
नसीरुद्दीन शाह
हर छात्र, जिसने इब्राहिम अल्काजी के मातहत पढ़ाई की है, वह उन जैसा बनना चाहता था. ऐसे असंख्य छात्र अपना कोर्स पूरा करके अपने गृहनगरों को लौट गए और अमूमन उनके भव्य प्रोडक्शन में से किसी के मंचन की कोशिश करते रहे (और प्राय: नाकाम हुए). उनकी शख्सियत ने जिस तरह से हम सबको सम्मोहन में जकड़ रखा था, वह सिर्फ एक बात से स्पष्ट होती है कि चाहे कोई कितनी भी बार उनके दफ्तर के सामने से गुजर जाए, पर वे अंदर क्या कर रहे हैं, यह देखने की इच्छा इतनी बलवती होती थी कि मैं तो खुद उनके कमरे में तब भी ताकझांक करता था, जब वे शहर में नहीं होते थे.
लड़के उनकी पूजा करते थे और लड़कियां उन पर जान देती थीं—यहां एक किस्सा भी है. पता नहीं झूठ या सच. उनके घर पर डिनर पर गईं दो छात्राओं ने बाथरूम में उनका सेफ्टी रेजर देख लिया. उन्होंने उस रेजर को झाड़कर उसमें से उनकी दाढ़ी के टुकड़े निकाल कर रख लिए थे.
भारतीय रंगमंच को स्तरीयता और अनुशासन के साथ खुद उसके लिए मिसाल पेश करते हुए, कला और साहित्य के अपने ज्ञान को अपने नाट्य कार्यों में लगातार प्रसारित करने की उनकी विरासत, हम सभी को उन सभी क्षेत्रों की अहमियत के बारे में बताकर हमें हरफनमौला रंगकर्मी बनाने में उनकी भूमिका कमाल की रही. यह काम उनके कुछ मुरीद अब भी कर रहे हैं जो मंच से जुड़े हैं.
मेरे लिए, कुछेक असहमतियों के बावजूद उनकी कद्दावर शख्सियत कभी छोटी नहीं पड़ी. मंच पर क्या प्रभावी होता है इस पर उनकी सहज वृत्ति अतुलनीय थी और उनके पास शुष्क विश्लेषण और 'मेथड' के पेचो-खम के लिए जरा भी धीरज नहीं था. हालांकि, वे शायद ही कभी किसी खास कंपोजिशन या मंचीय कार्य की व्याख्या करने की जहमत उठाते थे (किसी को पूछने की हिम्मत भी नहीं थी). उनके कारण पर्याप्त रूप से स्पष्ट होते थे जब उस कार्य को जिंदगी मिलती थी—मंचीय कार्य में यह बुनियादी महत्व की बात है. उनकी प्रस्तुतियों की गतिशीलता, परिष्कार और सफाई आज भी अपने देश में तो बेजोड़ है. ऐसे गुरु हर दौर में मिलें.
नसीरुद्दीन शाह मशहूर रंगमंचीय और सिनेमा अभिनेता हैं. उन्होंने कई नाटकों का निर्देशन भी किया है
बिंदु में समाया जगत
एस.एच. रज़ा (1922–2016)
दुनिया में ज्यामितीय आकृतियों पर उतनी सघनता से बहुत चित्रकारों ने काम नहीं किया, जितना एस.एच. रज़ा ने किया, उनके काम में आकृतियां हैं और हर बिंदु अलग एहसास और भावनाओं से भरा है
गणेश हलोई
उनसे मैं सिर्फ एक दफा मिला हूं. वे अपने श्रोताओं के लिए 'पॉइन्ट' (बिंदु) की व्याख्या कर रहे थे—जिसका मूल भाव यह था कि वे अपनी रचना की तरफ ज्यामितीय आकारों से पहुंचना चाह रहे हैं. मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि क्या मेरी समझ उनके विचारों से मेल खाती है.
निजी तौर पर, मैं जब ज्यामितीय आकृतियों के उनके कैनवस की तरफ देखता हूं—त्रिकोण, आयत, वर्ग, बेलनाकार, रेखाएं—तो मुझे उनमें एक खिलदंड़पन नजर आता है, उनमें एक तरलता है. इनमें आकारों को इस तरह से सजाया गया है कि वे कोई भावना, कोई एहसास को प्रकट करते दिखते हैं.
यह कुछ ऐसा था मानो वे रूपों के माध्यम से निराकार तक या शायद उसके उलट पहुंचने की कोशिश कर रहे थे. बिंदु सभी आकृतियों का अभिसरण और विचलन दोनों था. यह सृजन का बिंदु था.
रंगों का उनका उपयोग भी आकर्षक था—कोई सम्मिश्रण नहीं, केवल शुद्ध रंगों का उपयोग. यह सादगी 'बिंदु' की सरल लेकिन गहन और पेचीदा कहानी भी बताती है.
गणेश हलोई देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित चित्रकारों में हैं