
पुस्तक अंश
वर्ष 2004 की ग्रीष्म ऋतु समाप्त होते-होते भारतीय राजनैतिक इतिहास में सबसे लंबे समय तक चलने वाला एक विवाद अपने समाधान की ओर पहुंचता दिख रहा था. ''क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस वास्तव में अपनी कथित मृत्यु के उपरान्त भी दीर्घ काल तक जीवित थे?’’—न्यायालय के आदेशानुसार, अटलबिहारी वाजपेयी सरकार की ओर से गठित एक जांच आयोग इस प्रश्न के उत्तर तक मानो पहुंच ही गया था.
कोलकाता-स्थित एक भव्य सभागार के बीचो-बीच न्यायाधीशों के प्रयोग में लाई जाने वाली मेज पर पांच पैकेट रखे हुए थे, जिनमें डीएनए और हस्तलेख की रिपोर्टें सीलबंद थीं. मानो वे नेताजी-रहस्यगाथा को सुलझाने के लिए पर्याप्त थीं. तभी एक बड़ा चौकोर चश्मा पहने, कुर्सी पर बैठे एक भद्र व्यक्ति ने उन सीलबंद रिपोर्टों को खोलना आरंभ किया.
पिछले पांच वर्षों में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश—जस्टिस मनोज कुमार मुखर्जी नेताजी की मृत्यु से जुड़े विवाद का गहन अध्ययन कर चुके थे. आधिकारिक तौर पर नेताजी की मृत्यु 1945 में ताइवान के ताईपेई शहर में एक विमान-दुर्घटना में हो चुकी थी. जबकि कई लोगों की मान्यता थी कि उस कथित विमान-दुर्घटना के कुछ वर्षों बाद एक गहरी साजिश के तहत नेताजी को सोवियत रूस में मौत के घाट उतारा गया था.
जस्टिस मुखर्जी हफ्तों तक विमान-दुर्घटना वाले मत का समर्थन करने वाले गवाहों के पुराने वक्तव्यों (1950 और 1970 के दशक में लिपिबद्ध) का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते रहे. पर उनकी अनुभवी नजर में उन वक्तव्यों की संगति कुछ सध नहीं पा रही थी. वे सभी विरोधाभासों से भरे थे. अब अगर वे सब प्रामाणिक थे तो फिर उनमें विरोधाभास क्यों?
अधिकतर गवाह जापानी थे, जिनमें से एक ही मुखर्जी आयोग के गठन तक जीवित बचा था. इस दावे के एकमात्र जीवित और सबसे अहम गवाह ने आयोग के सामने पेश होकर न चाहते हुए भी जस्टिस मुखर्जी को विमान-दुर्घटना वाली अवधारणा पर अविश्वास जताने की एक बड़ी वजह मुहैया करवा दी.
धीमे लेकिन सुस्पष्ट स्वर में बोलने वाले पूर्वसेना-चिकित्सक डॉ. तानेयोशी योशिमी यह सिद्ध कर चुके थे कि 90 साल से अधिक आयु में भी उनकी सोचने-समझने की शक्ति अक्षुण्ण बनी हुई थी. लेकिन पहले के मौकों की तरह इस बार भी उन्होंने पूर्व के बयानों से कुछ अलग ही बात कही. इस पर मुखर्जी ने जब उनसे मुखर परिप्रश्न किया तो योशिमी ने कुबूल कर लिया कि 1988 में उन्होंने नेताजी का एक फर्जी मृत्यु-प्रमाणपत्र बनाया था. यह कार्य किसी ऐसे ''अनुसंधाता’’ के अनुरोध पर हुआ था, जो भारत सरकार की प्रचारित आधिकारिक अवधारणा को मजबूत करने में सरकार की मदद कर रहा था.
मुखर्जी को शुरू से ही नई दिल्ली के आला अफसरों और मंत्रियों का रवैया खटकने लगा था. कलकत्ता उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित-याचिका के चलते मुखर्जी आयोग का गठन हुआ था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश प्रभाशंकर मिश्र ने पाया कि स्वयं सरकारी अधिवक्ता ही जापानियों की ओर से प्रचारित विमान-दुर्घटना वाली अवधारणा के प्रति संदिग्ध थे.
अत: न्यायालय ने अपने आदेश (30 अप्रैल, 1998) में यह कहा कि 1950 और 1970 के दशक में सरकार की ओर से गठित शाहनवाज समिति और गोपाल दास खोसला आयोग का निष्कर्ष [कि 1945 में ही नेताजी का आकस्मिक निधन हो चुका था] यदि वास्तव में यथार्थ होता तो सरकार के संदिग्ध होने का कोई औचित्य ही नहीं था. अत: न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि ''विवाद को हमेशा के लिए समाप्त करने के उद्देश्य से एक प्रामाणिक जांच करवाई जाए.’’
जांच आयोग का कार्यभार संभालते वक्त मुखर्जी ने सोचा था कि उनके काम में कोई खास दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि भाजपा की सरकार थी न कि नेताजी के प्रति सर्वथा उदासीन कांग्रेस की. लेकिन उनकी उम्मीदें शुरू से ही धराशायी होने लगीं. दूरदर्शन और आकाशवाणी के जांच से जुड़े समाचारों को प्रसारित न करने पर मुखर्जी ने प्रसार भारती के प्रमुख को लिखित शिकायत भेजी. उसका उन्हें कोई जवाब तक न मिला. मुखर्जी ने अरुण जेटली (तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री) को इसका उलाहना दिया. हालांकि उसका कोई असर नहीं हुआ. सरकार की ओर से असहयोग के मानक शायद उन्हीं दिनों तय हो चुके थे.
सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात अहम दस्तावेज आयोग से छिपाने की थी. 2003 में जस्टिस मुखर्जी ने ब्रिटिश अभिलेखागार में उपलब्ध दस्तावेजों की पड़ताल के लिए लंदन की यात्रा की. भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों ने उनके प्रति सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह तो किया लेकिन उनकी किसी तरह की अतिरिक्त सहायता के लिए वे रत्ती भर भी उत्सुक न थे.
मुखर्जी ने लंदन में ही रह रहे (व्यावसायिक क्षेत्र की एक अहम हस्ती) अपने छोटे भाई से सहायता मांगी. नतीजतन मुखर्जी के अनुरोध पर (हाउस ऑफ लॉड्र्स के सदस्य) पीटर आर्चर ने लॉर्ड चांस्लर एलेक्जेंडर इरविन (सार्वजनिक दस्तावेज संरक्षक) से संवाद स्थापित किया. इरविन ने आर्चर का ध्यान कुछ दिनों पूर्व सार्वजनिक हुई दो फाइलों की ओर खींचा. मुखर्जी ने ब्रिटिश राष्ट्रीय अभिलेखागार में पचास के दशक की उन दो फाइलों में से एक को पढ़ना शुरू किया.
...बढ़ती सार्वजनिक मांग के कारण, अन्यथा इच्छा रखने वाली पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार कांग्रेस के सांसद और कालांतर में मंत्री शाहनवाज खान (आइएनए के पूर्व अधिकारी) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करने पर विवश हो गई थी. समिति विमान-दुर्घटना-स्थल (ताईपेई) पर जाकर तथ्यों की जांच करना चाहती थी. चूंकि भारत के ताइवान के साथ कूटनैतिक संबंध नहीं थे अत: विदेश मंत्रालय ने ब्रिटिश उच्चायोग से संपर्क साधा.
फाइल के अनुसार, एण्ड्रयू फ्रैंकलिन (अंग्रेजी वाणिज्य दूत, ताइवान) ने पड़ताल के बाद 10 जुलाई, 1956 को विदेश कार्यालय (लंदन) को सूचित किया, ''यह साफ है कि भारतीय अधिकारियों ने जिन गवाहों के वक्तव्यों को उपलब्ध करवाने का हमसे अनुरोध किया था, उनमें से अधिकांश दिवंगत हो चुके हैं या लापता हैं अथवा अब इस विषय से अनभिज्ञ हैं.’’ सुभाष बोस की मृत्यु से जुड़े तथाकथित पुराने जापानी दस्तावेज वस्तुत: एक जापानी सैनिक के थे.
नगरपालिका-विभाग के एक क्लर्क, जिसने 1945 में अंत्येष्टि की अनुमति देने से पहले कथितरूप से नेताजी की पार्थिव देह को देखा था, ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसने एक पाउडर से भरा हुआ शव देखा था, जिसकी केवल आंखें, नाक और होंठ ही दिखने में आ रहे थे, शेष अंग सफेद कफन में लिपटे थे. उसने आगे कहा कि ''हम बोस के जीवनकाल में उनसे परिचित नहीं थे, सो मृत्यु के बाद हम उन्हें पहचानने में असमर्थ हैं.’’
फाइल के अंत में एक ऐसा प्रमाण मिला, जिसे देखकर मुखर्जी भौचक्के रह गए. उसमें लिखा था कि ब्रिटिश/ताइवान की जांच-रिपोर्ट की (एक नहीं) पांच प्रतियां भारत सरकार को 1956 में तुरंत ही भेज दी गई थीं. मुखर्जी सोचने लगे सरकार ने रिपोर्ट उनसे अब तक क्यों छिपाई होगी.
सरकार का छल पूरी तरह उजागर हुआ जब मुखर्जी ने उससे 1972 में प्रधानमंत्री कार्यालय में स्थित नेताजी मृत्यु प्रकरण से जुड़ी एक अहम फाइल नष्ट करने का कारण जानना चाहा. पं. नेहरू संकलित नेताजी-विषयक कई गंभीर तथ्य उसी फाइल में थे. सरकारी कार्यालय प्रक्रिया नियमावली में साफ लिखा था कि ऐतिहासिक महत्त्व रखने वाली फाइलों को 25 वर्ष तक अपने कार्यालय में, उसके बाद राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित रखा जाए.
पर वह फाइल उस समय नष्ट कर दी गई, जब खोसला आयोग नेताजी-प्रकरण की छानबीन कर रहा था. यक्षप्रश्न था कि सरकार ने अपने तत्त्वावधान में चल रही एक जांच के लिए उपयोगी फाइल आयोग को सौंपने के बजाए नष्ट करना क्यों उचित समझा?
सरकार से अपेक्षित स्पष्टीकरण मांगे जाने पर सरकार ने उन्हें घुमा दिया. कई बार स्मरण करवाने पर भी उन्हें संबंधित अवधि में प्रभावी आधिकारिक नियमावली प्राप्त नहीं हुई. इस पर मुखर्जी इस विषय को प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय तक ले गए. गृह और विदेश मंत्रालयों ने साझे तौर पर इस विषय को प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया, जिस पर कार्यालय ने एक ऐसा जवाब भेजा जिसका मुखर्जी के सवालों से तो कोई ताल्लुक ही नहीं था.
उसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेशक ने कहा कि नष्ट हुई फाइल में ही उसे नष्ट किए जाने के बारे में मंत्रालयीय शपथपत्र के माध्यम से यह घोषित कर दिया गया कि सचिवालय के पास नेताजी-प्रकरण से संबद्ध कोई फाइल या दस्तावेज उपलब्ध नहीं. जस्टिस मुखर्जी ने इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकाला कि सरकार उनको जानबूझकर भटका रही थी.
उसके बाद सरकार ने मुखर्जी के सामने उस वन्न्त नई अड़चनें डालीं, जब उन्होंने स्वयं ताइवान जाकर विमान-दुर्घटना के सत्य का अन्वेषण करना चाहा. 2001 से उन्होंने विदेश मंत्रालय को ताइवान में उपलब्ध अपेक्षित जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए पत्र लिखे, जिसके उपलक्ष्य में जून 2003 में मंत्रालय ने आयोग को बताया कि ताइवान में कोई भी प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. इसके उलट, महीने भर पहले आयोग ने एक पत्रकार (इस पुस्तक के सह-लेखक—अनुज धर) और ताइवान सरकार के बीच ईमेल पत्राचार का संज्ञान लिया.
ताईपेई के महापौर डॉ. यिंग जो मा के कार्यालय ने पत्रकार को बताया कि ''ताईपेई शहर के अभिलेखागार में मौजूद ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, उस दिन ताईपेई में विमान-दुर्घटना का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है.’’ लिन लिंग-सेन (परिवहन और संचार मंत्री, ताइवान) ने इस बारे में थोड़ा और तफसील से बताया कि जापानियों के शेष बचे दस्तावेजों की पड़ताल से पता चलता है कि उस अवधि में केवल एक बड़ी हवाई दुर्घटना हुई थी.
सितंबर 1945 में मुक्त कर दिए गए 26 युद्धबंदियों को लेकर जाने वाला एक अमेरिकी सी-47 ट्रांसपोर्टर, ताईपेई से लगभग 200 समुद्री मील की दूरी पर दुर्घटनाग्रस्त हुआ था. ताइवान सरकार के अनुसार, ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं था जो यह प्रमाणित कर सके कि सुभाष बोस को लेकर जाने वाला कोई भी विमान ताईपेई या उसके पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में 14 अगस्त से 25 अक्तूबर 1945 के बीच दुर्घटनाग्रस्त हुआ था.
—चंद्रचूड़ घोष और अनुज धर
चंद्रचूड़ घोष
लेखक: चंद्रचूड़ घोष और अनुज धर; अनुवादक: अंकुर नागपाल
प्रकाशक: वितस्ता पब्लिकेशंस
कीमत: 320 रुपए.