
किसान आत्महत्या महज आंकड़ा नहीं हैं. यह एक त्रासद समय से गुजर रही किसानों की जिंदगी की चरम परिणिति है. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में किसानों के बीच लंबे समय से काम करने के दौरान मैंने इस भयानक बदलाव को जिया है. आज जो विदर्भ कपास की नकदी फसल के चौपट हो जाने या कीमतें गिर जाने से बरबाद हो रहा है, कभी उसका स्वरूप अलग था. तीन दशक पहले तक यहां पारंपरिक खेती होती थी और फसलों के बीच बेहतर संतुलन था. लेकिन फिर सरकार ही नकदी फसलों की नीति लेकर आई. किसानों को इन फसलों की ओर सरकार ने ही झुकाया. लेकिन 1997 में जब से नकदी फसलों से सब्सिडी खत्म हुई, तब से किसान पूरी तरह बाजार की दया पर आ गए.
इतने लंबे समय तक कपास की खेती करने के दौरान भूजल का जबरदस्त दोहन होने दिया गया. अब जमीन के अंदर पानी नहीं है और मानसून खराब होने पर वर्षा से भी सिंचाई नहीं हो पाती है. ये चीजें किसान को संकट में खड़ा कर देती हैं. लेकिन संकट तब और बढ़ जाता है जब किसान बहुत ऊंची कीमत पर बीज खरीदता है और फिर फसल खराब हो जाती है. हल्दी का बीज 20,000 रु. किलो तक बिक रहा है और पपीते के खास किस्म के बीज की प्रति किलोग्राम कीमत लाख रु. से ऊपर निकल जाती है. किसान ये बीज खरीदने के लिए कर्ज लेता है. महाराष्ट्र की स्थिति यह है कि 20 फीसदी किसानों ने अगर बैंकों से कर्ज लिया है तो 80 फीसदी किसानों ने साहूकारों से कर्ज लिया है. यहां साहूकार का मतलब पारंपरिक पगड़ी लगाए और नाक पर चश्मा अटकाए व्यक्ति से नहीं है. समय के हिसाब से रिश्तेदार, सरकारी कर्मचारी, अध्यापक और पुलिसवाले सब इस धंधे में उतर आए हैं. यह महाराष्ट्र की समांतर ग्रामीण अर्थव्यवस्था जैसा हो गया है. यही वजह है कि अगर सरकारें कर्ज माफ भी करती हैं तो उससे किसानों के बड़े वर्ग को फायदा नहीं मिल पाता.
दूसरी समस्या यह है कि किसान आत्महत्या के 90 फीसदी मामलों को पुलिस और प्रशासन किसान आत्महत्या मानता ही नहीं है, ऐसे में किसान के खुदकुशी करने के बाद उसका परिवार पूरी तरह सड़क पर आ जाता है या रिश्तेदारों के रहमो-करम
पर आ जाता है.
जहां तक महाराष्ट्र सरकार की ओर से दिए गए पैकेज का सवाल है तो इससे कुछ होने वाला नहीं है. इससे पहले 2005, 2006, 2008 और 2009 में भी किसानों के नाम पर भारीभरकम पैकेज दिए गए, लेकिन इनसे किसान आत्महत्या रुकने की बजाए बढ़ी ही हैं. क्योंकि इन पैकेजों का मूल उद्देश्य किसानों का दुख दूर करने की बजाए कुछ लोगों को अपनी जेबें भरने का मौका देना था. सरकार को सीधे किसानों का कर्ज माफ कर देना चाहिए.
इसके बाद गांव में फसलों का पारंपरिक तरीका बहाल करने की तरफ ध्यान दिया जाए. किसी भी सूरत में 50 फीसदी से अधिक किसान नकदी फसलों की ओर न जाएं और बाकी किसान दलहन, तिलहन की ओर रुख करें. किसानों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराई जाएं. उनके बच्चों को पढ़ाई के बेहतर साधन उपलब्ध कराए जाएं. खाद और बीज के दाम इस तरह नियंत्रित किए जाएं कि किसानों की लागत बहुत ज्यादा न बढऩे पाए. ये सारी चीजें सुव्यवस्थित रूप से लागू करने पर किसानों की दशा में धीरे-धीरे लेकिन बुनियादी सुधार आएगा. शिक्षा और स्वास्थ्य का खेती से सीधा संबंध भले न हो लेकिन स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च का किसान आत्महत्या से बहुत बड़ा संबंध है. फूड सिक्युरिटी जैसी पहल को अमल में लाया जाए. इससे कम से कम सूखे या अन्य विकट हालात में किसान के सामने भूखों मरने की नौबत तो नहीं आएगी.
लेकिन देखने में यह आ रहा है कि इस तरह के सकारात्मक सुधार करने की बजाए सरकार सुधार के नाम पर किसान विरोधी नीतियों पर चल देती है. किसान आत्महत्या रोकने के लिए बुनियादी उपाय जरूरी हैं. इससे बहुत अधिक भावुकता या भाषणबाजी से नहीं निबटा जा सकता.
(लेखक विदर्भ जनआंदोलन समिति से जुड़े हैं. यह लेख पीयूष बबेले से बातचीत पर आधारित है.)