स में तेजी से बदलाव होते हैं. इन हार्मोंस का स्तर कई बार एकदम नीचे आ जाता है. इसके अलावा शारीरिक बदलाव भी एक तरह की मानसिक समस्या पैदा करते हैं, इसे पोस्टपार्टम ब्लूज कहते हैं.
बंसल हॉस्पिटल भोपाल में मनो चिकित्सक व मध्य प्रदेश चिकित्सा प्रकोष्ठ कमेटी के सदस्य डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि एक नई मां के लिए ये बेहद कठिन समय होता है. जब वो बच्चे को फीड करा रही है और दूसरी तरफ पोस्टपार्टम एंजाइटी से भी जूझ रही है. मनोचिकित्सक ऐसी हालत में पहले तो यही कोशिश करते हैं कि फीडिंग मदर को दवा न दी जाए, लेकिन गंभीर मामलों में मेडिकेशन देना जरूरी होता है. फिर भी मनोचिकित्सा में अन्य स्ट्रेटजी के जरिये भी पोस्टपार्टम ब्लूज के लक्षण कम किए जा सकते हैं.
डॉ त्रिवेदी कहते हैं कि हार्मोंस का प्रभाव ही मनोभावों में उतार-चढ़ाव का जिम्मेदार होता है. हैप्पी हार्मोंस बढ़ाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी तो मां का बच्चे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना है. इसलिए दिन में कईबार अपने बच्चे को सीने से लगाकर प्यार करें. इसके अलावा अन्य भी कई स्ट्रेटजी हैं जिसे अपनाकर इस तनाव को कम करने में मदद मिल सकती है.
ज्यादा से ज्याद नींद लें
एक मां के लिए रात में गहरी नींद सो पाना इतना आसान नहीं होता क्योंकि रात में कई बार बच्चा जागकर मां को जगा देता है. मां को उसे फीड कराना पड़ता है. लेकिन मां के लिए ऐसे में सोना बहुत जरूरी होता है. इसके लिए परिवार वालों को भी मदद करनी चाहिए. मां के लिए एक अलग जगह देकर उन्हें एक तय वक्त में सोने के लिए स्लॉट देना चाहिए. इसके अलावा मांओं को कैफीन आदि कम मात्रा में लेना चाहिए, इससे भी नींद पर दुष्प्रभाव पड़ता है.
दूसरों के साथ वक्त बिताएं
छोटे बच्चों की मांओं को अक्सर लगता है कि उनके पास अब इतना वक्त नहीं है कि वो किसी और को दे सकें या ऑनलाइन वक्त बिता सकें. इसके लिए मां को चाहिए कि वो दूसरों के साथ वक्त निकालना शुरू करे, अपने भीतर से इस भय को निकाले कि उसका हर वक्त बच्चे के साथ ही रहना जरूरी है. क्योंकि इस दौरान आपको फिजिकल एक्टिविटी करना भी बहुत जरूरी होता है. डॉ त्रिवेदी कहते हैं कि एक फीडिंग मदर के लिए फिजिकल एक्टिविटी बहुत जरूरी होती है. इससे तनाव काफी कम होता है.
सरोजनी नायडू मेडिकल कॉलेज आगरा में स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ प्रो. डॉ. निधि गुप्ता पोस्टपार्टम डिप्रेशन पर लंबे समय से काम कर रही हैं. उन्होंने इस डिप्रेशन पर कई पेपर भी लिखे हैं. वो कहती हैं कि प्रसव के बाद इस तरह की समस्याएं लेकर कई मरीज आते हैं. अगर देखा जाए तो इस तरह के मामले सबसे पहले स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ के पास ही आते हैं. हम उनके लक्षणों के आधार पर ही निदान करते हैं. कई बार कैल्शियम, मल्टी विटामिन और आयरन की कमी के कारण भी कमजोरी या घबराहट जैसे लक्षण होते हैं. मरीज से बात करके ही तय होता है कि मरीज काउंसिलिंग से ठीक होगा या दवाओं से या फिर उसे मनोचिकित्सक की जरूरत है.
कब हों सावधान
IHBAS (Institute of Human Behaviour and Allied Sciences) के मनोचिकित्सक डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि पोस्टपार्टम साइक्रेटिक डिसऑर्डर को तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं. इसमें पहला पोस्टपार्टम ब्लूज, दूसरा पोस्टपार्टम डिप्रेशन और तीसरी अवस्था पोस्टपार्टम साइकोसिस की होती है. पूरी दुनिया में 1000 मां में से 300‒750 पोस्टपार्टम ब्लूज का शिकार होती हैं. लेकिन ज्यादातर तकरीबन एक सप्ताह में नॉर्मल हो जाता है. लेकिन अगर ये आगे बढ़ता है तो ये पोस्टपार्टम डिप्रेशन का रूप ले लेता है, लेकिन इसकी सबसे कठिन स्थिति साइकोसिस की होती है. पहले चरण में काउंसिलिंग या लाइफस्टाइल में सुधार से लक्षणों में कमी हो जाती है, लेकिन अगर सिंप्टम्स आगे बढ़ते हैं तो दवाओं के साथ इलाज जरूरी हो जाता है.