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(स्मृति: पी.वी. सतीश 1945-2023)
सोपान जोशी
भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष घोषित किया था. शनिवार, 18 मार्च को दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में 'ग्लोबल मिलेट्स (श्री अन्न) सम्मेलन' का उद्घाटन हुआ. इसके अगले ही दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई जिसे सबसे अधिक श्रेय जाता है इन अनाजों को फिर से प्रचलन में लाने का.
एक लंबी बीमारी के बाद 77 साल की उम्र में 19 मार्च को पी.वी. सतीश का देहांत हो गया. उन्हें कई श्रद्धांजलियां दी गईं, जिनमें याद दिलाया गया कि भारत के असली 'मिलेट मैन' वे ही हैं. ऐसा इसलिए कि यह खिताब कम-से-कम दो और लोगों पर पहले ही मढ़ा जा चुका है और इसके अन्य दावेदारों भी होंगे ही!
हमारे इस इश्तेहारी दौर की फितरत यही है. सच बताने लायक तभी होता है जब वह आसानी से गले उतर सके. वर्ना कल्पनाओं से, सच्चे-झूठे 'लेबलों' से काम चल जाता है. तो फिर आखिर भारत का असली 'मिलेट मैन' है कौन?
अगर सतीश इस सवाल को सुनते, तो हंसते. उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया इस तरह की सतही समझ और विज्ञापनी लेबल हटाने में. उनके जीते-जी उन्हें किसी ने 'मिलेट मैन' कहा हो यह उनके सहयोगियों को पता नहीं. इश्तेहारों की भाषा और तौर-तरीके वे 1960 के दशक से जानते थे, उन्हें पढ़ाते भी थे. अपनी सूझ-बूझ का उपयोग उन्होंने साबुन-तेल या सॉफ्टवेयर या आर्थिक विकास का सपना बेचने के बाजारू अभियानों में नहीं किया.
अपना फलता-फूलता करियर 1980 के दशक में छोड़कर वे साधारण महिलाओं के खेती-बाड़ी के विवेक को समझने में जुट गए. सतीश के बारे में लोग इतना कम इसलिए जानते हैं क्योंकि उन्होंने आत्मप्रचार से लंबी दूरी बना कर रखी, न अपने आप को चमचों से घेरे रखा जो उनका ढोल बजाएं. उन्होंने हमारे साधारण समाज की मेधा का अध्ययन किया. उसे वह सम्मान दिलाने की कोशिश की जिसकी उपेक्षा समाज का पढ़ा-लिखा, आत्मलीन वर्ग करता ही रहता है. सतीश के नायाब जीवन में 'मिलेट' केवल एक कड़ी थी.
मैसूरू का एक धनवान परिवार
उन्हें अपने बारे में बात करना पसंद नहीं था. केवल उनके निकट के कुछ लोगों को पता था कि पेरियापटना वेंकटसुबैय्या सतीश का जन्म 18 जून, 1945 को मैसूरू के एक साधनसंपन्न परिवार में हुआ था. एक सहयोगी को उन्होंने बताया कि उनके बचपन का एक हिस्सा कॉफी के बागानों पर बीता था. कॉलेज में उन्होंने पत्रकारिता पढ़ी और गोल्ड मेडल के साथ स्नातक हुए. 1965 में भारतीय जन संचार संस्थान दिल्ली में बनने के बाद उसके शुरुआती सालों में सतीश वहां पढ़ने आए.
उसी दौर में आकाशवाणी के एक हिस्से में 'दूरदर्शन' के नियमित टी.वी. कार्यक्रम शुरू हुए थे. सतीश दूरदर्शन के हैदराबाद केंद्र में प्रोड्यूसर हो गए. जब 1975 में उपग्रह के इस्तेमाल से ग्रामीण लोगों के साथ दूरदर्शन पर संवाद करने का 'साइट' नामक प्रयोग हुआ, तब सतीश को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इसमें ग्रामीणों के सवालों का जवाब टी.वी. पर दिया जाता था. छह राज्यों के बीस जिलों के 2,400 गांवों तक 'साइट' कार्यक्रम की पहुंच थी. हजारों ग्रामीण पहली बार टी.वी. सेट देखने उमड़ पड़े थे.
इसरो और नासा जैसी संस्थाओं की भागीदारी वाला यह प्रयोग सफल हुआ. इससे यह तय हुआ कि भारत में उपग्रह के माध्यम से संचार व्यवस्था जम सकती है. (उस रास्ते पर चलते हुए आज हम कहां पहुंच गए हैं!) इसका एक असर यह था कि सतीश का परिचय संयुक्त आंध्र प्रदेश की ग्रामीण समस्याओं से हुआ. एक धनवान परिवार में जन्मे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के पत्रकार ने गांवों में रहने वालों की सुध ली.
प्रतिभाशाली लोगों को दूसरों की प्रतिभा की परख भी आ जाती है, वह भी अलग-अलग विधाओं में. 1983 में जब हैदराबाद में एक-दिवसीय क्रिकेट मैच हुआ, तब सतीश के आग्रह पर 22 साल के एक प्रतिभाशाली युवक को टी.वी. कमेंट्री करने का पहला मौका दिया गया. इस युवक का नाम था हर्षा भोगले, जो आगे चल कर क्रिकेट कमेंट्री में प्रसिद्ध हुए. सतीश की मृत्यु पर भोगले ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और भावभीनी श्रद्धांजलि दी.
दूरदर्शन के प्रोड्यूसर के नाते सतीश ग्रामीण भारत पर ध्यान देने लगे. ऐसे ही किसी कार्यक्रम को बनाने के लिए हैदराबाद के पश्चिम में सांगारेड्डी जिले के जहीराबाद मंडल के पस्तापुर गांव में उनका जाना हुआ. यहां से उनका लगाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा. अब उनके परिचय में ऐसे कई लोग आ चुके थे जो गांवों के उत्थान में रुचि रखते थे, जो ग्रामीण लोगों की मदद के लिए कुछ करना चाहते थे.
ये सभी लोग खूब पढ़े-लिखे थे, ग्रामीण भारत का तरह-तरह से विकास करना चाहते थे. इन्होंने मिल कर पस्तापुर में एक संस्था बनाई जिसका नाम था 'डेकन डेवलपमेंट सोसाइटी' या डी.डी.एस. नाकों चबाने पड़े विकास के चावल संस्था के लोगों का वहां के लोगों से वास्ता पड़ा. उन्हें ऐसा बहुत कुछ समझ में आने लगा जो बाहर के लोगों के लिए जानना नामुमकिन है.
जैसे उन्होंने यह जाना कि आजादी के बाद जब भूमि आवंटन हुआ और जमीन की मिल्कियत की सीमा तय हुई, तब ताकतवर जातियों ने उपजाऊ टुकड़े अपने परिवार में ही रख लिए. कमजोर और दलित जातियों को मिलीं ऐसी जमीनें जो रिहाइशी इलाके से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर थीं.
उनके पास बैल और गाड़ियां नहीं थीं उन खेतों तक पहुंचने के लिए. यही नहीं, उन्हें मिले जमीन के हिस्से खेती के लिए बेकार थे: पथरीले और कंटीली झाड़ियों से अटे हुए. कटाव के बाद उनमें उपजाऊ मिट्टी बची ही न थी. आजीविका के लिए वे आजादी के पहले की तरह बड़े जमींदारों की मजदूरी ही कर सकते थे.
फिर 1983 में आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामराव की सरकार आई और मजदूरी भी बंद हो गई. रामराव फिल्मी जगत से आए थे और उनकी नीतियों का आग्रह झट से प्रजा को खुश करने वाला था. उनकी प्रेरणा थी पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में फिल्मी दुनिया से आए मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन की लोक-रिझावन नीतियां. जैसे कि सरकारी रियायत पर दो रुपए किलो का चावल. इस तरह की नीतियों से राजनीतिक करियर तो झट-पट बन जाते हैं, समाज का दूरगामी नुक्सान होता है. खेती से उपजाने वाले आत्मनिर्भर लोग राजनैतिक कृपा के दयनीय पात्र बन जाते हैं.
सस्ते अनाज की वजह से बड़े जमींदारों का ध्यान भी अपनी खेती से हट गया. बंजर जमीन वाले छोटे किसानों को अब मजदूरी के लाले पड़ गए थे. इसका सबसे बुरा असर था दलित महिलाओं पर. अनेक तरह के अनाज उगाने और परिवार को पोसने के लिए उनका संचय करने वाली महिलाओं की हालत बदतर हो चली थी. उनके पास न तो रोजगार था, न खेती, न दिहाड़ी, न किसी तरह का उत्पादन. बस, केवल सरकारी कृपा का सस्ता चावल बचा था.
नए शिक्षक, नई शिक्षा
पस्तापुर पहुंचने पर सतीश और उनके साथियों का सामना इन दलित महिलाओं से हुआ. कोई दूसरा होता तो खुद को उनका उद्धारक मान लेता. सतीश पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से आए थे. भाषा और संचार की राजनीति से परिचित थे. उन्हें पता था कि उस स्थान की समस्याओं का समाधान बाहर से नहीं आ सकता, उसे वहीं पर खोजना पड़ेगा. उन्होंने इन महिलाओं से लंबी बातचीत शुरू की. धीरज से उन्हें सुनना-समझना शुरू किया. यही महिलाएं उनकी गुरु बन गईं. सतीश ने शादी तो नहीं ही की थी, 1987 में उन्होंने दूरदर्शन की नौकरी भी छोड़ दी और तन-मन-धन पस्तापुर और डी.डी.एस. में लगा दिया.
इन्हीं से सतीश को पता चला कि इस इलाके में चावल की खेती केवल उन जगहों पर होती थी जहां 'एरी' यानी तालाब बने हुए थे दक्खन के पठार की ढाल के हिसाब से. साधारण लोग ऐसे ज्वार और बाजरा जैसे अनाज उगाते और खाते थे, जिन्हें सींचने के लिए नहरों और तालाबों की जरूरत नहीं पड़ती थी. बहुत कम बारिश में भी ये अनाज उग आते थे और इनसे पशुओं के लिए पर्याप्त चारा निकलता था. एक ही खेत में ज्वार, दलहन, तिलहन, साग और सब्जियां उगाई जाती थीं, जिससे मिट्टी उपजाऊ बनी रहती थी. इन साधारण महिलाओं को पीढ़ियों के अनुभव से यह भी पता था कि उनके अनाज सेहत के लिए गेहूं और चावल से बेहतर हैं.
सतीश के माध्यम से शोधकर्ता पस्तापुर आने लगे, जो साधारण समाज के खान-पान पर नई पद्धति से शोध करने लगे. उन्हें आधुनिक यंत्रों और ज्ञान विधाओं से पता लगा कि इन महिलाओं की बातें एकदम खरी थीं. सतीश के लिए सबसे बड़ा सबक यह था कि स्वस्थ खेती अरण्य या वन या जंगल की ही तरह प्रकृति के साथ चलती है. उसमें विविधता होती है. जैसे रईस लोगों के पास तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह का खान-पान होता है, वैसे ही संपन्न किसान वही है जिसके पास तरह-तरह की फसलें हैं जिन्हें वे एक साथ उगा सकते हैं. एक फसल की खेती किसान या तो राज्य की कठोरता में करते हैं या कॉर्पोरेट दबाव में.
सतीश में गजब का सौंदर्य बोध था. उन्हें समझ आ गया था कि महिलाएं जो भी घरेलू काम करती हैं, उसमें खूबसूरती डालने का प्रयास करती हैं. स्वस्थ खेती के संदेश का प्रसार करने के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में निकलने वाली 'जात्राओं' की मदद ली. उनके काम की वजह से ज्वार और बाजरा जैसे 'मोटे' अनाज का दूर-दूर तक प्रचार शुरू हुआ. उन्होंने आज से 22 साल पहले हैदराबाद में इन अनाजों पर आधारित एक भोजनघर बनवाया. देसी खेती पर काम करने वाले अनेक कार्यकर्ता, शोधकर्ता उनसे प्रेरणा और विचार पाते रहे, मदद भी.
उनके काम से इन अनाजों का व्यापक प्रचार हुआ, हालांकि अपनी जड़ों से उखड़ा नया समाज इन्हें केवल अंग्रेजी के एक फैशनेबल नाम 'मिलेट्स' से जानता है. इनका प्रचार सतीश के लिए उनके काम का एक हिस्सा भर था. उनका असली काम था समाज और प्रकृति की गहरी, व्यावहारिक समझ पैदा करना. अपने साधारण लोगों के ज्ञान और सूझ-बूझ को सम्मान देना, उसमें छिपे बड़े संदेश को अपने ही समाज और मिट्टी से कट गए नए लोगों तक पहुंचाना.
जी नहीं, सतीश भारत के 'मिलेट मैन' नहीं थे. वे भारत की साधारण महिलाओं के विवेक को समझने वाले अपने लोगों के सच्चे सपूत थे. अपने समाज से कट चुके 'नए इंडिया' के उफनते राष्ट्रीय गौरव के सामने वे एक स्वस्थ जीवन का सहज उदाहरण बन कर जीये, फिर अपने एक कमरे के अस्तित्व को समेट कर चले गए. श्रद्धांजलि.
प्रतिभा की उन्हें समझ थी. हैदराबाद में 1983 में एक-दिवसीय क्रिकेट मैच होने पर सतीश के आग्रह पर 22 साल के एक युवक को टीवी कमेंट्री करने का मौका दिया गया. इस युवक का नाम था हर्षा भोगले.