
2 मार्च को त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए. तीनों सूबों में सत्ताधारी गठबंधनों को ही जीत मिली. बस सरकार का चरित्र थोड़ा-थोड़ा बदल गया.
भाजपा त्रिपुरा में अब पूरी तरह अपने बूते सरकार चलाएगी.
नगालैंड में भाजपा जूनियर पार्टनर ही है, लेकिन एनडीपीपी के साथ गठबंधन में उसका कद बढ़ गया है.
मेघालय में गठबबंधन के पूर्व साथी—भाजपा और कोनराड संगमा की एनपीपी ने एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक प्रचार किया. दोनों ही पार्टियों के प्रदर्शन में सुधार हुआ और अब दोनों ने सरकार बनाने के लिए फिर हाथ मिला लिया है. तो ये नतीजे सूबाई और राष्ट्रीय राजनीति को लेकर क्या संकेत देते हैं?
1. भाजपा अब पूर्वोत्तर में बाहरी नहीं रही
पूर्वोत्तर में स्थानीय और जातीय स्वाभिमान की अपनी जगह है. ऐसे में हिंदू राष्ट्रवाद की लीक पर चलने वाली भाजपा के लिए नगालैंड और मेघालय जैसे ईसाई बहुल सूबों में चुनौती कई स्तरों पर थी. बीफ और धर्मांतरण के मुद्दे पर हिंदी पट्टी की घटनाओं को आधार बनाकर भाजपा को ईसाई विरोधी तक कहा गया. लेकिन दोनों सूबों के भाजपा अध्यक्षों—अर्नेस्ट मावरी और तेमजेन इम्ना अलॉन्ग ने मुक्त कंठ से कहा कि भारतीय जनता पार्टी में उन्हें बीफ को लेकर कभी नहीं टोका गया. इसी तरह पार्टी ने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पूर्वोत्तर की चिंताओं को देखते हुए उस विषय को बैक-बर्नर पर रखा. चुनावी बुखार को चरम तक जीने वाली पार्टी ने पूर्वोत्तर में बड़े संयम से काम लिया. इन नतीजों का 2024 के आम चुनाव पर खास फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन परसेप्शन की लड़ाई में पार्टी ने बढ़त कायम कर ली है.
भाजपा का दावा है कि बीते नौ साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के 57 दौरे किए है. गृह मंत्री अमित शाह के भी इन राज्यों में कई दौरे हुए. हालांकि यहां मिली चुनावी सफलता का श्रेय मोदी-शाह की जोड़ी के साथ-साथ एक और शख्स को जाता है और वह है असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा. भविष्य बताएगा कि एनडीए के पूर्वोत्तर संस्करण—एनईडीए के संयोजक को पार्टी से कैसा इनाम मिलता है. और क्या वह उनकी महत्वाकांक्षा के अनुरूप होगा?
2.अन्य ही अनन्य
त्रिपुरा में अन्य के खाते में कोई सीट नहीं गई. लेकिन नगालैंड में अन्य ने ही पूरे खेल की तस्वीर रची. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), जदयू, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) जैसी पार्टियों ने न सिर्फ चुनाव लड़ा, बल्कि शानदार जीत भी दर्ज की. एनसीपी के सात में से छह उम्मीदवार भाजपा प्रत्याशियों को हराकर जीते. बावजूद इसके, भाजपा ने अपना पिछला प्रदर्शन दोहराते हुए 12 सीटें तो जुटा ही लीं. अन्य ने वाकई अगर किसी का नुक्सान किया, तो वह थी नेफ्यू रियो की एनडीपीपी. तीन निर्दलीयों और पांच 'अन्य' पार्टियों के उम्मीदवारों ने कुल आठ सीटों पर एनडीपीपी के उम्मीदवारों को हराया. अर्थात्, अन्य ने भाजपा और एनडीपीपी दोनों को नुक्सान पहुंचाया, लेकिन चोट एनडीपीपी को ज्यादा लगी.
मेघालय में सत्ताधारी गठबंधन के दोनों दल—भाजपा और एनपीपी साथ लौट आए हैं. लेकिन यहां भी उन्हें अन्य का सहारा लेना होगा. चूंकि भाजपा केंद्र में शासन कर रही है. और तीनों सूबों में भी सत्ता का हिस्सा है तो अन्य उससे करीबी रखने में ही भलाई समझेंगे, ऐसा अनुमान लगाना गलत नहीं होगा.
3. तृणमूल कांग्रेस के अरमानों पर पानी फिरा
अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को जमीन पर उतारने की गरज से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने 2022 में गोवा विधानसभा चुनाव लड़ा था, जहां उसके लिए नतीजा सिफर रहा. हालांकि इस पार्टी की ताकत है बांग्लाभाषी आबादी, सो इसके लिए पूर्वोत्तर में सबसे उर्वर जमीन थी त्रिपुरा, जहां दो-तिहाई आबादी बांग्ला बोलती है. पार्टी ने निकाय चुनावों में मौजूदगी दर्ज भी कराई, लेकिन विधानसभा चुनाव से पहले न नेता खड़े कर पाई और न ही संगठन को आकार दे पाई. रही सही कसर वाम मोर्चे और कांग्रेस के बीच सहमति ने पूरी कर दी. भाजपा के पास तंत्र की शक्ति थी, सो उसने भी तृणमूल को पनपने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
मेघालय में पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा एक दर्जन विधायकों के साथ कांग्रेस तोड़कर तृणमूल में आए. लेकिन स्थानीय बनाम बाहरी वाली भावुक बहस में कोई 'बांग्ला' पार्टी मेघालय में जीतती तो कैसे. नतीजा—पार्टी पांच सीटों पर सिमट गई.
गोवा के बाद अब त्रिपुरा और मेघालय के नतीजे यह तो बता ही रहे हैं कि अभिषेक बनर्जी के 'लॉन्च' होने में अभी वक्त लगेगा
-निखिल धनराज वाठ