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खुलकर फर्राटे भर सकेंगे चीते?

वन्यजीव विशेषज्ञ यह कहते हुए चीता प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं कि कुनो में उनके लिए शिकार आधार और ठिकाना नाकाफी है

अपनी सरजमीन पर : नामीबिया के नामीब रेगिस्तान में शिकार पर निकला एक चीता अपनी सरजमीन पर : नामीबिया के नामीब रेगिस्तान में शिकार पर निकला एक चीता
राहुल नरोन्हा
  • नई दिल्ली,
  • 01 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 2:36 PM IST

जमीन पर पाया जाने वाला दुनिया का सबसे तेज जानवर एहतियात से तैयार नए घर में क्या इतना आजाद महसूस कर सकता है कि वहां हवा की तरह फर्राटे भर सके? इस अगस्त में यह सवाल इससे जुड़े तमाम लोगों के दिमाग में सबसे ऊपर है. जब भारत अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा होगा, तब उम्मीद की जा रही है कि फिलहाल नामीबिया में कैद चीतों को उनके मौजूदा ठिकाने से 8,000 किमी दूर आजाद कर दिया जाएगा.

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जुलाई की 20 तारीख को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव और नामीबिया की विदेश मंत्री नेटुम्बो नंदी-नदैतवाह ने भारत को चीतों के अंतरमहाद्वीपीय हस्तांतरण के लिए बहु-प्रतीक्षित एमओयू पर दस्तखत किए. एमओयू में दोनों देशों के बीच सहयोग के दूसरे मुद्दे भी हैं, पर फिलहाल इसमें 'चीतों को भारत लाने की कार्य योजना' को मंजूरी दी गई है. नामीबिया के चीता कंजर्वेशन फंड (सीसीएफ) ने भारत को सौंपने के लिए आठ जानवर पहचान कर तैयार रखे हैं. इनमें चार नर और इतने ही मादा चीते हैं. सरकार के शीर्ष सूत्रों ने कहा कि निकट भविष्य में दक्षिण अफ्रीका के साथ भी ऐसे ही एमओयू पर दस्तखत होने की उम्मीद है, जिसके तहत 12 चीते लाए जाएंगे.

ब्योरे अभी तैयार किए जा रहे हैं. ये चीते मध्य प्रदेश के 748 वर्ग किमी में फैले कुनो नेशनल पार्क में लाए जाएंगे. जानवरों को कुनो के पांच वर्ग किमी के बाड़े के भीतर आठ उपखंडों में छोड़ दिया जाएगा. नर चीतों को मादा चीतों से अलग रखा जाएगा. यहां उन जानवरों को भी रखा गया है जो चीतों का शिकार आधार या मुख्य आहार हैं. शिकार आधार को भविष्य में बढ़ाया जाएगा. उम्मीद है कि बाड़े में रहते हुए चीतों का गठजोड़ बन जाएगा, जो दरअसल नर चीतों का समूह होता है जो एक साथ रहते और अपने इलाके की रक्षा करते हैं. पहले इन्हें ही जंगल में छोड़ा जाएगा. लगातार निगरानी के वास्ते सभी जानवरों को रेडियो कॉलर पहनाया जाएगा. नामीबिया के वन्यजीव विशेषज्ञों की टीम चीतों के साथ आएगी.

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चीता तेज रफ्तार का पर्याय है, पर विडंबना यह कि चीतों को लाने की परियोजना बेहद सुस्ती और काहिली से आगे बढ़ी. 1940 के दशक में शिकार की वजह से चीतों के लुप्त हो जाने के बाद भारत में उन्हें फिर लाने की पहली कोशिश 1970 के दशक में हुई, जब चीतों से आबाद एकमात्र दूसरे एशियाई देश ईरान से बातचीत शुरू की गई. पर योजना परवान नहीं चढ़ सकी. 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश इसे फिर एजेंडे में लाए. 2013 में यह योजना ताक पर रख दी गई जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे 'मनमानी और गैरकानूनी' योजना करार देकर विराम लगा दिया. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में फिर अपील की और जनवरी 2020 में इसे हरी झंडी मिली. कुनो पालपुर, मध्य प्रदेश के गांधी सागर अभयारण्य और राजस्थान के कोटा सहित 10 ठिकानों का आकलन करने के बाद भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) ने कुनो को सबसे अच्छा विकल्प पाया. हाल में इस रिजर्व के दौरे पर आए दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया के विशेषज्ञों ने इस आकलन की तस्दीक की.

कुनो में जो बाड़ा बनाया गया है, उसमें सांभर, चीतल, जंगली सूअर, चिंकारा और नीलगाय का भंडार रखा गया है. कुनो के सब डिविजनल ऑफिसर (एसडीओ) अमृतांशु सिंह कहते हैं, ''जब और जैसे जरूरत पड़ेगी, हम शिकार आधार बढ़ा सकते हैं.'' कतर एयरवेज की उड़ान से चीतों की पहली खेप नामीबिया के विंडहोक से नई दिल्ली लाई जाएगी, जहां से जानवरों को सड़क के रास्ते कुनो ले जाया जाएगा. यह दुनिया में चीतों का पहला अंतर-महाद्वीपीय स्थानानंतरण होगा. ऐसे में आम उत्साह के साथ-साथ समूची परियोजना को लेकर गंभीर शंका प्रकट करने वाले लोग भी हैं.
संरक्षण तबके के कई लोग जो चीतों को लाने के विरोधी हैं, दावा करते हैं कि कुनो में शिकार आधार नाकाफी है और यह इन प्रजातियों के लिए आदर्श ठिकाना नहीं है. वन्यजीव संरक्षणवादी वाल्मीक थापर ने योजना का जोर-शोर से विरोध किया और कहा कि अफ्रीकी चीतों को शायद हाथ से या चारा खिलाकर बाड़े से घिरे इलाके में रोककर रखा जा सकता है, पर वे जैसी जगहों पर रहने के अभ्यस्त हैं—अफ्रीका के विशाल, खुले चारागाह—वे भारत में नहीं हैं. उनका कहना है कि चीतों पर खर्च की जा रही रकम बाघ, शेर और हाथी सरीखे जोखिम से घिरी प्रजातियों के संरक्षण पर खर्च की जा सकती थी.

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थापर कहते हैं, ''अफ्रीका में 400 भिन्न-भिन्न चीतों को देखने और बारीकी से उनका अध्ययन करने के बाद मैं कह सकता हूं कि भारत में मैंने ऐसा कोई ठौर-ठिकाना नहीं देखा जहां उन्मुक्त चीतों को सहारा दे सकने जितनी तादाद में शिकार हों.'' वे कहते हैं, ''जो लोग दलील देते हैं कि भारत में चीते थे, वे यह भी कहते हैं कि ये एशियाई चीते थे. मगर जो लाए जा रहे हैं, वे अफ्रीकी चीते हैं और इसलिए विदेशी प्रजातियां हैं.'' थापर का कहना है कि अफ्रीकी चीते बहुत सुंदर होते हुए भी बेहद नाजुक होते हैं. वे कहते हैं, ''यहां तक कि पूर्वी सेरेंगेटी में, जहां चीतों के शिकार के लिए 10-15 लाख जानवर हैं, वहां भी शावक चीतों की मृत्य दर 90  फीसद है.'' वे यह भी कहते हैं कि कुनो में चारों तरफ गांव और जंगली कुत्ते हैं.

बहस के दूसरी ओर भारतीय वन्यजीव न्यास के पूर्व चेयरमैन एम.के. रंजीत सिंह सरीखे संरक्षणवादी हैं, जिनका कहना है कि चीते भारत के लिए विदेशी या पराए नहीं हैं. वे कहते हैं, ''अगर हुमायूं चीते भारत लाया, तो हजार साल पुरानी चट्टानों पर इसकी कलाकृति क्यों है? यही नहीं, अकबर के पास भी 1,000 से ज्यादा चीते थे. इतने इजाफे के लिए उन्होंने बेहद कामयाब संरक्षण या प्रजनन कार्यक्रम चलाया होगा.'' शीर्ष अदालत की तरफ से चीता स्थानांतरण की देख-रेख के लिए विशेषज्ञ समिति के प्रमुख नियुक्त किए गए रंजीत सिंह यह भी कहते हैं, ''कुनो तृणभूमि-वन की पच्चीकारी है...चीते भी जंगलों में जीवित रहने के लिए जाने जाते हैं. भारत में देखा गया आखिरी चीता आज के छत्तीसगढ़ के साल वन में देखा गया था.''

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देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के डीन वाइ.वी. झाला कहते हैं, ''कुनो में प्रति वर्ग किमी करीब 30 चीतल हैं, यह इतना घनत्व तो है ही कि कई टाइगर रिजर्व से होड़ कर सके...नीलगाय, सांभर, मोर, जंगली सूअर और खरगोश भी हैं, जो करीब 20 चीतों के लिए काफी हैं.'' वे यह भी कहते हैं, ''कुनो में न तो जंगली कुत्ते हैं और न ही 750 वर्ग किमी इलाके में गांव हैं...हमारा जनसंख्या व्यवहार्यता आकलन कहता है कि इस स्थानांतर के लंबे वक्त में कामयाब होने की काफी ज्यादा संभावना है.''

चीता कार्य योजना के बारे में भूपेंद्र यादव ने कहा, ''प्रोजेक्ट चीता का उद्देश्य स्वतंत्र भारत में विलुप्त हो जाने वाले अकेले बड़े स्तनधारी को वापस लाना है.'' उन्होंने कहा कि यह परियोजना कभी चीतों से आबाद तृणभूमियों का संतुलन बहाल करेगी, जैवविविधता का संरक्षण करेगी और कार्बन को उनकी अधिकतम क्षमता तक अलग करने की उनकी क्षमता का इस्तेमाल करेगी और साथ ही ईकोटूरिज्म को बढ़ावा देगी. हम जानते हैं कि तेंदुआ कभी भी अपनी जगह नहीं बदलता. भारत के लोग उम्मीद करेंगे कि हमारे अफ्रीकी चीते नए माहौल के साथ अपने धब्बे बदल लें.

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